Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
त्रसजीव : आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में बताया है कि जिन जीवों में त्रस नामकर्म के उदय से स्वयं के हलन चलन की सामर्थ्य देखी जाती है; वे सजीव कहलाते हैं । ३०१ जीवविचार में बताया है कि जो स्वेच्छा से गमन करते हैं अर्थात् जो धूप से छाया में और छाया से धूप में आते-जाते हैं अथवा सुख-दुःख के अनुकूल और प्रतिकूल संयोगों में जो जीव स्वयं की इच्छानुसार गति कर सकते हैं वे सजीव हैं ।
स्थावर के भेद :
_ ३०२
_ ३०३
स्थान पर स्थिर रहते हैं; वे उत्तराध्ययनसूत्र तथा कर्मानव ३ के निम्न तीन भेद किये हैं :
το
(१) पृथ्वीकाय; (२) अप्काय और (३) वनस्पतिकाय ।
किन्तु परवर्ती ग्रन्थों में तेजस्काय एवं वायुकाय को मिलाकर पाँच भेद किये गये हैं । शान्तिसूरिरचित जीवविचार में इनके पाँच भेद ही किये गये हैं । ३०४
स्थावर नामकर्म के उदय से जो जीव एक स्थावर जीव कहलाते हैं। में उमास्वाति ने स्थावर जीव
२. इन्द्रियों की अपेक्षा से संसारीजीव के भेद
इन्द्रियों की अपेक्षा से संसारीजीवों के निम्न पाँच भेद किये गये हैं : (१) एकेन्द्रियः (३) त्रीन्द्रिय; (४) चतुरिन्द्रिय; और
३०१ ‘त्रसनामकर्मोदयवशीकृतास्त्रसा'
३०२
एकेन्द्रिय जीव
इनमें पुनः एकेन्द्रिय जीवों के निम्न पाँच भेद हैं :
(१) पृथ्वीकाय जो जीव पृथ्वीकाय स्थावर नामकर्म के उदय से पृथ्वीकाय में उत्पन्न होते हैं, वे पृथ्वीकायिक स्थावर एकेन्द्रिय
उत्तराध्ययनसूत्र ३६/६८ ।
३०३ 'पृथिव्यऽम्बुवनस्पतयः स्थावराः '
३०४
(२) द्वीन्द्रिय; (५) पंचेन्द्रिय |
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जीवविचार (यशोविजयजी जैन पाठशाला) पृ. ५ ।
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- सर्वार्थसिद्धि २ / १२ ।
- तत्त्वार्थसूत्र २/१३ ।
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