Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अनादिकाल से कार्मण शरीर के साथ चैतन्य - स्वरूप आत्मा का संयोग होने के कारण वह देहधारी आत्मा मूर्त (रूपी) है एवं ज्ञानादि स्वभाव को नहीं छोड़ने के कारण आत्मा अमूर्त भी है।२५६ अतः सिद्ध है कि निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा अमूर्तिक है किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से अनादि काल से क्षीर-नीर सम परस्पर आत्मा और कर्म का संयोग होने के कारण आत्मा मूर्तिक है । इस प्रकार जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा कथंचित् अमूर्त और कथंचित् मूर्त है ।
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४. आत्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप का चित्रण
आत्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप को जैनदर्शन के साथ-साथ प्रायः सभी भारतीय दर्शनों में भी स्वीकार किया गया है। आत्मा वचनातीत है एवं वाणी के द्वारा उसका वर्णन असम्भव है। यदि उसे रूपी कहा जाय तो चक्षु से दृष्टिगोचर क्यों नहीं होती है ? अगर उसे अरूपी कहा जाये तो अरूपी आत्मतत्त्व को रूपी शरीर में कैसे बाँधा जा सकता है? दूसरे शब्दों में यदि उसे अरूपी माना जावे; तो वह शरीरधारी कैसे हो सकती है? आनन्दघनजी कहते हैं कि यदि उसे उभयरूप अर्थात् रूपी-अरूपी दोनों आत्मा कहता हूँ, तो सिद्ध परमात्मा के लक्षण से उसकी समरूपता घटित नहीं होती है ।
.२६१
यदि हम आत्मा को स्वरूपतः मुक्त कहेंगे तो सांसारिक अवस्था घटित नहीं होगी। क्योंकि शुभाशुभ कर्म, पुण्य-पाप, पुनर्जन्म आदि आत्मपर्याय हैं। फिर पुनर्जन्म आदि पर्याय भी निरस्त मानी जायेंगी। यदि उसे स्वरूपतः बद्ध कहा जाये तो मुक्ति सम्भव नहीं
२५६ तत्त्वार्थवार्तिक २/७/२४ |
२६० (क) 'व्यवहारेण कर्मभिः सहैकत्वपरिणामान्मूर्तो ऽपि निश्चयेन । निरूपस्वभावत्वान्नहि मूर्तः ।। २७ ।।
(ख) धवला १३ / ५ / ५ /६३ । २६१ 'सरवंगी सब नइ घणी रे, नयवादी पल्लो गहै प्यारे, अनुभव गोचर वस्तु को रे, कहण सुणण को कुं कछु नहीं
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- पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका टीका ।
मानै सब परवान ।
करइ लाइ ठान ||
जाणि वो इह इलाज ।
प्यारे, आनन्दघन महाराज ।। ६१ ।।' -आनन्दघन ग्रन्थावली ।
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