Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
३. आकाशास्तिकाय जैनदर्शन में पंचास्तिकायों अथवा षड्द्रव्यों में तीसरे द्रव्य के रूप में आकाशास्तिकाय का उल्लेख मिलता है। भगवतीसूत्र में बताया गया है कि “अवगाह लक्खणेणं आगासत्थिकाए” अर्थात् अवकाश देने वाले द्रव्य को आकाश कहते हैं। आकाश अवगाह लक्षण वाला है। तत्त्वार्थसूत्र में भी बताया है“आकाशस्यावगाहः”। इस सूत्र में आकाश के लक्षण की चर्चा मिलती है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी आकाश द्रव्य का लक्षण भाजन के रूप में मिलता है - "भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं" अर्थात् आकाशद्रव्य सर्वद्रव्यों के लिए भाजन रूप है। उसका लक्षण अवकाश देना है।'६ आकाश अमूर्तद्रव्य होते हुए भी आकाश के अस्तित्व को अनुभव किया जा सकता है। चार्वाक को छोड़कर भारतीय दार्शनिकों ने आकाश के अस्तित्व को माना है। संसार के सभी पदार्थों को आश्रय या स्थान देने वाला तत्त्व आकाश ही है। द्रव्य की दृष्टि से आकाश एक अखण्ड द्रव्य है। क्षेत्र की दृष्टि से यह द्रव्य लोकालोक परिमाण है अर्थात् असीम और अनन्त विस्तार वाला है। यह सर्वव्यापी है। असीम होने से इसके प्रदेशों की संख्या अनन्त है। काल की दृष्टि से आकाश अनादि और अनन्त (शाश्वत) है। भाव की दृष्टि से आकाश अमूर्त अर्थात् वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श से रहित है। आकाश अभौतिक और अचेतन है, अगतिशील है। आकाश द्रव्य भी उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त लक्षण वाला है। पूर्व पयार्य का विनाश और उत्तर पर्याय का उत्पाद होते हुए भी यह अविच्छिन्न द्रव्य है। इसलिए आकाश द्रव्य परिणामी नित्य माना जाता है।
४. पुद्गलास्तिकाय जैनदर्शन का एक पारिभाषिक शब्द “पुद्गल" है। जैनागमों में
१७ भगवई १३/४/५८ । १८ तत्त्वार्थसूत्र ५/१८ ।
'भायणं सव्वदव्वाणं नहं ओगाहलक्खणं ।। ६ ।।'
-उत्तराध्ययनसूत्र, अध्ययन २८ ।
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