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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१.४.२
आत्मा की स्वभाव और विभाव परिणति
निश्चयनय की दृष्टि से आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव में स्थित है । किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मा के स्वाभाविक व वैभाविक दोनों पर्याय है। जब तक आत्मा अपने शुद्ध स्वभाव को जानकर आत्मनिष्ठ नहीं हो जाती, तब तक वह मोहग्रस्त राग-द्वेष जन्य वैभाविक अवस्थाओं से मुक्त होकर पूर्ण ज्ञानादि रूप स्वभावपर्याय में परिणमित नहीं हो पाती है । विभावदशा का अभाव होने पर ही आत्मा में वीतराग भाव उत्पन्न होगा और एक समय ऐसा होगा कि मोहजन्य राग-द्वेष का अभाव होकर आत्मा की शुद्ध स्वभावरूप वीतरागदशा प्रकट होगी। व्यक्ति के अन्तर्मुख होते ही समस्त शुभाशुभ विकल्प - जाल का प्रलय हो जाता है और अन्तर में स्वभावरूप निर्विकल्प आनन्द का सागर लहराने लगता है । तब साधक आत्मानन्द में तल्लीन हो जाता है । जब शुद्धात्मानुभूति का अभ्युदय होता है; तब चैतन्यपुंज आत्मा सम्यक् प्रकार से अपने स्वभावात्मक परिणमन में स्थिर हो जाती है ।
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आत्मा की स्वाभाविक एवं वैभाविक अवस्था
आध्यात्मिक दृष्टिकोण से जैनदर्शन में आत्मा की मुख्यतया दो अवस्थाएँ स्वीकार की गई हैं स्वाभाविक और वैभाविक । विभाव अवस्था में स्थित आत्मा को बहिरात्मा कहा गया है। बहिरात्मा बाह्य जगत् में भटकने की रुचिवाली होती है । वह स्व-स्वरूप में स्थित होकर ज्ञाताद्रष्टा स्वभाव की अनुभूति नहीं कर पाती है । यह बहिर्मुखता या वैभाविक अवस्था उसके आत्माभिमुख बनने में बाधक होती है । विभावदशा के समाप्त होने पर ही स्वभावदशा प्रकट होती है ।
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आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जो इच्छाओं तथा आकांक्षाओं के पीछे भागेगा, उसका चित्त छलनी की तरह होगा । उसका व्यक्तित्व बिखर जायेगा तथा वह स्व-स्वरूप की अनुभूति नहीं कर पायेगा। जड़ पदार्थों से परे हटकर अन्तरजगत् में प्रवेश करना ही
२३० 'रात विभाव विलात ही, उदित सुभाव सुभानु । समता साच मतइ मिलै आनन्दघन मानु ।। ३४ ।।'
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- आनन्दघन ग्रन्थावली ।
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