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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
आत्माश्रित हैं। जैनागम आचारांगसूत्र,२३५ सूत्रकृतांग,२३६ भगवतीसूत्र२३७ आदि में समत्व या समता को आत्मा का स्वभाव कहा गया है और इसके विपरीत राग-द्वेष जन्य कषायों को विभावदशा कहा गया है। विभावदशा ही बहिरात्मदशा है। विभावदशा से पराङ्मुख होकर आत्मा 'स्व' में स्थित होकर शुद्धात्मानुभूति करती हुआ परमात्म अवस्था को उपलब्ध कर लेती है।
१. आत्मा परिणामी कैसे ?
जैनदर्शन में आत्मा को परिणामी नित्य माना गया है। वह उत्पाद-व्यय एवं ध्रौव्य स्वभाव वाली है। आत्मा का अपने स्वभाव में अवस्थित रहना परिणाम कहलाता है।३८ आचार्य अमृतचन्द्र ने कहा है कि “स्वयमेव परिणमन्ते" अर्थात् संसार का प्रत्येक पदार्थ अपने उपादान की योग्यता के अनुसार स्वयं ही परिणमित होता है। अन्य पदार्थ उसके परिणमन में निमित्त मात्र ही हो सकते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक में आत्मद्रव्य को परिणामी कहा गया है। परिणमन का अर्थ परिवर्तन होता है। आत्मा अपने स्वद्रव्यत्व या स्व-स्वरूप को छोड़े बिना स्वाभाविक परिणमन करती है।३६ इस परिणाम या परिवर्तन को पर्याय भी कहा जा सकता है। यह पर्याय दो प्रकार का है: व्यंजनपर्याय२४० और अर्थपर्याय।२४१ जीव और पुद्गल द्रव्य-परिणामी कहलाते हैं क्योंकि इन दोनों में व्यंजनपर्याय और अर्थपर्याय दोनों ही पाये जाते हैं। अर्थपर्याय की अपेक्षा से धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन द्रव्यों को भी परिणामी कहा गया
२३५ 'समियाए धम्मे आरियेहिं पवेदिते ।'
-आचारांगसूत्र १/५/३ । २३६ सूत्रकृतांग १ अ. १, ३२१ । २३७ 'आयाए समाइए आया समाइस्स अट्ठे ।। २२८ ।।'
-भगवतीसूत्र १/६ । २३८ (क) प्रवचनसार ६६ । (ख) 'तद्भावः परिणामः ।'
-तत्त्वार्थसूत्र ५/४१ । २३६ 'परिणामो विवर्तः ।। १० ।।'
-न्यायविनिश्चय टीका १। २४० 'व्यंजन पर्याय स्थूल एवं शब्दगोचर होती है। शरीर के आकार रूप आत्मप्रदेशों का
अवस्थान व्यंजन पर्याय होती है । नर, नरकादि व्यंजन पर्याय संसारीजीवों के ही होती हैं।' २४१ 'अगुरुलघुगुण की षड्गुणवृद्धि और हानि रूप प्रतिक्षण बदलने वाला पर्याय अर्थ-पर्याय
कहलाता है । मुक्त जीव इसी पर्याय की अपेक्षा से परिणामी हैं ।'-द्रव्यसंग्रह टीका ७६-७७ ।
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