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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
कर्मावरण नष्ट होता है। तब आत्मा परमात्मपद की स्वामी बनती है। आत्मा में सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्तपरूपी दीप के प्रज्वलित होने पर ज्ञानावरणीय आदि घातीकों के आवरण हट जाते हैं तथा अनन्त-चतुष्टय का प्रकटन होता है और आत्मा अन्तरात्मा से परमात्मा बन जाती है अर्थात् सर्वज्ञता की उपलब्धि कर लेती है।
(क) अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान
जैनाचार्यों ने अपने तीर्थंकरों की सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। आत्मा पर से कर्मावरण हटने पर अनन्तदर्शन और अनन्तज्ञान गुण अर्थात् सर्वज्ञता स्वाभाविक रूप से प्रकट हो जाती है। सर्वज्ञता से युक्त परमात्मा संसार के समस्त जीवों तथा तीन लोकों के समस्त पदार्थों को एक साथ (युगपत) जानते एवं देखते हैं। दूसरे शब्दों में यह विश्व ज्यों का त्यों उनके ज्ञान में वैसे ही झलकता है जैसे दर्पण में वस्तुएँ प्रतिबिम्बित होती हैं।२१२ आचारांगसत्र २१३ में सर्वज्ञता को इसी प्रकार बताया गया है। कन्दकन्दाचार्य२१४ शिवार्य२१५ और नियुक्तिकार भद्रबाहुस्वामी२१६ ने भी सर्वज्ञ को समस्त पदार्थों का द्रष्टा माना है। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार के "शुद्धोपयोगाधिकार"२१७ में सिद्धों की सर्वज्ञता के सम्बन्ध में कहा है कि “व्यवहारनय की अपेक्षा से वे समस्त लोकालोक के सभी पदार्थों को सहजभाव से देखते और जानते हैं; किन्तु पदार्थों के परिणमन से न तो केवली भगवान् प्रभावित होते हैं और न उनके देखने-जानने से पदार्थों का परिणमन ही प्रभावित होता है। निर्लिप्त भाव रूप सहज ही ज्ञाता-ज्ञेय सम्बन्ध रहता है; किन्तु निश्चयनय की अपेक्षा से तो वे अपने आत्म-स्वरूप को
" उत्तराध्ययनसूत्र २०/३६ । १२ षड्खण्डागम १३/५/५/८२ । २३ आचारांगसूत्र श्रु. २, चू.३ (दर्शन और चिन्तन पृ. १२६) । २४ प्रवचनसार १४७ । २१५ भगवतीआराधना २१४२ । २१६ आवश्यकनियुक्ति १२७ । २१७ नियमसार गा. १५६ ।
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