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विषय प्रवेश
जानते-देखते हैं ।" केवली की परपदार्थज्ञता व्यवहारिक है नैश्चयिक नहीं है I यह बात डॉ. महेन्द्रकुमार ने सिद्धिविनिश्चय की प्रस्तावना में लिखी है ।
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जैन तर्कशास्त्रियों ने तार्किकयुग में समन्तभद्राचार्य, सिद्धसेन, अकलंकदेव, हरिभद्रसूरि, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्रसूरि आदि द्वारा भी सर्वज्ञ की अवधारणा स्वीकार की गई है। समन्तभद्र कहते हैं कि जिनको सूक्ष्म अतीन्द्रिय पदार्थ प्रत्यक्षरूप से केवलज्ञानरूपी दर्पण में समानरूप से प्रतिभाषित होते हैं; वे सर्वज्ञ हैं २१६ यह सर्वज्ञता अनुमान प्रमाण से स्वीकार की गई है। इसी तरह अकलंकदेव, हरिभद्र एवं विद्यानन्द आदि आचार्यों ने भी परमात्मा की सर्वज्ञता को स्वीकार किया है। परमात्मप्रकाश में कहा गया है कि जो आत्मा के निर्मलतम सर्वज्ञ स्वरूप का चिन्तन करता है, वह परमात्मा को प्राप्त करता है।
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( ख ) अनन्तसौख्य
अनन्त- चतुष्टय में सौख्य को भी आत्मा का स्वलक्षण माना गया है । २२१ यदि आनन्द या सौख्य को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानें तो चेतना के भावनात्मक पक्ष की उपेक्षा होगी। आनन्द आत्मा का भावनात्मक पक्ष है । यदि आनन्द को आत्मा का स्वलक्षण न मानकर आत्मा से बाह्य तत्त्व माना जायेगा तो फिर जीवन का साध्य आन्तरिक न होकर बाह्य होगा । यदि आनन्द - क्षमता आत्मगत न होकर वस्तुगत होगी, तो सुखों की उपलब्धि बाह्य साधनों पर निर्भर होगी; किन्तु यह बात अध्यात्म शास्त्र के विरूद्ध जाती है 1 जीवन में हम अनुभव करते हैं कि आनन्द का प्रत्यय पूर्णतः बाह्य नहीं है । बाह्य वस्तुओं की अपेक्षा वह हमारी चेतना या मनःस्थिति पर निर्भर करता है । असन्तुलित या तनावपूर्ण चैत्तसिक स्थिति में सुख के बाह्य साधनों के होते हुए भी व्यक्ति सुखी नहीं होता है ।
२१८ सिद्धिविनिचय टीका, प्रस्तावना पृ. 999 ।
२१६ आत्ममीमांसा कारिका ५ ।
२२० परमात्मप्रकाश ७५ ।
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उत्तराध्ययनसूत्र १७ /२० ।
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