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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
गुणी से न सर्वथा भिन्न होता है और न सर्वथा अभिन्न होता है, परन्तु कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न होता है।२०२ पंचास्तिकाय के अनुसार गुण से भिन्न गुणी और गुणी से भिन्न गुण की सत्ता असम्भव है।०३ इसी सिद्धान्त के अनुसार ज्ञान-गुण गुणी-आत्मा से भिन्न नहीं है। ज्ञान आत्मा का स्वभाव है। स्वभाव सत्ता से अभिन्न होता है। अतः ज्ञान आत्मा से अभिन्न है। आचारांगसूत्र२०४ में भी कहा गया है - “जो ज्ञाता है वही आत्मा है और जो आत्मा है वही ज्ञाता है।" किन्तु यह कथन निश्चयनय की अपेक्षा से है। ज्ञान आत्मा का स्वरूप-लक्षण है। अतः इन दोनों को अलग नहीं किया जा सकता। यदि आत्मा और ज्ञान अभिन्न न हों तो स्वरूप का अभाव न होने से आत्मा का ही अभाव सिद्ध हो जायेगा और निराश्रय होने से ज्ञानादि गुण की सत्ता भी नहीं रहेगी। आत्मा से भिन्न ज्ञान और ज्ञान से भिन्न आत्मा कहीं उपलब्ध नहीं होती है। इसीलिए पंचास्तिकाय,२०५ षड्दर्शनसमुच्चय२०६ आदि ग्रन्थों में आत्मा और ज्ञान को कथंचित् अभिन्न माना गया है। किन्तु वे दोनों सर्वथा अभिन्न नहीं हैं। आत्मा गुणी है और ज्ञान गुण है।
आत्मा लक्ष्य और ज्ञान लक्षण है। इसलिए व्यवहारनय के अनुसार दोनों में भेद भी माना गया है। संज्ञा और संज्ञी, लक्ष्य और लक्षण दोनों में भिन्नता है। दूसरे आत्मा में मात्र ज्ञान गुण ही नहीं है - दर्शन (अनुभूति), इच्छा, भावना आदि भी आत्मा के गुण हैं। गुण को अभिन्न मानने पर इन विविध गुणों में भेद भी सम्भव नहीं होगा। __ जीव और ज्ञान में गुण और गुणी के माध्यम से भेद न किया जाए तो जो देखना है वह दर्शन है और जो जानना है वह ज्ञान है - यह भेद कैसे होगा ?२०७ प्रवचनसार में भी बताया है -
_ “णाणं अप्पाणं वट्टदि णाणं विणा ण अप्पाणं। तह्मा णाणं अप्पा - अप्पा णाणं व अण्णं वा ।।"२०८
२०२ षड्दर्शन समुच्चयटीकाकारीका ४६ । २०३ पंचास्तिकाय ४४-४५ । । २०४ आचारांगसूत्र १/५/५/१०४ । २०५ पंचास्तिकाय ४३ । २०६ षड्दर्शनसमुच्चयटीका कारिका ४६ । २०७ कार्तिकेयानुप्रेक्षा १८० । २०८ प्रवचनसार १/२७ ।
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