Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
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(५) केवलज्ञान;
(६) मतिअज्ञान; (७) श्रुतअज्ञान; और (८) विभंगज्ञान। अन्तिम तीन ज्ञान मिथ्याज्ञान हैं तथा प्रथम पाँच ज्ञानों में चार ज्ञान विकल अर्थात् आंशिक होते हैं। केवलज्ञान सकल या पूर्ण होता है।'६६
२. ज्ञान की परिभाषा ___ जैन साहित्य में ज्ञान की व्युत्पत्ति अनेक प्रकार से की गई है। उसमें ज्ञान को कर्ता (जाननेवाला), कारण (साधन) और अधिकरण के रूप में परिभाषित किया गया है। (१) “जानाति इति ज्ञानम्” अर्थात् जो जानता है या जानने की क्रिया करता है वह ज्ञान है। यहाँ क्रिया एवं कर्ता में
अभेदोपचार करके ज्ञान को कर्ता अर्थात् आत्मा कहा गया है। (२) “ज्ञायते अवबुध्यते वस्तुतत्त्वमिति ज्ञानम्” अर्थात् आत्मा
वस्तुतत्त्व को जिसके द्वारा जानती है, वह ज्ञान है। ज्ञान की यह परिभाषा उत्तराध्ययनसूत्र में उपलब्ध होती है।०० यहाँ
ज्ञान को साधन या करण माना गया है। (३) “ज्ञायते अस्मिन्निति ज्ञानमात्मा" - जिसको जाना जाता है वह
ज्ञान है; वही आत्मा है। ज्ञान की यह अधिकरणमूलक व्युत्पत्ति है। यहाँ परिणाम ज्ञान और परिणामी आत्मा में अभेदोपचार किया गया है। आचारांगसूत्र में ज्ञान की यह परिभाषा इस रूप में उपलब्ध होती है - “जे आया से विण्णाया - जे विण्णाया से आया।"२०१ उत्तराध्ययनसूत्र के २८वें अध्ययन एवं दशवैकालिकसूत्र में ज्ञान को साधना का प्रथम चरण माना गया है।
३. ज्ञान आत्मा से कथंचित् भिन्न-अभिन्न
जैनदर्शन ज्ञान को आत्मा का गुण स्वीकारता है। गुण अपने
१८६ 'तत्थ पंचविहं नाणं, सुयं आभिनिबोहियं ।
ओहिनाणं तइयं, मणनाणं च केवलं ।।४॥' -उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ (शान्त्याचार्य) । २०° उत्तराध्ययनसूत्र टीका पत्र ५५५ (शान्त्याचार्य) । २० आचारांगसूत्र १/५/५/१०४ (अंगसूत्ताणि, लाडनूं खण्ड १ पृ. ४५) ।
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