Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
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प्रकारान्तर से ये तीनों ही जैनदर्शन में क्रमशः ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलचेतना के परिचायक हैं। ज्ञानचेतना, ज्ञाताभाव है, कर्मचेतना कर्ताभाव है और कर्मफलचेतना द्रष्टा भाव है। किन्तु संसारी आत्मा रागादि के कारण इसके निमित्त से कर्ता भोक्ता भाव में परिणमन करती है। कर्मचेतना बन्धनकारक है।
इसी दृष्टि से समयसार नाटक में बनारसीदासजी ने कहा है कि ज्ञानचेतना मुक्तिबीज है और कर्मचेतना संसार का बीज है। इन तीनों चेतनाओं में ज्ञानचेतना को परमात्मा, कर्मफलचेतना को अन्तरात्मा का और कर्मचेतना को बहिरात्मा का विशेष लक्षण कहा जा सकता है; क्योंकि परमात्मा में मात्र ज्ञानचेतना ही होती है - कर्म और कर्मफल चेतना नहीं होती है। संसारीजीवों में ज्ञानचेतना के साथ-साथ कर्मचेतना और कर्मफलचेतना भी होती है; किन्तु उनकी ज्ञानचेतना प्रमाद के कारण आवृत्त रहती है। कर्मचेतना और कर्मफलचेतना में भी मिथ्यादृष्टि या बहिरात्मा में कर्मचेतना की प्रधानता होती है और सम्यग्दृष्टि या अन्तरात्मा में कर्मफलचेतना की प्रधानता होती है।
१.३.३ आत्मा का कर्तृत्व
जैन दार्शनिकों ने आत्मा को शुभ-अशुभ कर्मों या द्रव्य कर्म एवं भाव कर्म का कर्ता स्वीकार किया है। न्यायवैशेषिक, मीमांसा एवं वैदान्तिक दार्शनिकों ने भी जैन दार्शनिकों की तरह आत्मा में कर्तृत्व गुण स्वीकारा है। अन्य दार्शनिकों की तुलना में जैन दार्शनिकों की यह विशिष्टता है कि वे अपने मूलभूत अनेकान्त सिद्धान्त के आधार पर विभिन्न अपेक्षाओं से आत्मा को कर्ता एवं भोक्ता मानते हैं। समयसार में कहा है- “यः परिणमति स कर्ता"८६ अर्थात् जो परिणमनशील है वही कर्ता है। आत्मद्रव्य स्व-स्वभाव में परिणमन करता है। अतः स्व-स्वभाव का कर्ता है। पंचास्तिकाय में कहा गया है कि अशुद्ध निश्चयनय की दृष्टि से तो शुभ और
५ 'समयसारनाटक' अधिकार १०, गाथा ८५-८६ । ८६ समयसार, आत्मख्याति टीका गाा. ८६ कलश ५१ ।
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