Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
३. आत्मा निज भावों की कर्ता है ___पंचास्तिकाय में स्वयं आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि
आत्म-परिणामों के निमित्त से कर्मों का बन्ध होने के कारण व्यवहारनय के अनुसार आत्मा कर्ता-भोक्ता कहलाती है। निश्चयनय की अपेक्षा से तो कोई भी द्रव्य दुसरे द्रव्यों के परिणामों का कर्ता नहीं हो सकता है। अतः पुद्गल कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है। आत्मा अपने स्वयं के परिणामों की ही कर्ता है - पुद्गलरूप द्रव्य कर्मों की नहीं। पंचास्तिकाय में भी इसी प्रकार यह बताया गया है कि निश्चय में तो आत्मा अपने भावों की ही कर्ता है; पुद्गल रूप द्रव्यकर्मों की नहीं।०८ प्रवचनसारटीका में भी कहा है - "अपने परिणामों अर्थात भावों से आत्मा अभिन्न होने के कारण वह स्वयं अपने परिणामरूप भावकों की ही कर्ता है, पर पुद्गल परिणामात्मक द्रव्यकर्म की नहीं। अमृतचन्द्रसूरि ने समयसार में एक उदाहरण से यह बताया है कि कुम्भकार घट बनाता है पर स्वयं घट-रूप में परिणमित नहीं होता; अतः पारमार्थिक रूप से तो वह उसका कर्ता नहीं कहा जायेगा। इसी प्रकार आत्मा ज्ञानावरणादि रूप कर्मों में परिणमित नहीं होने के कारण परमार्थ रूप से उनकी कर्ता नहीं हो सकती है। इन सभी मन्तव्यों से सिद्ध है कि अपने परिणामों अर्थात् भावों की कर्ता आत्मा स्वयं है, किन्तु पूदगल रूप कर्मों की कर्ता नहीं है। ये वैभाविक आत्म-परिणाम भी पूर्व कर्मों के निमित्त से ही होते हैं। अतः उनका भी निमित्त कारण तो कर्म ही है। निश्चयनय से आत्मा उनकी भी कर्ता नहीं है। इस प्रकार जैनदर्शन में व्यवहारनय से आत्मा को बाह्य पदार्थों, ज्ञानावरण आदि द्रव्यकर्मों और शरीर आदि कर्मजन्य अवस्थाओं की कर्ता माना गया है। अशुद्ध निश्चयनय से उसे शुभाशुभ भावों अर्थात् अपनी राग-द्वेष रूप वैभाविक अवस्थाओं की कर्ता माना गया है और शुद्ध निश्चयनय से अपने ज्ञानादि गुणों की कर्ता माना गया है।
१०८ पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका टीका २७ । १०६ पंचास्तिकाय ६१; प्रवचनसार ६२ । 17° प्रवचनसार ३० । " समयसार, आत्मख्याति टीका कलश ७५, ६३ एवं ८६ ।।
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