Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
कर्ता-भोक्ता मानता है । उसके अनुसार मुक्त - आत्मा तो अपनी ज्ञाताद्रष्टा रूप परिणामों की ही कर्ता - भोक्ता है ।
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आचार्य देवसेन ने कहा है कि जो जीव देहधारी है, वही भोक्ता और जो भोक्ता होता है, वह कर्ता भी होता है अर्थात् संसारीजीव ही कर्मों का कर्ता-भोक्ता है प्रभाचन्द्र ने कहा है कि यदि आत्मा को कर्ता नहीं मानते हैं, तो भोक्ता मानने में भी विरोध आता है
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६. बौद्धदर्शन और आत्मकर्तृत्ववाद
बौद्धदर्शन में आत्मकर्तृत्व की समस्या नहीं है। बौद्धदर्शन अनात्मवादी दर्शन है फिर भी वह चेतना के कर्तृत्व को स्वीकार करता है। वह मनोवृत्ति के आधार पर ही कर्मों के कुशल एवं अकुशल होने का निर्णय करता है, किन्तु चेतना को प्रवाहरूप मानने के कारण, जिसे कर्मों का कर्ता या उत्तरदायी माना जाय, ऐसी किसी चेतना की सिद्धि उसमें नहीं होती है । नदी के प्रवाहरूप डुबानेवाली जलधारा के समान वह तो परिवर्तनशील है। वस्तुतः वहाँ डूबने की क्रिया तो दिखाई देती है, किन्तु कोई डुबानेवाला नहीं होता है। जब तक डूबने की क्रिया सम्पन्न होती है, तब तक भी डुबानेवाले का अस्तित्व नहीं रहता। उसे कर्ता कैसे कहा जाय ? फिर भी बौद्धदर्शन में व्यवहारदृष्टि से व्यक्ति को कर्ता माना गया है । भगवान् बुद्ध कहते हैं : “अपने से उत्पन्न अपने से किया गया पाप अपने दुर्बुद्धि कर्ता को इसी तरह विदीर्ण कर देता है, जैसे मणि को वज्र काटता है ।" " धम्मपद में कहा गया है- “स्वयं का किया पाप स्वयं को ही मलिन करता है। यदि स्वयं पाप न करे, तो स्वयं ही शुद्ध रहता है । " शुद्धि - अशुद्धि प्रत्येक की अलग है । कोई आत्मा दूसरे को शुद्ध या अशुद्ध नहीं कर सकती; ऐसा धम्मपद का कथन है । २६ बौद्धदर्शन इस प्रकार “प्रवाही आत्मा" को कर्ता के रूप में स्वीकृत करता है ।
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१२३ |चक्रवृत्ति १२४ । १२४ न्यायकुमुदचन्द्र पृ. ८१८ ।
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धम्मपद १६१ ।
१२६ वही १६५ ।
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