Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
लोक और अलोक को जानते हैं । इसलिए ज्ञानस्वरूपी आत्मा सर्वगत या सर्वव्यापी है । पुनः जैनदर्शन के अनुसार आत्मा केवली समुद्घात के समय सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होती है । इसलिए इस अवस्था में आत्मा लोकव्यापी होती है । किन्तु सामान्यतया जैनदर्शन आत्मा को देहपरिमाण या देहव्यापी मानता है । जहाँ तक संसारी आत्मा का प्रश्न है, वह शरीर परिमाण होती है । वह जिस देह में रहती है उसी को व्याप्त करके रहती है। इसी अपेक्षा से आत्मा को देहव्यापी कहा गया हैं । संक्षेप में जैनदर्शन के अनुसार आत्मा का ज्ञान, सामर्थ्य एवं केवली समुद्घात की अपेक्षा से लोकव्यापी तथा देहधारी की अपेक्षा से देहव्यापी है ।' भगवती आराधना में भी केवली समुद्घात में आत्मप्रदेशों को लोकव्यापी सिद्ध किया गया है 1 इसलिए केवली समुद्घात की अपेक्षा से आत्मा व्यापक भी है ।
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५. आत्मा के भावात्मक स्वरूप का चित्रण
जैनदर्शन में आत्मा के स्वरूप का चित्रण विधानात्मक, निषेधात्मक एवं अनिर्वचनीय दृष्टि से किया गया है।७५ विधिमुख से कहें तो आत्मा अनन्तचतुष्टय से युक्त है । उसमें सत्ता की अपेक्षा से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रहा हुआ है । वह अमूर्त तत्त्व है। फिर भी संसार दशा में कर्मों से बंधी है । वह आत्मद्रव्य की अपेक्षा से एक है किन्तु प्रत्येक जीव या आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता भी है । संसारदशा में वह कर्मों से बद्ध है, किन्तु मोक्ष अवस्था में वह अपनी स्वभावरूप पर्यायों की कर्ता और शाश्वत आनन्द की भोक्ता है । संसार दशा में उसे कर्मों से बद्ध
१७२ गोम्मटसार, जीवकाण्ड गाथा ६६८ ।
१७३ (क) ' स सप्तविधः वेदनाकषायमारणान्तिकतेजोविक्रयाऽऽहारे केवलिविषदभेदात् ।। '
(ख) सर्वार्थसिद्धि ५/८ |
१७४ भगवती आराधना २११३-१६ ।
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(क) 'समिया धम्मे आरियेहिं पवेइए । '
(ख) ' आयाए सामाइए, आया सामाइस्स अट्ठे ।' समयसार टीकाएँ २-३ ।
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- तत्त्वार्थवार्तिक १/२०/१२ |
- आचारांगसूत्र १/८/३ ।
- भगवतीसूत्र १/६/२२८ ।
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