Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
परिणामी है; परिवर्तनशील है - वह चित्त धारा है। वे उसे पंचस्कंधों का समन्वय कहते हैं। पाश्चात्य दार्शनिक “ह्यूम" ने भी सम्वेदनों के अतिरिक्त किसी नित्य आत्मा को स्वीकार नहीं किया है। ग्रीक दार्शनिक हेरेक्लिट्स भी आत्म क्षणिकवाद को मानता था।
बौद्धदर्शन का कहना है- “यत् सत् तत् क्षणिकम्।” अर्थात् जो सत पदार्थ है वह क्षणिक है। सत् पदार्थरूप आत्मा भी क्षणिक है। फिर भी चार्वाकदर्शन और बौद्धदर्शन के अनित्य आत्मवाद में अन्तर है।५० चार्वाक ने चैतन्य विशिष्ट देह को ही आत्मा कहा है, वह देहात्मवादी है। बौद्धदर्शन में आत्मा को उत्पाद-व्यय-धर्मी या सतत परिवर्तनशील माना गया है। बौद्धदर्शन का मानना है कि चेतना प्रवाह से भिन्न स्वतन्त्र आत्मा नहीं है। आत्मा के सम्बन्ध में बौद्धदर्शन की मान्यता अनुच्छेद अशाश्वतवाद की है अर्थात् आत्मा एकान्तरूप से न तो विनाशशील और न एकान्त रूप से नित्य है। बौद्धदर्शन आत्मा की स्थाई सत्ता को अस्वीकार करता है, किन्तु वह निर्वाण एवं पुर्नजन्म को स्वीकार करता है। जैनदर्शन ने आत्मा की एकान्त अनित्यता का खण्डन किया है। उनके अनुसार एकान्तरूप से आत्मा को क्षणिक या अनित्य मानना युक्त नहीं है। क्योंकि यदि आत्मा को क्षण-क्षण में बदलने वाली या अनित्य ही माना जाय तो उस पर कृतप्रकाश, अकृतभोग, स्मृतिभंग तथा संसार (पुनर्जन्म) और निर्वाण की असम्भावना के दोष आते हैं।”
११. नित्य आत्मवाद
भारतीय दर्शनों में चार्वाकदर्शन आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानता है। बौद्धदर्शन भी नित्य-आत्मवाद को नहीं मानता है किन्तु वह पुनर्जन्म को स्वीकार करता है। शेष सभी भारतीय दर्शन आत्मवादी ही हैं और पुनर्जन्म को स्वीकार करते हैं। उपनिषद्, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, मीमांसक, वैशेषिक आदि
१५० 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २३६-३७ ।
___-डॉ. सागरमल जैन । १५१ 'जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन' भाग १ पृ. २३६-३७ ।
-डॉ. सागरमल जैन ।
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