Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
७. गीता का दृष्टि कोण __ गीता कूटस्थ आत्मवाद को स्वीकार करती है।२७ इसमें भी आत्मा को अकर्तारूप स्वीकार किया गया है। प्रकृति से भिन्न विशुद्ध आत्मा अकर्ता है। आत्मा का कर्तृत्व प्रकृति के संयोग से ही है। निश्चयनय से अकर्ता में कर्मपुद्गलों के निमित्त कर्तृत्वभाव को जैनदर्शन में भी स्वीकार किया गया है। अतः आचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण गीता के दृष्टिकोण से अत्यधिक निकट प्रतीत होता है।२८
८. आत्मभोक्तृत्ववाद
सभी भारतीय दार्शनिकों की तरह जैन दार्शनिकों ने भी आत्मा को अपने कृत कर्मों के फलों का भोक्ता माना है। जैन दार्शनिक आत्मा को मात्र उपचार से कर्म फलों का भोक्ता न मानकर वास्तविक रूप से भोक्ता मानता है।२६ जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से सम्भव है वैसे ही भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों के निमित्त से सम्भव है। कर्तृत्व एवं भोक्तृत्व दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते है। जैनदर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है। ___ द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय, पुरुषार्थसिद्धयुपाय आदि में व्यवहारनय से आत्मा को जिस प्रकार पुद्गलरूप कर्मों का कर्ता माना गया है; उसी प्रकार व्यवहारनय से आत्मा को पौद्गलिक कर्मजन्यविपाक रूप सुख-दुःख एवं बाह्य पदार्थों की भोक्ता भी माना गया है। अशुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा रागद्वेषादि वैभाविक भावों की भोक्ता भी है, किन्तु शुद्ध निश्चयनय से वह ज्ञाताद्रष्टा रूप से स्वाभाविक पर्यायों की भोक्ता है।३०
१२७ गीता १३/२६ । १२८ समयसार, ११२ ।
-तुलनीय गीता ३/२७-२८ । १२६ ‘एतेन उपचरितवृत्या भोक्तारं चात्मानं मन्यमानानां सांख्यानां निरासः । तथा स्वकृतस्य कर्मणां यत्फलं सुखादिकं तस्य साक्षाद, भोक्ता च ।। ४६ ।।'
-षड्दर्शनसमुच्चय कारिका टीका । १३० (क) द्रव्य संग्रह, गा. ६ एवं उसकी टीका;
(ख) पंचास्तिकाय तत्त्वदीपिका ६८ ।
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