Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
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निमित्त होने के कारण उपचार से आत्मा को कर्मों की कर्ता कहा जाता है । जैसे- “ सेना युद्ध करती है”, किन्तु उपचार से ऐसा कहा जाता है कि “राजा युद्ध करता है ।" अतः उपचार से आत्मा को ज्ञानावरणादि कर्मों की कर्ता कहा जाता है । निश्चय से तो कर्म ही कर्म का कर्ता होता है । ६
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प्रवचनसार की टीका में भी कहा गया है कि आत्मा अपने भावकर्मों की कर्ता होने के कारण उपचार से उसे द्रव्यकर्म की कर्ता कहा जाता है । जैसे कुम्भाकार घड़े का कर्ता एवं भोक्ता है, यह कथन व्यवहारनय का है; वैसे ही आत्मा को भी कर्मों की कर्ता - भोक्ता व्यवहारनय से ही स्वीकार करना चाहिए। पारमार्थिक रूप से आत्मा को पुद्गल कर्मों की कर्ता मानना मिथ्या है | ०१ क्योंकि चेतन पदार्थ को अचेतन द्रव्य का कर्ता माना जाये तो चेतन और अचेतन में भेद करना असम्भव हो जायेगा ।' जीव और पुद्गल में निमित्त - नैमित्तिक सम्बन्ध होने के कारण ही जीव को ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता माना जाता है ।
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भारतीय परम्परा में सदैव ये प्रश्न महत्त्वपूर्ण रहे हैं कि आत्मा कर्ता है या नहीं ? भारतीय विचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि जीव अपने शुभाशुभ कर्मों का कर्ता है। प्राणीय जीवन भौतिक शरीर में चेतन आत्मा के संयोग का परिणाम है । उसमें चित्त- अंश व अचित्-अंश दोनो ही हैं। शंकर ने इस कर्तृत्व गुण को मायाधीन पाया और उसे एक भ्रान्ति माना । सांख्यदर्शन में आत्मा को अकर्ता माना और जड़ प्रकृति को ही कर्ता माना, जबकि न्यायवैशेषिक आदि कुछ विचारकों ने आत्मा को कर्ता माना है। लेकिन जैन विचारकों ने इन एकान्तिक मान्यताओं के मध्य समन्वय का रास्ता चुना । यह सत्य है कि जैन आगम ग्रन्थों में आत्मा को सुख - दुःखादि की कर्ता एवं भोक्ता स्वीकार किया गया है, फिर भी वह इसे
Επ 'ववहारस्स दु आदो पोग्गलकम्मं करेदि णेयविहं ।
तं चैव पुणो वेयइ पोग्गलकम्मं अणेयविहं ।। ८४ ।।
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समयसार कलश १०४-०७ ।
१०० प्रवचनसार, तत्त्वदीपिका टीका २६ ।
१०१ योगसार (अमितगति) २/३० ।
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समयसार गा. ८६ कलश ११६ ।
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-समयसार, कर्तृकर्माधिकार ।
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