Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
१. आत्मा भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से कर्ता-भोक्ता है
जैनदर्शन में पृथक्-पृथक् अवस्थाओं की अपेक्षा से जीव को कर्ता - भोक्ता स्वभाववाला स्वीकार किया गया है :
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“ यः कर्ता कर्मभेदानां, भोक्ता कर्मफलस्य च । संसर्ता परिनिर्वाता, स ह्यात्मा नान्यलक्षणः । । ”
अर्थात् जीव स्वयं अनेक प्रकार के कर्मों का कर्ता है और उनके फलों का भोक्ता है । अपने कर्मों से जीव संसार में परिभ्रमण करता है एवं कर्मों से मुक्त होकर वही निर्वाण अवस्था को भी प्राप्त करता है। आनन्दघनजी ने भी आत्मा के कर्तृत्व पक्ष को इसी प्रकार स्वीकारा है :
“कर्ता परिणामी परिणामों, कर्म जे जीवै करिये रे, एक अनेक रूप नयवादे, नियते नर अनुसरिये रे । ६६
अर्थात् आत्मा कर्ता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि आत्मा परिणामी है अर्थात् परिवर्तनशील है । अतः कर्मरूप परिणाम भी उसके अपने ही हैं । इसलिए आत्मा कर्ता है, वह स्वयं कर्म रूप क्रिया करती है। आत्म परिणामों में कर्म और कर्मफलों का संवेदन समाहित है। नयवाद की अपेक्षा से आत्मा के कर्तृत्व के अनेक रूप हैं । निश्चयनय की अपेक्षा से आत्मा अपने ज्ञान स्वभाव की कर्ता है । अशुद्ध निश्चय नय से वह रागादि भावों की कर्ता है और व्यवहारनय से आत्मा पौद्गलिक कर्मों एवं घटपटादि बाह्य पदार्थों की कर्ता है।
२. क्या आत्मा पौद्गलिक कर्मों की कर्ता है?
व्यवहारनय की अपेक्षा से आत्मा को ज्ञानावरणादि पौद्गलिक कर्मों की एवं शारीरिक क्रियाओं की कर्ता माना गया है । समयसार की टीका में कहा गया है :
“यः परिणमति स कर्ता ६७
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अर्थात् जो परिणमन करता है वह कर्ता है
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६६
'वासुपूज्य स्तवन' |
६७ समयसार आत्मख्याति टीका गा. ८६ कलश ५१ ।
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कर्मबन्ध का
- आनन्दघन ग्रन्थावली ।
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