Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
वर्णादि से युक्त और अजीव हैं। उत्तराध्ययनसूत्र में पुद्गल के लक्षण की चर्चा निम्न रूप से उपलब्ध है- शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श ये सब पुद्गल के लक्षण हैं। बृहतद्रव्यसंग्रह एवं नवतत्त्वप्रकरण में भी पुद्गल द्रव्य के ये ही लक्षण प्राप्त होते हैं।
५. जीवास्तिकाय उत्तराध्ययनसूत्र२५ में जीव के स्वरूप की चर्चा निम्न रूप से प्राप्त होती है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप वीर्य, उपयोग आदि जीव के लक्षण हैं। कर्मानव२६ में जीव के लक्षण का वर्णन करते हुए कहा गया है कि - "उपयोगो जीव लक्षणं” अर्थात् जीव का लक्षण उपयोग (चेतना) है। उसमें ज्ञान, दर्शनादि गुणों को उपयोग के अन्तर्गत स्वीकार किया है। कुछ ग्रन्थों में जीव के लक्षण का निरूपण करते हुए कहा गया है कि "जीवति प्राणान् धारयति इति जीवः” अर्थात् जो जीवन जीता है और प्राणों को धारण करता है वह जीव द्रव्य कहलाता है। भगवतीसूत्र में प्राण, सत्व, विज्ञ, भूत, वेत्ता, चेता, आत्मादि जीव के पर्यायवाची नाम प्राप्त होते हैं।२७ उत्तराध्ययनसूत्र में जीव को कर्ता और भोक्ता माना गया है।२८ महापुराण में जीव के अनेक नाम उपलब्ध हैं, यथा प्राणी, जीव, क्षेत्रज्ञ, अन्तरात्मा, ज्ञानी, पुरुष आदि। भारतीय दर्शनों में भी आत्मा के लिए जीव शब्द प्रयुक्त हुआ है। फिर भी जहाँ जीव शब्द प्रायः संसारी शरीरधारी आत्मा के लिये प्रयुक्त हुआ है वहीं आत्मा शब्द शुद्ध चेतना के लिए प्रयुक्त हुआ है। सम्पूर्ण भारतीय दर्शन का केन्द्र बिन्दु यही चेतन तत्त्व रहा है।
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २८ ।
२५ 'नाणं च दंसणं चेव, चरित्त च तवो तहा ।
वीरियं उवओगो य, एयं जीवस्स लक्खणं ।। ११ ॥' कर्मासव २/८ ।
भगवतीसूत्र १/८/१० । _ 'अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य ।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पट्ठिय-सुपट्ठिओ ।। २७।।' २६ भगवतीसूत्र १३/७/४६५
-उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन २० ।
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