Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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विषय प्रवेश
सकता है । ४६
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'परमात्मप्रकाश' की गाथा ५६ की टीका के परिणामी आत्मा के सिद्धान्त में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य किस प्रकार घटित होता है, इसकी चर्चा की गई है। यहाँ यह प्रश्न उठाया गया है कि संसारीजीवों में तो देव, मनुष्य, नारक आदि पर्याएँ होती हैं। उन पर्यायों की अपेक्षा से उनमें उत्पाद तथा व्यय माना जा सकता है; किन्तु सिद्धों में तो जन्म, मरण और शरीर धारण नहीं होता, अतः उनमें उत्पाद-व्यय कैसे घटित होगा ? उसके उत्तर में कहा गया है कि सिद्धों में अगुरू, लघु गुण की परिणति रूप अर्थ पर्याय है और उस अर्थ पर्याय में षट्गुणी हानि वृद्धि भी होती है । इस अर्थ पर्याय की अपेक्षा से सिद्धों में भी उत्पाद - व्यय कहा जाता है। पुनः संसार के सभी ज्ञेय पदार्थों का उत्पाद व्यय और धौव्य रूप परिणमन होता है और वे सभी पदार्थ सिद्धों के ज्ञानगोचर हैं । ज्ञान की परिणति ज्ञेयाकार होती है । ज्ञेय पदार्थों में उत्पाद-व्यय होने पर वह ज्ञान में प्रतिभाषित होता है, क्योंकि ज्ञान ज्ञेयाकार है । इसीलिए सिद्धों के ज्ञान में भी ज्ञेय पदार्थों की अपेक्षा से उत्पाद - व्यय घटित होता है । अतः सिद्धों में अन्य द्रव्यों के समान ही उत्पाद - व्यय एवं ध्रौव्य मानने में कोई कठिनाई नहीं है । ज्ञान आत्मा का गुण है और उसे द्रव्य, गुण और पर्याय से युक्त कहा गया है । ज्ञेय पदार्थों में घटित होने वाला उत्पाद - व्यय ज्ञान - गुण में भी घटित होता है । द्रव्य और गुण में भी कथंचित् अभेद है । अतः सिद्धों के ज्ञान में भी ज्ञेय की अपेक्षा से परिणमन अवश्य होता है और इसी अपेक्षा से उनमें भी उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य माना गया है । पुनः सिद्धावस्था भी आत्मा की एक पर्याय है और वह पर्याय उत्पन्न हुई है। सिद्धात्मा में संसारी पर्यायों का नाश हुआ है और
४६ 'अप्पा जोइय सव्व - गउ अप्पा जडु वि वियाणि ।
अप्पा देह - पमाणु मुणि अप्पा सुण्णु वियाणि ।। ५१ ।। ' ४७ 'अप्पा जणियउ केण ण वि अप्पें जणिउ ण कोइ ।
४८
दव्व- सहार्वें णिचु मुणि पज्जउ विणससइ होइ ।। ५६ ।।' 'तं परियाणहि दव्वु तुहुँ जं गुण- पज्जय-जुत्तु । सह-भुव जाणहि ताहँ गुण कम - भुव पज्जउ वुत्तु ।। ५७ ।।
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-वही |
-वही ।
- परमात्मप्रकाश ।
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