Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
और उनके स्वतन्त्र अस्तित्व में विश्वास करते हैं। सांख्य, जैन
और डेकार्ट इस धारणा में विश्वास करते हैं। जैन विचारक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कभी भी जड़ तत्त्व से चेतन की उत्पत्ति नहीं होती है। इसी प्रकार चेतन तत्त्व से भी जड़ की उत्पत्ति सम्भव नहीं है। दोनों ही स्वतन्त्र तत्त्व हैं।६५ __ आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता के सम्बन्ध में प्रो. ए.सी. मुखर्जी ने अपनी पुस्तक में विशेष रूप से चर्चा की है।६६ वे आचार्य शंकर के मन्तव्य को प्रस्तुत करते हुए भौतिकवादियों से यह प्रश्न पूछते हैं कि भूतों से उत्पन्न होनेवाली उस चेतना का स्वरूप क्या है? या तो चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्ष की होगी या उनका ही एक गुण होगी। यदि चेतना भौतिक तत्त्वों की प्रत्यक्ष की होगी तो वह उनसे प्रत्युत्पन्न नहीं होगी। दूसरे में यदि वह भौतिकगुण है और अपने ही गुणों को अपने ज्ञान की विषय-वस्तु बनाती है; ऐसा मानें तो फिर यह भी मानना होगा कि आग अपने को ही जलाती है या नष्ट करती है। निष्कर्ष यह है कि चेतना (आत्मा) भौतिक तत्त्वों से भिन्न एक स्वतन्त्र तत्त्व है।
डॉ. यदुनाथ सिन्हा के अनुसार आत्मा एक वास्तविक, स्थाई आत्मचेतन एवं स्वतन्त्र कर्ता होना चाहिए। साथ ही उसमें आत्मसंकल्प एवं आत्मनिर्णय की शक्ति 'स्व' के भीतर होनी चाहिए। तर्क शक्ति या बौद्धिक विवेक आत्मा का एक अनिवार्य तत्त्व होना चाहिए।६७ श्री केल्डरउड़ के अनुसार आत्मा केवल मनीषा के रूप में नहीं; शक्ति के रूप में भी प्रकट होती है। व्यक्ति में आत्म-चेतन सत्ता, आत्मनियन्त्रित बुद्धि तथा आत्म-निर्णायक क्रिया का समावेश होता है।६८
_ जैनेन्द्र-सिद्धान्तकोश में कहा गया है - "जीवस्वभावश्चेतना यतः सन्निधानादात्मा ज्ञाता, द्रष्टा, कर्ता, भोक्ता च भवति जीवः”
अर्थात् जीव का स्वभाव चेतना है; उसी के सन्निधान के कारण आत्मा ज्ञाता-द्रष्टा एवं कर्त्ता-भोक्ता होती है।६६
६५ 'जैन दर्शन' पृ. १५७ । ६६ 'The Nature of Self Page 141& 143. ६७ 'नीतिशास्त्र' पृ. १८१-८२ । ६८ 'नीतिशास्त्र' पृ. २८३ ।। ६६ 'जैनेन्द्र-सिद्धान्तकोश भाग २' वृ. २६६-६७ ।
-डॉ मोहनलाल मेहता। -Dr.A.C. Mukharjee. -डॉ यदुनाथ सिन्हा । -डॉ यदुनाथ सिन्हा ।
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