Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
बौद्धदर्शन बौद्धदर्शन को अनात्मवादी दर्शन कहा जाता है। आत्मा के अस्तित्व को वे वस्तुसत्य न मानकर केवल काल्पनिक संज्ञा मानते हैं। वह पंच स्कन्धों का समूह मात्र है और प्रतिक्षण परिवर्तनशील है।
जैनदर्शन जैनदर्शन में जीवद्रव्य को अस्तिकाय के अन्तर्गत माना गया है। जैनदर्शन ने आत्मा को परिणामी नित्य माना है। आत्मा अपने चैतन्य स्वरूप को अखण्ड रखती हुई विभिन्न अवस्थाओं (पर्यायों) में परिणत होती रहती है। वह न अणु है और न विभु है, अपितु स्वदेह परिमाण है। जैन दार्शनिकों ने जीव द्रव्य का लक्षण चेतना (उपयोग) को माना है। जीवद्रव्य के सन्दर्भ में डॉ. सागरमल जैन लिखते हैं कि जैनदर्शन की विशेषता यह है कि वह जीव को एक अखण्ड द्रव्य न मानकर अनेक द्रव्य मानता है। उसके अनुसार प्रत्येक जीव की स्वतन्त्र सत्ता है और विश्व में जीवों की संख्या अनन्त है।
जीवास्तिकाय का विस्तृत विवेचन 'जैनदर्शन मनन और मीमांसा'. आत्ममीमांसा' और 'जैन सिद्धान्तदीपिका' आदि में उपलब्ध होता है। जीवों के भेदों की विस्तृत चर्चा हम षड्जीवनिकाय के अन्तर्गत आगे करेंगे।
काल उत्तराध्ययनसूत्र में षड्द्रव्यों की चर्चा में काल को स्वतन्त्र द्रव्य माना गया है एवं उसे वर्तना लक्षणवाला कहा गया है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के प्रश्न पर जैनदर्शन में मतैक्य प्राप्त नहीं होता। स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में काल के अस्तित्व को मानने सम्बन्धी यह मतभेद लगभग छठी शती तक चलता रहा है। यद्यपि पंचास्तिकायों में काल को स्वीकार नहीं किया है, किन्तु षड्द्रव्यों के अन्तर्गत कालद्रव्य को स्वीकार किया गया है। इस जगत् में आकाश
३५ 'वत्तणालक्खणो कालो' ।
-उत्तराध्ययनसूत्र २८/१० ।
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