Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों की स्थिति (ठहरने) में सहायक होता है। जिस प्रकार धूप से थका मुसाफिर वृक्ष की छाया में ठहर जाता है; वैसे ही अधर्म द्रव्य भी जीव और पुद्गल की अवस्थिति में सहायक होता है। धर्मद्रव्य की तरह ही अधर्म द्रव्य भी जीव और पुदगल की स्थिति में उदासीन भाव से सहयोगी होता है। धर्मास्तिकाय के बिना जीव और पुद्गल की गति सम्भव नहीं है। यह अधर्म द्रव्य दृष्टिगोचर नहीं होता है क्योंकि यह अमूर्तद्रव्य है। आगम साहित्य में भी धर्म और अधर्म द्रव्यों के अस्तित्व एवं उनके लक्षणों का उल्लेख मिलता है। इन दोनों द्रव्यों के अभाव में जीव तथा पुद्गल की गति और स्थिति सम्भव नहीं है। अलोकाकाश में धर्म एवं अधर्म द्रव्य का अभाव होता है। अतः उसमें जीव एवं पुद्गल की गति भी नहीं है। क्षेत्र की दृष्टि से यह द्रव्य लोकाकाश में सर्वत्र व्याप्त है। डॉ. सामगरमल जैन लिखते हैं कि जैसे वैज्ञानिक दृष्टि से गुरुत्वाकर्षण आकाश में स्थित पुद्गल पिण्डों को नियंत्रित करता है; वैसे ही यह अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गल की गति का नियमन कर उसे विराम देता है।६ संख्या की दृष्टि से अधर्म द्रव्य को एक और अखण्ड द्रव्य माना गया है। प्रदेशप्रचयत्व की दृष्टि से इसका विस्तार क्षेत्र लोक तक सीमित होने से इसे असंख्य प्रदेशी माना जाता है। क्योंकि लोक चाहे कितना ही विशाल हो, सीमित ही है। इसका विखण्डन असम्भव है। धर्म और अधर्म द्रव्य में देश-प्रदेश आदि की कल्पना केवल वैचारिक स्तर पर की जा सकती है। अधर्म द्रव्य सत्ता के आधार पर नित्य है। यह द्रव्य एक, अखण्ड, स्वतन्त्र एवं वस्तुनिष्ठ सत् है। काल की दृष्टि से यह अनादि, अनन्त और शाश्वत है। भाव (स्वरूप) की दृष्टि से यह अमूर्त अर्थात् वर्ण, गन्ध से रहित अभौतिक और अजीव एवं अगतिशील है। गुण (लक्षण) की दृष्टि से यह स्थिति में सहयोगी है। अधर्मास्तिकाय के अभाव में स्थिर भाव अर्थात् बैठना, खड़ा रहना, सोना, मौन करना, मन को स्थिर करना, शरीर को स्पन्दन से रहित बनाना, निर्निमेष नयन होना आदि क्रियाएँ असम्भव हैं। इस विश्व में गति और स्थिति दोनों हैं। स्थिति में सहायक बनना अधर्मास्तिकाय का लक्षण है।
१६ 'डॉ. सागरमल जैन अभिनन्दन ग्रन्थ' पृ. १०६ ।
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