Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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अध्याय १
विषय प्रवेश
१.१ जैनदर्शन में आत्मा का महत्त्व ___ जैनदर्शन आत्मवादी दर्शन है; अतः उसमें आत्मा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। आत्मा ही एक चेतन तत्त्व है। चेतना लक्षण के द्वारा ही आत्मा के अस्तित्व का बोध होता है। जैन ग्रन्थों में आत्मा के लिए जीव, सत्त्व, प्राणी, भूत आदि पर्यायवाची शब्द भी उपलब्ध होते हैं। जैन आगमों में आत्मा शब्द के स्थान पर प्रायः जीव शब्द का प्रयोग अधिक किया गया है। किन्तु आत्मा शब्द के प्रयोग भी उपलब्ध होते हैं। आत्मा और जीव शब्द जैनदर्शन में एक ही अर्थ में गृहीत हैं, जबकि अन्य दर्शनों में जीव और आत्मा में अन्तर किया जाता है। वहाँ जीव शब्द का प्रयोग साधारण शरीरधारी प्राणियों के लिए होता है। उपनिषदों में तो आत्मा को ब्रह्म का पर्यायवाची माना गया है ('अयं आत्मा ब्रह्मः' -माण्डूक्य २)। __ जैनदर्शन में जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आसव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन नवतत्त्वों में भी जीव (आत्मा) का मुख्य स्थान है। पंचास्तिकायों में भी जीवास्तिकाय और षड्द्रव्यों में भी आत्मद्रव्य को एक प्रमुख द्रव्य माना गया है।
आचारांगसूत्र का प्रारम्भ आत्मा की जिज्ञासा से ही होता है। उसमें कहा गया है कि कितने ही व्यक्तियों को यह ज्ञात नहीं होता है कि - "मैं कौन हूँ ?” “मैं कहाँ से आया हूँ ?''
इस प्रकार उसमें आत्मज्ञान को साधक जीवन की प्राथमिक आवश्यकता बताया गया है। उसमें कहा गया है कि जो आत्मवादी होगा, वही लोकवादी अर्थात् संसार की सत्ता को मानने वाला
'आचारांग १/१/१/१।
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