Book Title: Jain Darshan me Trividh Atma ki Avdharana
Author(s): Priyalatashreeji
Publisher: Prem Sulochan Prakashan Peddtumbalam AP
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जैन दर्शन में त्रिविध आत्मा की अवधारणा
अस्तिकाय द्रव्यों को लोक में विस्तृत माना गया है । धर्म और अधर्म को सम्पूर्ण लोक में व्याप्त कहा गया है। जीव और पुद्गल अनेक द्रव्य हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त होकर रहे हुए हैं । आकाश लोक एवं अलोक में व्याप्त होकर रहा हुआ है । इस प्रकार अस्तिकाय उन द्रव्यों को कहते हैं, जो विस्तार से युक्त हैं 1
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सिद्धसेनगणि ने तत्त्वार्थभाष्य की टीका में अस्तिकाय शब्द की एक नवीन दृष्टि से व्याख्या की है और जिन द्रव्यों में मात्र परिवर्तनशीलता ही है; वे अनस्तिकाय हैं । वे लिखते हैं कि अस्ति शब्द ध्रौव्यता का सूचक है और काय शब्द परिवर्तनता का सूचक है । इस प्रकार जिन द्रव्यों में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य लक्षण पाया जाता है वे अस्तिकाय हैं । किन्तु जिनमें केवल परिवर्तनशीलता या उत्पाद व्यय ही है वे अनस्तिकाय हैं । इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव ये पाँच अस्तिकाय हैं और काल अनस्तिकाय है । इस परिभाषा के अनुसार जो द्रव्य परिणामी नित्य हैं; वे अस्तिकाय हैं और जिन द्रव्यों में मात्र परिवर्तनशीलता ही है; वे अनस्तिकाय हैं । काल केवल परिणमनशील या परिवर्तनशील है इस अपेक्षा से उसे अनस्तिकाय कहा गया है; जबकि धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव परिणामी नित्य हैं; इसलिये उन्हें अस्तिकाय कहा गया है ।
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एक अन्य अपेक्षा से अस्तिकाय शब्द का अर्थ अवयव युक्त माना गया है। जो द्रव्य सावयव है अर्थात् जो स्कन्धरूप हैं वे अस्तिकाय हैं और जो निरायवी हैं या मात्र प्रदेशरूप ही हैं वे अनस्तिकाय हैं । यहाँ यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि पुद्गल द्रव्य का अन्तिम घटक परमाणु निरंश होता है, उसका कोई अवयव नहीं होता तो क्या उसे अनस्तिकाय कहा जाय? इस प्रश्न के उत्तर में जैनाचार्यों का कहना हैं कि चाहे परमाणु, परमाणु रूप में निरवयव हो, किन्तु वह स्कन्धरूप में परिणत होकर सावयवत्व को प्राप्त होता है। इसलिए उपचार से परमाणु को भी अस्तिकाय कहा गया है । विस्तार या प्रदेश प्रचयत्त्व दो प्रकार का होता है :
१. ऊर्ध्वप्रचय; और
२. तिर्यक्प्रचय ।
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'आर्हत् दृष्टि' पृ. ६० । द्रव्यानुयोग भाग १, भूमिका, पृ. ३३ ।
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- समणी मंगलप्रज्ञा ।
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