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प्रेमयचन्द्रिका टीका श०१८ उ० ७ सू० २ उपध्यादिस्वरूपनिरूपणम् ९६ त्रिप्रकारकं प्रणिधानं ज्ञेयम् । 'पुटवीलाझ्याणं पुच्छा' पृथिवीकायिकानाम् पृच्छा हे भदन्त ! पृथिवीकायिकानाम् जीवानां कतिविधं प्रणिधानं भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'एगे कायपणिहाणे पन्नत्ते' एकं कायपणिधानं भज्ञप्तम् पृथिवीकायिकजीवानाम् एकेन्द्रियतया मनोवचसोरभावात् कायमात्रमणिधानमेव भवतीत्युत्तरम् । 'एवं जाव वणस्सइकाइयाणं' एवं यावद्वनस्पविकायिकानामपि, या यावत्पदेन अप्तेजोचायूनां संग्रहो भवतीति 'बेइंदियाणं पुच्छा' द्वीन्द्रियाणां पृच्छा हे भदन्त ! द्वीन्द्रियजीवानां कतिविध प्रणिधान भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयसा' हे गौतम ! थणियकुमाराण' अरकुमार से लेकर स्तनितकुमार पर्यन्त ये तीनों प्रणिधान होते हैं। ऐसा जानना चाहिये। ____ अव गौतम प्रभु से ऐला पूछते हैं-'पुढवीकाइयाणं' हे भदन्त ! जो पृथिवीकायिक जीव हैं । उनके कितने पणिधान होते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोधमा ! एगे.' हे गौतम ! एकेन्द्रिय पृथिवीकायिक जो जीव हैं। उनके सिर्फ एक कायप्रणिधान ही होता है। क्योंकि इनके वचन और जनप्रणिधान नहीं होते हैं। इनका उस को अभाव रहता है। 'एवं जाव वणस्सहकाइयाण' इसी प्रकार का प्रणिधान होने विष. यक कथन अकाचित तेजाकायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों में भी जानना चाहिये । अर्थात् ये सब एकेन्द्रिय जीव हैं और इसी कारण से इनमें केवल एक ही कायप्रणिधान होता है। 'इंदियाणं पुच्छा' हे भदन्त ! द्वीन्द्रिय जीवों के कितने प्रणिधान होते हैं-इस प्रश्न के जाव थणियकुमाराण" मसुरमाथी मारलीन नित शुभार सुधीनामाने ત્રણે પ્રણિધાન હોય છે. તેમ સમજવું. ગૌતમ સ્વામી ફરીથી પ્રભુને એવું पूछे छ है-"पुढवीकाइयाण०" सन् २ पृथ्वी४ि । छ, तन કેટલા પ્રકારના પ્રણિધાન હોય છે તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે"गोयमा ! एो" है गौतम! येन्द्रिय वीयि २ १ छ,
त त એક કાયપ્રણિધાન જ હોય છે. કેમ કે તેને વચન અને મનપ્રણિધાન डता नथी. मन भने क्यनन तमाने मला उय छे. "एवं जाव घणस्सइ काइयाण" मा प्रभारी प्रधान पाना विषयनु पथन-मयि, તેજ કાયિક વાયુકાવિક અને વનસ્પતિકાયિક જીમાં પણ સમજવું અર્થાત તે બધા એકેન્દ્રિય જીવે છે. અને તે જ કારણથી તેઓમાં ફક્ત એક કાય मणिधान थाय छे. "वेइंदियाणं पुच्छा" उ सन्दीन्द्रिय ७वान ४८ता