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refer टीका श०२० उ०५ २०५ सप्तप्रदेशिकस्कन्धस्य वर्णादिनि० ५५१
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स्यात् कटुश्च कषायध्यति प्रथमः १, स्यात् कदु थ कपायाश्चेति द्वितीयः २ स्यात् कटुकाय कायदेति तृतीयः ३, स्यात् वटुकाच कपायाचेति चतुर्थः ४ । (५) योगेऽपि चत्वारो भंगाः स्यात् कटुकचारल विम: १, स्यात् कटुकच अम्लवेति द्वितीयः २, स्यात् कटवालवत तृतीयः ३, स्यात् इन भर्गो के अनुसार वह कदाचित् तिक्त और मधुर भी हो सकता है, कदाचित् वह एक प्रदेश में तिक्त और अनेक प्रदेशों में मधुर हो सकता है २, कदाचित् वह अनेक प्रदेशों में तिक्त और एक प्रदेश में मधुर हो सकता है, अथवा कदाचित् वह अनेक प्रदेशों में तिक्त रस वाला और अनेक प्रदेशों में मधुर रसवाला हो सकता है, इसी प्रकार से तिक्त की प्रधानता छोडकर उसके स्थान पर कटुत की प्रधानता करके उसके साथ कबायरस का योग में भी चार अंग बनते हैंजैसे 'स्यात् कटुकश्च कषायश्च १, स्यात् कदु रुइन कषायाच २, स्यात् कटुकाइच कषायश्च ३ ' स्ात् कटुकाइन कपायाश्च ४' इन भंगो के अनुसार कदाचित् वह कटुक और कषाय रसवाला हो सकता है १, कदाचित् वह अपने एक प्रदेश में कटुक रखवाला और अनेक प्रदेशों में कषाय रसवाला हो सकता है २, कदाचित वह अपने अनेक प्रदेश में कटुक रखवाला और एक प्रदेश में कषाय रसवाला हो सकता है ३, अथवा कदाचित् अनेक प्रदेशों में वह कटुक रसवाला और अनेक प्रदेशों में कषाय रसवाला हो सकता है ४ इसी प्रकार से कटु और अम्ल के योग में भी चार भंग होते हैं - यथा 'स्यात् कटुकश्च अम्लश्चेति प्रथमः १' स्यात् कटुकश्च अम्लार्खेति द्वितीयः २ स्यात् कटुकाञ्चालयति
અનેક પ્રદેશેામાં મીઠા રસવાળા હાય છે. ૪ માજ રીતે કડવા રસને મુખ્ય મનાવીને તેની સાથે કષાય રસને ચેાજવાથી પશુ ચાર ભંગા . થાય છે ते या रीते छे. 'स्यात् कटुकश्च कपायश्च' अर्धवार ते उडवा रसवाणे होई छे. भने अर्धवार उपाय - तुदा रसवाणी होय छे. १ 'स्यात् कटुकश्च कषायाश्च' કોઈ એક પ્રદેશમાં તે કડવા રસવાળા હોય છે અને અનેક પ્રદેશામાં કષાય तुरा रसवाजी हाय- छे. २ ' स्यात् कटुकाश्च कषायश्च' भने अशोभां ते કઢવા રસવાળો હાય છે. તથા કેાઇ એક પ્રદેશમાં કષાય-તુરા રસવાળા હાય हे उ 'स्यात् कटुकाश्च कषायाश्च' अने अहेशामां उडवा रसवाणी होय है. मते याने प्रदेशमां श्राय-तुरा दसराणी होय छे. ४ રીતે કડવા અને ખાટા રસના ચેગથી પશુ ચાર ભંગા ખને છે, તે આ પ્રમાણે