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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू० ५ वस्तुतत्वनिरूपणम्
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तथा 'अन्नए वि अह' अव्ययोऽप्यहम् कतिपयानां प्रदेशानां व्ययाभावात् 'अत्रfor a अह' अवस्थितोऽप्यहस् यत एव अक्षयोऽव्ययोऽतएत्र अवस्थितो नित्योऽप्यहम् असंख्येयप्रदेशिता हि जीवस्य न कदापि व्यपैति अतो जीवस्य नित्यस्वाभ्युपगमेऽपि न दोषः । तथा 'उत्रभोगट्टयाए अगभूयभावभविए वि अह " उपयोगार्थतयाऽनेकभूतभावमविकोऽप्यहम् उपयोगार्थतया अनेकविषयकोपयोगानाश्रित्य अनेक भूतभाव भविकोऽप्यहमिति अतीतानागतकालयोरनेकविषयबोधानामात्मनः सकाशात् कथंचिदभिन्नानां भृतत्वात् भावित्वाच्चेति अनित्यपक्षोऽपि
जाता है तो हे सोमिल ! उस समय में अक्षयरूप भी हूं क्योंकि प्रदेशों का त्रिकाल में भी क्षण नहीं होता है । तथो 'अव्वए वि अहं' ऐसा जो कहा गया है वह जीव के एक भी प्रदेश का द्रव्य नहीं होने के कारण से कहा गया है 'अडिए वि अहं' मैं अवस्थित भी हू ऐसा जो प्रभुने सोमिल से कहा है सो उसका अभिप्राय ऐसा है कि जीव के जो असंख्यात प्रदेश हैं उनमें एक भी कमती बढती नहीं होता है इस कारण मैं अवस्थित भी हूं अर्थात् नित्य भी हू जो वस्तु नित्य होती है वह अक्षय और अन्य स्वरूप होती है मैं भी ऐसा ही हू अतएव मैं नित्य हूं ऐसा मानने में भी कोई दोष नहीं है । तथा 'उवओगट्टयाए अणेगभूयभावभचिए वि अहं' उपयोगार्थता की अपेक्षा लेकर मैं अनेकभूत भावभविक भी हूँ । इस कथन से सोमिल को प्रभु ने यह समझाया है कि मैं अनित्य भी हूं इस कथन का तात्पर्य ऐसा है कि अनेक पदार्थ
સમયે હુ' અક્ષય રૂપ પણુ છું, કેમ કે-તે પ્રદેશાના ત્રણે કાળમાં ક્ષય થતા नथी. 'अव्वएव अहं' मेधुं ? महेवामां मान्युछे, ते लवनेो मे प्रदेशनुं द्रव्य न होवाना हारगुथी उस छे. 'अवट्टिए वि. अहं' ' अवस्थित પણ છે, એ પ્રમાણે પ્રભુએ સેામિલ બ્રાહ્મણને જે કહ્યુ છે, તેના ભાવ એ છે કે-જીવના જે અસંખ્યાત પ્રદેશે છે. તેમાં એક પણ એછાવત્તિ થતું નથી. તે કારણથી હું... અવસ્થિત અર્થાત્ નિત્યપણુ છું. જે વસ્તુ નિત્ય હાય છે, તે અક્ષય અને અવ્યય સ્વરૂપ હે ય છે. હુ' પશુ એવેા જ છું. તેથી જ હું नित्य छु. मेवु भानवामां पशु अई होष भावतो नथी. तथा 'उवओगट्टयाए अगभूयभावभवि वि अहं' उपयोगार्थ पानी गपेक्षाथी हु मने भूत ભાવ ભાવિક પણ છું. આ કથનથી સેામિલને પ્રભુએ એ સમજાવ્યુ છે કેહું અનિત્યપણુ છુ. એક કથનનું તાત્પર્ય એવુ` છે કે-અનેક પદાથ