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प्रमेयचन्द्रिका टीका शं०१९ उ०३ सू०१ लेश्यावान् पृथ्वीकायिकादिजीवनि० २९२ पृथिवीकायिकजीवानां कियन्त्यो लेश्या: भवन्तीति प्रश्नः, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ' चतस्रो लेश्याः प्रज्ञप्ताः तं जहा' तद्यथा 'कण्हलेस्सा य' कृष्णलेश्या 'नीललेस्सा' नीललेश्या 'काउलेस्सा' कापोतलेश्या 'तेउलेस्सा तेजोलेश्या २ । तृतीयं दृष्टिद्वारमाह'ते णं भंते ! 'ते पृथिवोकायिका खलु भदन्त ! जीवा किं सम्मदिही मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी' ते जीवाः किं सभ्यदृष्टयो मिथ्यादृष्टया सम्यग्मिथ्यादृष्टयो वा ? कीदृशी दृष्टिः पृथिवोकायिकजीवानां भवतीति प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा! इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो सम्मदिट्ठी' नो सम्यग्दृष्टयः पृथिवीकाहे भदन्त ! उन पृथिवीकायिक जीवों के कितनी लेश्याएं होती हैं ऐसी यह द्वितीय प्रश्न हैं उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! चत्तारि लेस्साओ पन्नत्ताओ' हे गौतम ! उन पृथिवीकायिक जीवों के चार लेश्याएं होती हैं, जिनके नाम इस प्रकार से हैं--'कण्ह लेस्सा य०' कृष्णलेश्या, नीललेश्या कापोतलेश्या और तेजोलेश्या ॥२॥
अब तृतीयदृष्टिद्वार का कथन किया जाता है इसमें गौतम ने प्रभु से ऐसा पूछा है--'ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्ठी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी' हे भदन्त ! पृथिवीकायिक जीव क्या सम्यग्दृष्टि होते हैं ? यामिथ्यादृष्टि होते हैं ? या सम्यगमिथ्यादृष्टि होते हैं ? अर्थात् इन जीवों की कैसी दृष्टि होती है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'नो सम्मदिट्ठी' पृथिवीकायिक जीव सम्यग् दृष्टि नहीं होते हैं और न
હવે બીજા લેસ્થા દ્વારનું કથન કરવામા આવે છે.
मामा गौतम स्वामी प्रसुन मे ५७थु छ , 'वेसि णं भते ! जीवाणं कइलेस्साओ पन्नत्ताओ' है मग ते पृथ्वीय४ वानी वेश्याय हाय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुणे ४थु-गोयमा! चत्तारित लेस्साओ पण्णत्ताओ' 3 गौतम! ते पृथ्वी4x वाले या२ श्यामा
वाम मावी छ. ना नाम मा प्रमाणे छ-'कण्हलेस्सा य०' वेश्या , નીલેશ્યા, કાપતલેશ્યા, અને તે જેલેશ્યા પારા
હવે ત્રીજા દષ્ટિદ્વારનું કથન કરવામાં આવે છે. તેમાં ગૌતમ સ્વામી प्रभुने मे पूछे -'ते णं भते! जीवा कि' सम्मदिट्ठी मिच्छा दिदी सम्मा मिच्छा दिदी भगवन शिवयि छ। शुसभ्यष्टि डाय छ ? અથવા મિથ્યા દૃષ્ટિવાળા હોય છે અથવા તે સભ્ય મિથ્યાદષ્ટિવાળા હોય છે? અર્થાત્ આ જીવની કેવી દષ્ટિ હોય છે? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ
छ -'गोयमा' 8 गौतम ! नो सम्मदिट्ठी' पृथ्वीय सभ्य