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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१० सू०. द्रव्यधर्मविशेषादिनिरूपणम् २४५ सोमिला' तत् नूनं निश्चितं सोमिल ! 'वभण्णएसु नएमु' ब्राह्मण्येषु नयेषु-ब्राह्मणविषयेषु शास्त्रेषु, अथवा वृहयति-शरीरादीन् परिणमयति इति ब्रह्म जीवात्मा, जीवसंवन्धादेव जडपदार्थानां परिणामसंभवात् , ब्रह्मग उपासका. ब्राह्मणाः तेषां ''शास्त्रे जीवाजीवादि सूक्ष्मस्थूलविषयप्रतिपादकसर्वज्ञशासने इत्यर्थः संपयते । 'दुविहा सरिसवया पन्नत्ता' द्विविधाः द्विमकारकाः सरिसवयाः प्रज्ञप्ता कथिताः तं जहा' मिचसरिसक्या धनसरिसबया' तद्यथा मित्रसरिसवयाश्चधान्यसरिसवयाश्च, सरिसवयपदस्य सहशवयस्का इत्यर्थे मित्रपरत्वं, सर्षपका में प्रतिपादन करने के अभिप्राय से सोमिल से कहते हैं-'से पूर्ण सोमिला! बंभण्णएसु०' हे सोमिल ! ब्राह्मणविषयशास्त्रों में अथवा सर्वज्ञशासन में दो प्रकार के 'सरिसव' कहे गये हैं यहां 'भण्णएस नएसु' पद का जो दूसरा अर्थ 'सर्वज्ञशासन ऐसा किया गया है वह इस अभिमाय को लेकर किया गया है-ब्रह्म शब्द का अर्थ जीवात्मा है क्योंकि 'बृहति शरीरादीन् परिणमयति' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो शरीरादिकों को परिणमाता है वह ब्रह्म है, ऐसा वह ब्रह्म जीवात्मारूप ही है क्योंकि जड पदार्थों में जो परिणमन होता है वह जीव के सम्बन्ध से ही होता है। ऐसे इस ब्रह्म के जो उपासक हैं वे ब्राह्मण हैं इन ब्राह्मणों के शास्त्र में जीव, अजीच, सूक्ष्म स्थूल आदि विषयों के प्रतिपादक सर्वज्ञशासन में 'सरिसव' दो प्रकार के कहे गये हैं ऐसा जानना चाहिये दो प्रकार के सरिसव मित्रसरिसव और धान्य-अनाज सरिसव के भेद से हैं । 'सहशवयस्क इस अर्थ में सरिसववय पदं मित्र ४२वाना अभिप्रायथा साभिसर ४ छ है--से 'णूण सोमिला! बभण्णएस० હે મિલ! બ્રાહ્મણ વિષયના શાસ્ત્રોમાં અથવા સર્વજ્ઞ શાસનમાં બે પ્રકારના सरिसर वामां माव्या छे. माडियां 'बंभण्णएसु नएस' से पहने। भीगने અર્થ સર્વજ્ઞશાસન એ કરેલ છે, તે એ અભિપ્રાયથી કરવામાં આવ્યું
--ब्राह्मएर शो मय वात्मा से प्रमाणे छे. भ है 'बृहयति शरीरा दीन् परिणमयति' से व्युत्पत्ति प्रमाणे शरीरासरे परिणभाव छ, त. બ્રહ્યા છે. એવું તે બ્રહ્મ જીવાત્મા રૂપ પરિણમન થાય છે, તે છરના સંબંધથી જ થાય છે. એવા તે બ્રહાનો જે ઉપાસક છે, તે બ્રાહ્મણ છે. એ બ્રાહ્મણોના શાસ્ત્રમાં જીવ, અજીવ, સૂમ, સ્થૂલ, વિગેરે વિષયને પ્રતિપાદન કરનાર સર્વજ્ઞ શાસનમાં “સરિસવ બે પ્રકારના કહેવામાં આવ્યા છે. તેમ સમજવું. તે બે પ્રકાર મિત્ર સરિસવ અને ધાન્ય સરિસવ એ રીતના ભેદથી છે. “સદશવયરક' એ અર્થમાં સરિસવ પદ મિત્રને વાચક હોય છે. અને “સર્ણ