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भगवतीसूत्रे 'अयं जीवः सचेतनोऽयम जीवोऽचेतनः' इत्येवं रूपेण जीवाजीवादिसकलपदा. र्थानां ज्ञाता 'जाव विहरई' यावद् विहरति, इह यावत् पदेन एतेषां श्रावकविशेषणानां संग्रहणम्' उनलद्धपुण्णपावे आसवसंवरनिज्जरकियाहिगरणवंधप्पमोक्खकुसले' इत्यादि । एतेषां व्योख्यानं भगवतीसूत्रद्वितीयशतकपश्चमोद्देशके द्रष्टव्यम् । तए ण समणे भगवं महावीरे' ततः खलु श्रमणो भगवान महावीर: 'अन्नया' अन्यदाअन्यस्मिन् काले 'कयाइ' कदाचित् 'पुवाणुपुचि' पूर्वानुपूर्या तीर्थकरपरम्परया 'चरमाणे' चरन्, गामाणुगाम दुइज्जमाणे ग्रामानुग्रामं द्रवन् एकस्मात् ग्रामात् ग्रामान्तरक्रमेण गच्छन् 'जाव समोसढे' यावत् समवमृतः विहारं कुर्वन् गुणशिलको. द्याने समागतः । तत्र च भगवतः समवसरणं जातमिति 'परिसा जाव पज्जुवासई' परिषत् यावत् पर्युपास्ते भगवतः समवसमणानन्तरं परिषत् नानादिग्भ्यः समागयह अच्छी तरह से जानता था कि जीव सचेतन अर्थात् चेतनोलक्षण. वाला है और अजीव अचेतन है । इस प्रकार यह जीव अजीव आदि सकल पदार्थों का ज्ञाता था। 'जाव विहरह' में जो यावत् पद आया है उससे 'उवलद्धपुण्णपावे, आसवसंवरनिन्जरकिरियाहिगरणे बंधप्पमोक्ख. कुसले' इत्यादि इन श्रावक विशेषगों का संग्रह हुआ है। इन पदों की व्याख्या भगवतीसत्रके द्वितीय शतक के पंचम उद्देशक में की जा चुकी है। अतः वहीं से देख लेना चाहिए । 'तए णं समणे भगवं महावीरे' इसके बाद श्रमण भगवान महावीर 'अन्नया कयाई' किसी एक समय 'पुवाणुपुब्धि तीर्थंकर परम्परा के अनुसार 'चरमाणे' विहार करते हुए। 'गामाणुगाम दूइज्जमाणे एकाग्राम से दूसरे ग्राम में धर्मोपदेश करते हुए।'जाच समोसढे' यावत् गुगशिलक उद्यान में पधारे । परिसा जाव पज्जुवासइ' प्रभुका आगमन सुनकर नाना दिशाओं से अनेक जनों का पामा छ भने म मयतन छ. "जाव विहरइ" से पहमारे यावत पहावेत छे, तेथी "उवलद्ध पुण्णपावे आसवसंबरनिज्जरकिरियाहिगरणे बंधमोक्खकुसले" ઈત્યાદિ શ્રાવકના વિશેષને સંગ્રહ થયો છે. આ પદની વ્યાખ્યા ભગવતી સૂત્રના भी शतना ५iuwi देश मा ५२वामा भावी छे तेथी नवी . "तए ण समणे भगवं महावीरे' ते पछी श्रम सगवान् महावीर स्वामी “अन्नया कयाई" छ मे सभये "पुवाणुपुव्विं' तीर्थ ३२नी ५२५२१ अनुसार "चरमाणे" विहार ४२di ४२di "गामाणुगाम दूइज्जमाणे" ४ भाभथा भी गाममा धपहेश ४२di ४२ai 'जाव समोसढे' यावत् शुशित जधानमा पधार्या "परिसा जाव पज्जुवासई" प्रभुन भागमन समजान भने દિશાએથી જનસમૂહ રૂપી પરિષદ્ પ્રભુની પાસે આવી અને પ્રભુને વંદના