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भगवतीसूत्रे
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मंचराणि यद्यपि अनेकानि अथापि तानि अन्तराणि एकजीवनिर्मितत्वेन एक . स्पृष्टान्येव, न तु अनेकजीवस्पृष्टानि, इत्युत्तरम् । 'पुरिसे णं भंते !' पुरुषः खे भदन्त ! 'अंतरेणं' अन्तरेण-विकुर्वितशरीरावयविशेषेण 'हत्थेग वा' हस्तेन 'एवं जहा अट्ठमसए तइय उदेसए' एवं यथा अष्ट पशते तृतीयोद्देशके 'जाव को खलु तत्थ सत्थं कमई' यावत् नो खलु तत्र शस्त्र क्रामति हे भदन्त ! कश्चित पुरुषः विकुर्वितशरीराणां पध्ये वर्तमानानि अन्तराणि स्वकीयहस्तेन वा पादेन वा यावत् शस्त्रेग वा छिन्दन दु ख उत्पादयितुं समर्यो भवति किंमित्यादि अष्टमशतकीय तृतीयाद्देशके कथि प्रकारेण प्रश्ननीय नत्र शस्त्रादिकछेदनद्वारेण दुःखमुत्पादयितु न समर्थों भवतीत्येतन् पर्यन्तमुत्तरवाक्यमिहारोतव्यमिति, अष्टः मशतकीयतृतीयोदेशकमकरणं तु इत्यम् , तथाहि-'पारण वा हन्थे म वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा कटेग वा कलिंचेग वा आमुममाणे वा आलिहमाणे वा होने पर भी एक जी द्वारा निर्मित होने के कारण एक जीव से ही सम्पद्धित है अनेक जीवों से सम्बद्धित नहीं है। ___अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'पुरिले गं अंते !' हे भदन्त ! कोई पुरुष विकुर्वित शरीरों के बीच में वर्तमान अन्तरों को अपने हाथ से या पैर से या शस्त्र ले छेदन द्वारा दुःख उत्पन्न करने के लिये लमर्थ हो सकता है क्या ? इसके उत्तर में तु कहते हैं कि हे गौतम ! इस सम्बन्ध में जैसा कथन अष्टम झनक के युतीय उद्देशक में किया गया है वैसा ही कथन यहां पर कर लेना चाहिये। तात्पर्य ऐला है कि कोई भी व्यक्ति शस्त्रादिकों द्वारा छेदन करने से यहां दुःख उत्पन्न करने के लिये समर्थ नहीं हो सकता है यह अष्टन शतक के तृतीय उद्देशक का इस सम्बन्ध का कधित प्रकरण इस प्रकार से है-'पाए गया, એક જીવથી નિર્મિત થયેલ હોવાથી એક છરથી જ સંબંધિત છે. અનેક જીવોથી समाधित नथी. वे गौतम स्वामी प्रभुने से पू "पुरसे णं भंते!" હે ભગવન કેઈ પુરુષ વિકર્ષિત શરીરેમાં રહેલ અંતરોને પિતાના હાથથી અથવા પગથી અથવા હથિયાર વડે દુખ ઉપજાવી શકે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે કે--હે ગૌતમ આઠમા શતકના ત્રીજા ઉદેશામાં જે કથન કર્યું છે. તે જ પ્રમાણેનું કથન અહિયાં પણ છે. આઠમા શતકના ત્રીજા देशमा ४थन ४२ ४२ मा प्रमाणे छे. “पारण वा हत्येण वा, अंगुलियाए वा, सिलागाए वा कठेण वा कलिंचेण घा, आमुम्रमाणे वा, आलिहमाणे वा,