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[पुण्य-यापकी व्याख्या
कर अन्य जीवकोटिके युद्धानयोगियोंके साथ भी इसी नियम का सम्बन्ध है।
आशय यह है कि राग-द्वीप और पुण्य-पापका सम्बन्ध कंवल कर्तृत्व-अहंकारसे ही है। जिनमे कर्तृत्व-अहंकार जाग्रत् है उनको ही राग-द्वप,पुण्य-पापके साथ बंधनापडता है और जिन में कर्तृत्व-अहंकार जाग्रत् नहीं उनका राग-द्वपादिके साथ कोई वन्धन नहीं । स्वयं भगवान् तथा योगियोंमे ज्ञानके प्रभावसे कर्तृत्व-अहंकार सर्वथा गलित रहता है, इसीलिये उनको राग-द्वीप और पुण्य-पापका स्पर्श असम्भव है। क्योंकि वहाँ राग-पादि का आधारभूत कर्तृत्व-अहंकारका ही प्रभाव है, फिर आधार विना प्राधेयकी स्थिति कैसे हो ? उनकी आमासमात्र चेष्टाओंमें अन्य पुरुष जोराग-द्वीप करते हैं, वहीं अपने राग-द्वपद्वारा पुण्यपापके बन्धनमें आते हैं। जैसे युधिष्ठिरकी यज्ञशालामे दुर्योधन जलमें स्थल और स्थलमे जलकी विपरीत भावनासे अपने अज्ञानद्वारा आप ही भ्रमित हुआ था।
जारी:-जार कर्ममे राग पापरूप है, यह सभी शास्त्रोंका मत है । क्यों ? इसीलिये, कि इसमें इन्द्रियपरायणतारूप स्वार्थ भरा हुआ है। यदि इस रागका संकोच होकर अपनी पत्नीमें ही यह राग केन्द्रीभूत हो तो पुण्यरूप है । यदि यह क्रमश.
, गुरुशास्त्रके उपदेश और अपने पुरुषार्थद्वारा जिन्होने अपने परमात्मस्वरूप को प्राप्त किया है, वे युन्जान-योगी कहे जाते हैं। जिनको अपमा परमात्मम्वरूप विस्मरण नहीं हुआ, तथा गुरूशास्त्र के उपदेशकी जिनके लिये ज़रूरत नहीं हुई, वे युक्त-योगी कहे जाते हैं, जैसे राम-कृष्णादि ।