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[ पुण्यपापकी व्याख्या लिये इस निन्दित साधनद्वारा अभक्ष्य-भक्षण करके भी उन्होंने शरीरकी स्थितिको स्वीकार किया, जोकि उनके स्वार्थत्याग का चलन्त दुधांत है। इसीलिये यह कर्म पुण्यरूप हुआ। चौराग्रगण्य भगवान् श्रीकृष्णकी तो बात ही क्या है ? जिनके चोर-कर्मकी प्रशसाके कारण ही श्रीमद्भागवतको श्रादर मिला, जिनकी लीलाएं भक्तोंके हृदयरूपी नन्दन-वनके लिये आनन्दामृतवर्पिणी वन गई । किसी कविने इस चौराप्रगण्यको क्या ही सुन्दर नमस्कार किया है• बजे प्रसिद्धं नवनीतचौरं गोपाङ्गनानां च दुकूलचौरम् ।
अनेकजन्मार्जितपापचौरं चौराग्रगण्यं पुरुषं नमामि ॥१॥ श्रीराधिकाया हृदयस्य चौरं नवाम्बुजश्यामलकान्तिचौरम् । शरणागतानांच समस्तचौरं चौरानगण्य पुरुष नमामि ॥२॥ - अर्थः जमे जो प्रसिद्ध माखनके चुरानेवाले हैं, जो गोपियोंके वस्त्र चुरानेवाले हैं और जो भक्तोंके अनेक जन्मों के संचित पापोंको चुरानेवाले हैं, ऐसे चोरों मे अग्रगण्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ। जो श्रीराधाजीके हृदयको चुरानेवाले हैं, नवीन कमलकी श्यामल कान्तिको चुरानेचाले हैं तथा शरणागतोंका (तन, मन, धन) सब कुछ चुरानेवाले हैं, ऐसे चोरोंमे अग्रगण्य भगवान्को मैं नमस्कार करता हूँ।
ऐसा क्यों हुआ? इसीलिये, कि उनका अपने शरीरके साथ कोई व्यक्तिगत अहंभाव ही मौजूद न था । स्वार्थकी तो वार्ता ही क्या ? स्वार्थका सम्बन्ध तो अहंभावसे ही होता है। न उनका अपना शरीर ही अपने पुण्य-पापरचित था, बल्कि