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[ पुण्य-पाप की व्याख्या उसने दोनोंके सिर फोड दिये और चैनसे अलग जाकर सो रहा। प्रभात उठकर क्या देखता है कि जिस भागमे लाठी उनके रक्त से सनी हुई थी उसी भागमे वह हरी होगई और अंगूर निकल
आया। यह कोई आश्चर्य नहीं है, जहाँ समष्टि हित होता है उसके साधनभूत जड़ वॉसमें प्रकृति अपना प्रकाश कर सकती है, जिस प्रकार आनेवाले समष्टि हर्ष-शोक की सूचना पशु-पक्षियोंद्वारा तथा वृक्ष, गुल्म, लताओद्वारा प्रकृति स्वाभाविक देती रहती है, जैसाकि रामायणमे अनेक स्थलों पर ऐसा कथन किया गया है। तब वह मनुष्य बड़े प्रसन्नचित्तसे महात्माजीके पास दौड़ा गया
और उनके उपदेशका पात्र हुआ। - इससे सिद्ध हुआ कि मारणरूप कर्म, जोकि उसके लिये पापोंका ढेर बना हुआ था, वही भावके फेरसे परम पुण्यरूप सिद्ध होकर सम्पूर्ण पापोंका प्रायश्चित्त बन गया। अब देखना यह है कि कौनसा भाव पुण्यको उत्पन्न करनेवाला है और कौनसा पापको इस पर विचारद्वारा यह स्पष्ट होता है कि जिस भावमे जितनी मात्रामे हमारा स्वार्थत्याग होगा उतना ही वह पुण्यरूप होगा और जितनी मात्रामें स्वार्थकी पकड़ होगी उतना ही वह पापरूप होवेगा । जिस प्रकार सुख व दुख सापेक्ष न्यून-अधिक हैं, एक सुखसे दूसरा सुख अधिक और दूसरेसे पहला न्यून, तथा एक दु.खसे दूसरा दुःख अधिक और दूसरेसे पहला न्यून, इसी प्रकार पुण्य-पाप भी अवश्य सापेन न्यूनाधिक है तथा केवल पुण्य व केवल सुख इनसे विलक्षण है। इसको आगे चल कर स्पष्ट किया जायगा।
वेदान्त का कथन है कि रागसे पुण्यकी उत्पत्ति होती है पुण्य व पापके हेतु | और द्वेषसे पापकी वृद्धि होती हैं । अब गग-द्वेष पर विचार | यहाँ प्रश्न होता है कि कौन-सा राग पुण्य
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