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[पाप-पुण्य की व्याख्या शास्त्रोंके बहुत मे प्रमाण न देकर, परन्तु उनके आशयको दृष्टि में रख कर निजी अनुभवके आधार पर कुछ कहा जायगा।
पुण्य-पापका निर्णय शरीर तथा मनकी स्थूल चेष्टासे नहीं या हो सकता, परन्तु कताकी चुद्धिके भाव
पर ही पुण्य व पाप निर्भर है भाव कहिये, का निर्णय
| खयाल कहिये या विचार कह लीजिये, भाव ही जीवके बन्ध-मोक्षका हेतु है, स्थूल कर्म वन्ध-मोक्ष का हेतु नहीं । स्थूलदष्टिसे पाप-कर्म भी भावके परिवर्तनसे पुण्यरूप बन सकता है तथा पुण्य-कर्म पापरूप हो सकता है। इस विषयको स्पष्ट करनेके लिये हम एक कहानी कहेगे:
किसी ग्राममें एक दुष्ट पापी मनुष्य रहता था, उसका सम्पूर्ण जीवन दुराचार व पापाचरणमे ही व्यतीत हुा । प्रकृतिका नियम है कि प्रत्येक पदार्थ जव गिरावकी सीमाको पहुँच जाता है तब वहाँसे उसका उठना स्वाभाविक है। क्या देश, क्या जाति,क्या व्यक्ति सभी पर इस नियमका राज्य है। इसी नियमके अनुमार उस मनुष्यको विचार उत्पन्न हुआ कि 'मेरा सम्पूर्ण जीवन दुष्ट काँमें ही व्यतीत हुआ, हाय । अन्त समय मेरी क्या गति होगी? हे प्रभो ! मैं किस प्रकार अपने दुराचारों से मुक्त होगा। इस प्रकार पश्चात्ताप करता हुआ, प्रामके वाहर एक महात्मा रहते थे, उनकी सेवामें वह रात्रिके समय गया। महात्माजी द्वार बन्द किये एकान्त सेवन कर रहे थे। इसने अपना नाम बतला कर उनसे द्वार खोलनेकी प्रार्थना की । इसकी प्रसिद्धि महात्माजी को पहले ज्ञात थी, उन्होंने समझा आज इमका वार हमारे उपर है, ऐसा विचार कर उन्होंने द्वार नहीं खोला। अन्तमें इसकी विशेष दीनता पर महात्माजीको दया आई और उन्होंने द्वार खोल दिया। यह दीनतापूर्वक महात्माजीके चरणों में लिपट