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[१० आत्मविलास] साधुओंके पुण्य और दुष्ठोंके पापरचित संस्कारों द्वारा ही उनके शरीरकी प्रकटता हुई थी । जैसा गीता अध्याय ४ मे कहा गया है:
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् । प्रकृति स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया । यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।
(श्लोक ६, ७ ८) अर्थ.-मैं अजन्मा व अविनाशीरूप होने पर भी और सव भूतोंका ईश्वर होने पर भी, अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी मायासे प्रकट होता हूँ। कब ? जब-जब धर्ममें ग्लानि उत्पन्न होती है, तब-तब मैं अपने रूपको प्रकट करता हूँ। क्यों ? साधु पुरुषोंका उद्धार तथा दुष्टोंका विनाश करनेके लिये मैं युग-युगमे प्रकट होता हूँ।
क्योंकि अपनी शारीरिक चेष्टाओंमे उनका किसी प्रकार कर्तृत्व-अहंकार नहीं था इसीलिये जिन्होंने उनकी चेष्टाओंसे द्वीप किया, भगवानको उन चेष्टाओंका पाप स्पर्श न करके उन द्वोपियोंको ही पापका सर्श हुआ । तथा जिन्होंने उनकी चेष्टाओंसे राग किया, उसका पुण्य भगवान्को स्पर्श न करके उन पुरुषोंको ही पुण्य भागी होना पड़ा। ईश्वरकोटिको छोड