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आत्मविलास] गया और अपने उद्वारका मार्ग पूछने लगा। महात्माजीने विचार किया कि 'इमकी सम्पूर्ण आयु तो दुराचारोंमें ही व्यतीत हुई है अब इसके लिये क्या उपदेश हो सकता है ! उपदेश भी पात्रमे ही शोभा पाता है। इस प्रकार इससे निराश होकर अपना पीछा छुडानेके लिये, उन्होंने एक शुष्क वॉसकी लाठी इसको देकर कहा कि "तू इस लाठीको लेकर जगलमे चला जा, जव यह लाठी हरी हो जाय तथा अगूर ले आवे तव हमारे पास श्राना ।” महामाजीका आशय तो यह था कि न लाठी हरी होगी न यह हमारे पास आयेगा । यह मनुष्य महात्माजीके वचनोंमे विश्वास रखकर तत्काल बाहर जंगलमे चला गयारात्रिके समय दूर जाताजाता थक कर एक प्रामके वाहर वृक्षके नीचे बैठ गया। थोड़ी देर पीछे दो मनुष्य आये और इससे थोड़े फासले पर वे भी एक वृक्षके नीचे बैठ गये। अन्धेरी रातमे उन्होंने इसको नहीं देखा
और वे परस्पर वार्तालाप करने लगे कि 'इस ग्राममें हमारा अमुक शत्रु रहता है उसको मारना हमें जरूरी है, यह हमने निश्चय कर लिया है । परन्तु यदि हम उस अकेलेको ही मारेंगे तो हमारी उसकी शत्रुता प्रसिद्ध है, इसलिये हम अवश्य पकडे जायेंगे । श्रेष्ठ उपाय यही है कि इस रात्रिके समय ग्रामको ही अग्नि लगा दें, जिससे सम्पूर्ण मनुष्योंके साथ वह भी जल मरेगा
और हम भी वच जायेगे।' इस प्रकार के वाते कर रहे थे और यह मनुष्य उनकी सव चचो सुन रहा था। इसका हृदय बड़ा दुःम्बी हुआ । इसने विचार किया, 'बड़ा अनर्थ है । एक जीवके लिये यह पापी सैकड़ों जीवोंकी हत्या करनेके लिये उद्यत हुए हैं, मेरा जीवन तो हजारों जीवो की हत्या करते ही व्यतीत हुआ है वहाँ यह दो हत्या और अधिक सही, परन्तु इन सैकड़ों जीवॉके तो प्राण बच जायेंगे।' ऐसा विचार कर वह चुप-चाप अंधेरे में उनके निकट गया और महात्माजीकी प्रदान की हुई लाठीसे