Book Title: Viharman Jina Stavan Vishi Sarth
Author(s): Jatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
Publisher: Sukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ श्रीमद्देवचन्द्रजी रचित विहरमान जिन स्तवन - वीशी सार्थ परमपूज्या श्रीमती प्रवर्तिनी मुत्र श्रीजी महाराज' साहब की शिष्या जतनश्रीजी महाराज व विज्ञान श्रीजी महाराज के उपदेश से प्रकाशक सुखसागर सुवरण भण्डार महावीर मण्डल, बीकानेर वीर संवत २४७३ प्रथमावृत्ति १००० विक्रम संवन २००७ सुख संवत ६५ मूल्य २). Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन ध्यान रखिये पैरों तले व अपवित्र स्थानों में डालकर, थूक लगाकर और अज्ञान बालकों के हाथों में देकर पुस्तकों की आशातना नहीं करिये। इस पुस्तक का पुनः पुनः स्वाध्याय करिये, स्तवनों को गाइये __ व उनके अर्थ पर मनन करिये । इसे दूसरों को पढ़ने के लिये दीजिये, पढ़कर उन्हें सुनाइये । इससे आपको आध्यात्म-ज्ञान व भक्ति प्रसारित करने का महान् लाभ होगा। - बीकानेर एजूकेशनल प्रेस में मुद्रित Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य परमोपकारी गुरु महाराज श्री सुखसागरजी पवित्र स्मृति सा दर स-मर्पित 卐 आज्ञानुवतिनी विच क्षण श्री Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष प्रभावक पुज्य गुरुमहाराज. ब ASYA HAR .. . . . merosammer YMKAR LA APALIKASH सागरजी महाराज माइव S olana 5 भेरुदानजी बोथरा के पुत्र सुखलालजी की धर्मपत्नी वेरागन चंचळवाई तरफ गाम गोगोलाव (नागोर) जन्म मवन १८७६ सरसा दीक्षा सवत १९०६ जयपुर - स्वर्ग सवत १९४ जयपुर में स्वर्ग सवत १९४० फलोदी Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमपूज्य परमोपकारी गुरु महाराज श्री सुखसागरजी पवित्र स्मृति साद र समर्पित आज्ञानुवर्तिनी विच क्षण श्री Page #10 --------------------------------------------------------------------------  Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-१८ १०५ अनुक्रमणिका प्रास्ताविक कुछ, ..... ...." १. श्री सीम'धर जिन स्तवन बालावबोध ... २. श्री युगमंधर जिन स्तवन ' ' ३. श्री बाहु जिन स्तवन ४. श्री सुबाहु जिन स्तवन - १५. श्री सुजातस्वामी जिन स्तवन) १६. श्री स्वयप्रभ जिन स्तवन , ७. श्री ऋषभानन जिन स्तवन । ८ श्री अनन्तवीर्य जिन स्तवन , .... ६. श्री सूरप्रभ जिन स्तवन । १०. श्री विशाल जिन स्तवन , ११. श्री वज्र धर जिन स्तवन , १२. श्री चन्द्रानन जिन स्तवन , १३.: श्री चन्द्रबाहु जिन स्तवन ।, १४.:, श्री भुजंग स्वामी जिन स्तवन ,, १५. श्री ईश्वरदेव जिन स्तवन १६.८ श्री नमिप्रभ जिन स्तवन । १७. श्री वीरसेन जिन स्तवन १८. श्री महाभद्र जिन स्तवन १६. श्री देवजसा जिन स्तवन , २०. श्री अजितवीर्य जिन स्तवन , २१. कलश १३४ "१४६ १७० h .. . २२२ २३० २३६ २४७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद्देवचन्द्रजी रचित अप्रकाशित स्तवन संग्रह संग्राहक-अगरचन्द नाहटा ... २५३ २५४ २५४ २६० २६१ २६२ ऋपभ स्तवन शीतल जिन स्तवन ३. लीपडी शान्ति जिन स्थापना स्तवन ४. पार्श्वनाथ गीत ५. श्री मौनेकादशी नमस्कार ... ६. श्री पद्मनाभ जिन स्तवन ... ७. अष्ट रुचि सज्माय .... , 5. पद १. मेरे पिउ क्यु न आप विचारो १६. चारित्र सुख वर्णन द्वादश दोधक ११. हीयाली १२. उदय स्वामित्व पंचाशिका ... २६४ २६६ २६७ २६७ २६८ . ... २६४ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक कुछ अन त ज्ञानी दृष्ट भूगोल में असंख्यात द्वीप समुद्रों का वर्णन आता है । उनमे भी मनुष्यों का नित्रास जबूद्वीप, धातकी खंड, आधा पुष्कर द्वीप ऐसे ढाई द्वीपों में है । ढाई द्वीपों के महाविदेहों की विजयों मे वीस विचरते हुए तीर्थ कर भगवान अपना परम पावन धर्म शासन प्रवृत्तिमान कर रहे हैं उन बीस विहरमान भगवानों के स्तवन अध्यात्म रसिक महापण्डित श्रीमद्देवचन्द्रजी महाराज ने अपनी ओजपूर्ण सरस भाषा में गाये हैं | जो इस प्रस्तुत पुस्तक में पाठकों की सेवा में उपस्थित हैं । महापण्डित श्रीमद्देवचन्द्रजी महाराज कौन थे ? कब हुए ? कहां हुए ? ये प्रश्न साहजिक भाव से पैदा होते हैं । " पुरुष विश्वासे वचन विश्वासः " - इस लोकमान्य सूत्रानुसार उनके प्रति विश्वास पैदा कराने के लिये उन प्रश्नों के उत्तर अध्यात्मने योग निष्ठ प्रभावक आचार्य श्री बुद्धिसागर सूरिजी महाराज महापरिश्रम से सपादित अपने-- श्रीमद्देवचन्द्र भाग पहले और दूसरे में बड़े विस्तार से दिये हैं । इसी प्रकार का विशिष्ट प्रम श्रीयुत मणिलाल मोहनलाल पादराकर ने भी " श्रीमददेवचन्द्र जी जोवन चरित्र" नाम की पुस्तक मे किया है। साधारण रूप से जैन समाज का बघा २ श्रीमद देवचन्द्रजी महाराज के नाम से परिचित है। " Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान के बीकानेर इलाके में श्रोसवाल लूणिया गोत्र के साह तुलसीदासजी और उनको धर्मशीला धर्मपत्नी श्रीमती धन्नाबाई रहते थे । स० १७४६ मे उनके शुभ स्वप्न सुचित पुत्र रत्ल उत्पन्न हुआ । नाम देवचन्द्र रखा गया । उपाध्याय राज सागरजी के पुनीत उपदेश से १७५६ में मां बाप की आज्ञा से श्री देवचन्द्रजी दीक्षित हुए। श्रीजिनचन्द्रसूरिजी से बडी दीक्षा प्राप्त हुई । राजविमल नाम रखा पर लोकों में देवचन्द्र नाम ही अधिक प्रसिद्ध हुआ । बिलाडा में आपने सरस्वती मंत्र जाप से सिद्धि प्राप्त की । स्व पर शास्त्रों के विशद अभ्यास से जैन दर्शन के प्रौढ़ विद्वान हुए । स० १७६६ में ध्यानदीपिका और १७६७ में द्रव्य प्रकाश नाम के अद्भत ग्रंथों की रचना की। माईजी और अमाईजी नाम की सेठ विमनदास की पुत्रियों के प्रबोधार्थ श्रागमसार नामक प्रथ की रचना की। पाटण में पूर्णिमागच्छीय भावप्रभसूर के सदुपदेश से श्रीमाल वशीय तेजसी जेतसी ने सहस्रकूट जिन बिंब स्थापन किये । श्रीदेवचन्द्रजी ने सहरकूट जिन बिव परिचय पूछने पर सेठ ने अपनी अनभिज्ञता दिखाते हुए ज्ञानविमन सूरिजी से . प्रश्न किया उनने भी कहा कि शास्त्रों में तो इसका अता-पता नहीं है, तब श्रीमान ने सहस्रकूट का शास्त्रीय परिचय कराया। तब सुरिजी बहुत प्रसन्न हुए । दोनों में अद्भुत धर्म स्नेह का उद्भव हुआ । क्रियोद्धार किया । १७७८ में नारी सराय Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहमदाबाद में भगवत्ती सूत्र का व्याख्यान किया। लोगों को प्रभु पूजा में स्थिर किये। अहमदाबाद में श्रीशातिनाथजा की पल में सहस्रकूट जिन बिब की प्रतिष्ठा की। १७७६ में खभात में चौमासा किया । सिद्धाचल पर जीर्णोद्धार का कारखाना खुलवाया । प्रतिष्टित श्रावकों ने ८१८२-८३ मे श्रीमान के सदुपदेश से चतुर सलावटों से सिद्धाचन पर जीर्णोद्धार करवाया । १७८८ में श्रीमान के गुरुदेव श्री दीपचन्द्रची पाठक का स्वर्गवास हुआ । श्रहमदाबाद के सूबा श्रीरत्नचन्द्रमडारी की प्रार्थना से संग मिटाया। विरोधी राजा के साथ युद्ध मे भडारीजी ने गुरु के आशीर्वाद से विजय प्राप्त की। धोलका में एक योगी ने श्रीमान से जनदर्शन पाया । जामनगर में जिन पूजा विरोधियों से विजय पाई। पडधरी के ठाकुर को धमनिष्ठ बनाया । राणाबाव के राजा का भगंदर रोग आपके पाशीर्वाद से शांत हो गया । भावनगर के महाराजा को आपने सत्संग से धर्मानुरागी बनाया। पालीताना मे प्लेग को शान्त किया । लीम्बडी, ध्रांगध्रा और चूहा में प्रभु प्रतिमा की आपने प्रतिष्टाएं करवाई। श्रीमान देवचन्द्रजी महाराज के शिष्य मनरूपजी एव न्याय शास्त्र के पाठक पडित विजयचद्रजी थे । मनरूपजी के शिष्य वक्तूजी और रामचन्द्रजी थे । सं० १८१२ में अहमदाबाद मैं गच्छ नायक प्राचाय ने आपकी अद्भुत प्रात्म शक्ति अनुपम पाण्डित्य-सफल उपदेककर विधि को देखकर बड़ेस मारोह Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स थ आपको वाचक पद प्रदान किया। अहमदाबाद में ही स० ५८१२ भादो महीने की अमावस्या के दिन प्रात्म ध्यान में लीन होते हुए परमेष्ठी स्मरण करते हुए, सूत्र पाठों को सुनते हुए आपका स्वर्गवास हुआ । सघ ने आपका भारी सन्मान किया। वाचक श्रीदेवचंद्रजी ने अपनी प्रकाण्डप्रतिभा से छोटे मोटे कई मंथ सस्कृन, प्राकृत, गुजराती, हिन्दी आदि अनेक भाषाओं में निर्माण किये, जिनका संग्रह-श्रीमद्देवच°द्र भाग १ और २ में श्रीमान के अनन्य अनुरागी अध्यात्मयोगनिष्ठ प्रभावक आचार्य श्री बुद्धिसागर सुरिजी महाराज ने किया है । अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मंडल पादरा से जिनका प्रकाशन हुआ है । उन्हीं ग्रंथ रत्नों में यह "विहरमान जिन वीसी'-अपना विशिष्ट स्थान रखती है। आपके ग्रंथों की अनेक विशिष्टताओं को बचाने का यह स्थान नहीं है । केवल प्रस्तुत "बीली" की ही कुछ खुधियां बताना ठीक मानता हूँ। श्रीमान ने सीमंधर स्वामी के पहले स्तवन में-आध्यात्मिक साम्यवाद की झांकी दिखाई है-जैसे जे परिणामिक धर्म तुम्हारो, तेहवो अमचो धर्म । श्रद्धा भासन रमण वियोगे, वलग्यो विभाब अधर्म ॥ भगवान के समान ही अपना धर्म बताना यह जैन दर्शन का साम्यवाद है । उस ढग की श्रद्धा-दर्शन और प्रवृत्ति के अभाव मे ही विषमता दीखती है। वह भी नैमित्तिक होने से मिट सकती है--इसीलिये तो श्रीमान ने गाया कि Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध निमित्त रमे जब चिधनकर्ता भोक्ता घरनो। शुद्ध देव आलंबन करतां___ परि हरिये पर भाव ।। आतम गुण निर्मल नीपजतां ध्यान समाधि स्वभावे । पूर्णानंद सिद्धता साधी देवच द्र पद पावे ॥ विषमता मिटने पर आत्मगुणों में निर्मलता होने से ध्यान समाधि प्राप्त होती है। उसीसे पूर्ण श्रानन्द की सिद्धि होती है। तभी आत्मा परमात्मा हो जाता है। दूसरे श्रीयुगमंधर प्रभु के स्तवन में कत्तु त्व-कारण और कार्य की चर्चा बड़े सुन्दर भावों में निरूपित की गई है। ईश्वर कत्तत्व को न माननेवाले जैन दर्शन की पुण्य पद्धति इन्हीं शब्दों में श्रीमान ने बताई है--- कार्य रुचि को थये रे कारक सवि पलटाय रे । दयाल । आतम गते आतम रमे रे, निज घर मंगल थाय रे । दयाल । कर्ता--आत्मा मोक्ष कार्य की सचिवाला होता है, तभी सभी कारक आत्म रूप हो जाते हैं। आत्मा जब आत्मा में Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रमण करता है तभी आत्मा में म गल हो जाता है। अगर यही बात है तो ईश्वर को क्यों मानना चाहिये ? इसके जवाब में श्रीमान फरमाते हैं-- त्राण शरण आधार छो रे, प्रभुजी भव्य --सहाय । दयाल । देवच'द्र पद नोपजे रे, जिन पद कज सुपसाय रे । दयाल । त्राण-शरण और आधार रूप भगवान को मानकर भव्यात्मा देवच द्र पद पैदा करते हैं। उपकारी के उपकार को याद करना कृतज्ञता मानी जाती है । जनदर्शन भगवान को निमित्त रूप से मानने की प्रेरणा करता है । इसीलिये मंदिर और तीर्थों में भगवान की स्थापना की जाती है। तीसरे श्रीबाहु तीर्थकर भगवान के स्तवन में जैन दर्शन की परम अहिंसा का स्वरूप श्रीमान ने इस प्रकार गाया है-- द्रव्य थकी छकाय ने, न हणे जेह लगार प्रभुजी । भाव दया परिणाम नो, - एहिज के आधार प्रभुजी ॥ जैन दर्शन पृथ्वी १ पानी २ आग ३ वायु ४ वनस्पती ५ और चलते फिरते-नस ६ इन छह जीव निकायों को मनसा वाचा कर्मा न माग्ने का उपदेश देता है। जब कि दूसरों की अहिसा केवल मानव प्राणी तक ही सीमित है। किसी भी जीव को किसी भी तरह से न मारना--भाव दया है। भाव दया ही Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमात्म पद का आधार है। आज का क्षुद्र मानव अपने स्वार्थ के खातिर बदर, हिरण, कुत्त, मछली आदि को मारना अपना कर्तव्य मानने लगा है। तब जैन दर्शन छहों जीवनिकायों की रक्षा करने का उपदेश फरमाता है। - जैन दर्शन में तीर्थ कर भगवान जब तक जीवित रहते हैं तव तक अरिहंत रूप में अपने पूर्वकृत पुण्य कर्म फलों को भोगते हैं । भव्यात्माओं को धर्म को आराधना में सहायक होते हैं। ऐसे उन परमोपकारी प्रभु के नाम गुणों के स्मरण से मिथ्या दोषों का नाश होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि अनादि अनत ऐसा कोई ईश्वर नहीं होता । जैन दर्शन मान्य ईश्वर का स्वरूप सादि अनंत भाव वाला होता है साथ ही ईश्वर को सहायक मात्र माना जाता है का रूप से नहीं। इसीलिये तो श्रीमान ने गाया है कि-- कर्म उदय जिनराज नो, भविजन धर्म सहाय । नामादिक संभारतां, मिथ्या दोष विलाय ॥ चौथे सुबाहु भगवान के स्तवन मे--भगवान के केवल ज्ञान का स्वरूप, अपनी स्थिति और भावना, साथ ही साधन विधान बताते हुए सीधा रास्ता बताया है जैसे कि-- जिनवर वचन अमृत भादरिये, Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्व (मण अनुसरिये । द्रव्य भाव आश्रव परिहरिये । देवचंद्र पद वरिये ॥ राग द्वष को जीतनेवाले को जिन कहते हैं उन जिनवर के वचनों का अनुसरण करना चाहिये । छोड़ने योग्य जानने योग्य और आदरने योग्य तत्त्वों को समझ कर द्रव्य भाव से पाप कारणों को त्याग देना चाहिये। तभी मोक्ष पद प्राप्त होता है। कितना सीधा रास्ता है। ___ पांचवें सुजात स्वामी के स्तवन में नयों का विचार प्रौढ़ पाण्डित्य पूर्ण भाषा मे बड़े सुन्दर ढंग से किया है। अंश नय मार्ग कहाया, ते विकलप भाव सुरणाया । नय चार ते द्रव्य थपाया, शब्दादिक भाव कहाया ॥ अनंत धर्मात्मक वस्तु की एक अंश की जानकारी एवं स्वरूप व्याख्या को नय कहते हैं। नैगमादिक चार नय द्रव्य पदार्थ को बताते हैं और शब्दादिक तीन नय पर्याय--अवस्था विशेष को बताते हैं। ___ इसी स्तवन में अपेक्षा से पदार्थ को देखने की प्रेरणा करते हुए श्रीमान ने गाया है की। स्थाद्वादी वस्तु कहीजेतमु धर्म अनंत लहीजे । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रफेसर प्राईस्टिन का (रिसंटिविटि ) अपेक्षावादी सिद्धान्त क्या नया है ? हजारों वर्ष पहले से ही जैनदर्शन ने प्रत्येक वस्तु को अनत धर्मात्मक बताई है और उसे समझने के लिये अपेक्षावाद-स्याद्वाद सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। सियाद्वाद सायद्वाद या संशयवाद नहीं है। वह निश्चयातक रूप से वस्तु स्वरूप का प्रतिपादन करता है। छ8 श्री स्वयंप्रभ स्वामी तीर्थंकर के गुणानुवाद मे श्रीमान ने जीवकर्म के संबंध को बताते हुए क्रमिक विकास का वर्णन किया है उपशम भावे हो मिश्र क्षायिकपणे । जे.निज गुण प्राग भाव। पूर्णावस्थाने नीपजावतो। साधन धर्म स्वभाव । प्रवाह रूप से अनादि कर्म सबंध के कारण निज गुणों को पूर्णावस्था का जो प्राक अभाव था और इसी से ससार अवस्था बनी हुई थी। पर साधन धर्म के स्वभाव से कर्मों का उपशम क्षयोपशम क्षय होने पर क्रमिक विकास की पराकाष्ठा हो जाती है । तभी स सारी अवस्था का प्रध्वंस होकर अभाव हो जाता है। जिसको जैन परिभाषा मे सादि अन त कहा है। सातवें श्री ऋषभाननप्रभु के स्तवन में प्रभु भक्ति में मस्त श्रीमान् ने अपने अंगों को सार्थकता बताते हुए कितने Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुन्दर भाव कहे है जे प्रसन्न प्रभु मुख प्रहेतेहिज नयन प्रधान जिनवर । जिन चरणे जे नामिये, मस्तक तेह प्रमाण जिनवर । अरिहा पद कज अरचिये सलहीजे ते हत्थ जिनवर प्रभु गुण चितन में रमे, ' तेहिज मन सु यत्थ ज़िनवर ॥ श्री. भात अपने जीवन को प्रभु भक्ति से ही सार्थक मानते हैं। भक्ति से भक्त भगवान बन जाता है। पाठ श्री अनंतवीर्य भगवान के स्तवन में-जीवशक्ति का स्वरूप बड़े सुन्दर ढंग से बताया है यद्यपि जीव सहु सदा, . वीर्थ गुण सत्तावत रे। पण कर्मे आवृत चल तथा, बाल बाधक भाव नह त रे । मन०२ । जो कि सारे संसारी जीव वीर्य-गुण की सत्तावाले हैं, पर कर्मों से घिरे होने से वह वीर्य गुण विकारी, चचल, बाधा पैदा करनेवाला हो रहा है । भगवान की भक्ति से वह वीर्यगुण विकार मुक्त होता है। . नवमे श्री शूरप्रभू भगवान के स्तवन में भगव न को शूरता का ध्यान कितने सुंदर शब्दों में श्रीमान ने किया है Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ शूर जगदोशनी तीक्षण अति शूरता, तेणे चिरकाल नो मोह जीत्यो 1 अनादि काल के मोद को जीतना ही ज्ञानियों की दृष्टि में सभी वीरता होती है । entrating दशवें श्री विशालप्रभुजी के स्तवन में प्रभु ने जैन दर्शन सम्मत कत्तत्व भाव का श्रीमान ने सुंदर निरूपण किया हैभव श्रटवी श्रति गहन की पारग प्रभुजी सत्यवाह रे । शुद्ध मार्ग देशक पणे, योग क्षेमंकर-नाह रे ॥ अरि० । }} संसार रूप मीमाटी से शुद्ध मार्ग को बताते हुए भगवान भव्यात्मानों के योगों में कल्याण करनेवाले सार्थवाह स्वामी हैं । जैन दर्शन को भगवान उपदेश कत्तृदेव मानने में कोई आपत्ति नहीं । ग्यारहवें श्री वर भगवान के स्तवन में श्रीमान ने अपनी दयनीय दशा का बड़े मार्मिक शब्दों में चित्रण किया हैआश्रव बंध विभाव करू रुचि आपणी । भूल्यो मिथ्या वास दोष द्यं परभणी | a पार कर्मों को कर के पाप संस्कारों के बंधन से अपना स्वरूप भूलकर उल्टे काम मैं करता हॅू। उल्टे कामों का उ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ही परिणाम होता है । तब इसका दोष मैं दूसरों को देता हूँ । आह | कैसा प्रात्म प्रकाश है ? अवगुण ढांकरण काज करू जिन मत किया, न तजूं अवगुण चाल अनादिनी जे प्रिया । दृष्टि रागनो पोष ते समकित हॅू गणु, स्यादवाद नी रीत न देखें निजपणु ॥ यहाँ तो श्रीमान ने बहुत सीधे सादे शब्दों मे अपना साग दिल खोल दिया है - सम्यक्त्व का लक्षण है - सच्चा सो मेरा पर हमारी दशा इसके विपरीत हो रही है--मेरा सो सच्चा -- | जीवन निरूपण में स्याद्वाद से -- सबकी अपेक्षा समझने की शक्ति पैदा हो तभी परमपद का अनुगमन होता है । बारहवें श्रीचद्राननप्रभु के स्तवन से समाज की चत्त मान दशा का चित्रण कितना स्वाभाविक किया हैद्रव्य क्रिया रुचि जीवडा, 6 भाव क्रिया रुचि हीन । उपदेशक परम तेहवा, शु करे जीव नवीन ॥ चद्र० । ३ ॥ प्रायः जीव भाव क्रिया से होन दिखावटी क्रिया की रुचिवाले हैं । उपदेशक भी उसी ढंग के हैं इस हालत मे जीव क्या नवीनता पैदा कर सकता है । 1 इसी स्तवन मे गुरु और धर्म की वर्त्तमान विडंबना दिखाते हुए वाडाबधी के लिये कुछ नाराजगी भी- प्रदर्शित की है. - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गच्छ कदाग्रह साचवे माने धर्म प्रसिद्ध । आतम गुण अकषायता धर्म न जाणे शुद्ध ॥ चद्रा ।। तेरहवें चन्द्रबाहु भगवान के स्तवन मे श्रीमान् ने भगवान जब कि वीतराग हैं, भक्त और विरोधी पर समान भाव वाले हैं, तो उनकी पूजा वंदना से क्या लाभ ? इस प्रश्न का सुन्दर जवाब दिया है परमेश्वर आलबना, राच्या जेह जीव । निर्मल साध्यनी साधना, साधे तेह सदीव ॥ चद्र०॥ वंतराग परमेश्वर की पूजा, वदना भक्ति के आल बन को जो जीव स्वीकारते है वे कर्म मल रहित मोक्ष साध्य की साधना साधते हैं। ___ चौदहवें श्री भुजग स्वामी भगवान के स्तवन में श्रीमान् आत्म द्रव्य के सामान्य विशेष गुण पर्यायों की विवेचना करते हुए जड़ चेतन का सुन्दर विवेक कराया है जड द्रव्य चतुष्के हो फर्ता भाव नहीं । सर्व प्रदेशे हो के, वृत्ति विभिन्न कही ॥ २ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ चेतन द्रन्यने हो के, सकल प्रदेश मिले । गुण वर्तना पत्र्ते हो के वस्तुने सहज पले ॥ ३ ॥ धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्ति काय ये चार जड़ द्रव्य है। इन चारों जड़ द्रव्यों में कत्त त्व भाव नहीं है । जड, द्रव्यों के प्रत्येक प्रदेश में जुदी २ वृत्तियां हैं । पर चेवन द्रव्य में सारे प्रदेशों में एक वृत्ति की ही वत्त ना होती है । इसमें कारण केवल वस्तु का अपना धर्म ही है । वस्तु स्वरूप समझाने की कितनी सुन्दर सारणी है । पन्द्रहवें श्रीईश्वर स्वामी तीर्थकर के स्तवन में श्रीमान् ने भगवान को अनंत शक्तिमान बताते हुए जैनेतरों के मान्य सर्वशक्तिमत्व विशेषण को अमान्य किया है का भोक्ता हो भाष कारक ग्राहक हो जान चारित्रता । गुण पर्याय अनत, पाम्या तुमचा हो पूर्णता ॥ भगवान के अपने गुण और उनकी अवस्थाएं अनंत पूर्ण होती हैं । संसार के सब पदार्थों की शान्ति का उनमें अभाव होता है । सर्वशक्तिमत्ता के रहते संसार में दुःख संताप आदि बने रहते हैं तो दो बातें सिद्ध होती हैं। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ पहली बात यातो विशेषण गलत है, या ऐसा कोई भगवान नहीं है । दूसरी बात अगर है तो वह निर्दयी या कंजूस है जिससे कि सर्वशक्ति के रहते शक्ति का सदुपयोग नहीं करता । सोलहवें श्री नमिप्रभु स्वामी के स्तवन में श्रीमान् ने नवतन्त्रों का विवेचन - कर्मवाद का स्वरूप और परमात्मा पद की विशेषता बड़े सुन्दर ढंग से व्यक्त की है । सतरहवें श्री वीरसेन भगवान के स्तवन मे श्रीमान् ने ध्याता ध्यान और ध्येय की विशिष्टता बताने में कमाल कर दिया है । अठारहवें श्री महाद्र भगवान् के स्तवन में भगवान के अध्यात्मिक साम्राज्य का वर्णन रूपकों में किया है । जिसमें क्षायिक अनत वीर्य शक्ति अव्याबाध- समाधि कोश - स्वजाना, गुण सपति से हरे भरे असंख्यात प्रदेश, चारित्र रूप किला, क्षमादिक धर्म-गुणों का सैन्यबल, आचाब उपाध्याय, साधु श्रावक आदि अधिकारी, सम्यग्दृष्टि जीवरूप प्रजा को बताने में श्रीमान् ने अपना ललित-कौशल व्यक्त किया है । उन्नीसवें श्री देवजसा भगवान के स्तवन में प्रभु दर्शन की लालसा, प्रभु के प्रति अनन्य प्रेमानुराग, व्यक्त करते हुए अपनी दशा का विचार और सम्यग्दृष्टि देवताओं से प्राथना बड़े मार्मिक भावों में की है - जैसे Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होवत जो तनु पाखडी आवत नाथ हजुर लाल रे । जो होती चित्त प्रांखडी देखत नित्य प्रभु नूर लाल रे । अपने स्नेही से मिलने के लिये शरीर में पाखों की मागनी तो दुनियां करती है पर चित्त मे आंखों की मांगनी करना श्रीमान् की अनुपम सूझ का ही परिणाम है । शासन भक्त जे सुरवरा, विनवू शीष नमाय लाल रे । कृपा करो मुम अपरे, तो जिन वदन थाय लाल रे । बीसवे श्री अजितवीर्य भगवान के स्तवन मे श्रीमान ने अमृत क्रियानुष्ठान बताते हुए भव्यात्माओं को अमृतत्व के दर्शन कराये हैं जिन गुण अमृतपान थी रे मन । अमृत क्रिया सुपसाय भवि० ।। अमृत क्रिया अनुष्ठान थी रे मनः । श्रातम अमृत थाय रे भवि० । भगवान् के गुण अमृत पान से अमृत क्रिया को करके आत्मा अमृत हो जाता है । कितना सीधा रास्ता है । श्री अरिहंत भक्ति की अपूर्वता दिखाते हुए श्रीमान् ने कितना ठीक कहा है-. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाथ भक्ति रस भाव थी रे मनः । तृण जाणु पर देव रे भवि• । चितामणि सुरतरु थकी रे मन । अधिकी अरिहंत सेव रे । भवि० ॥ ६ ॥ मायावी देवों को कुछ न मानते हुए अरिहत की सेवा को चितामणि और कल्पवृक्ष से भी बढ़ कर मानी है। ऐसा करके श्रीमान् ने अपने अनुपम विवेक को व्यक्त किया है। इस प्रकार यह “विहरमान जिन स्तवन वीसी" ऐक आध्यात्मिक पुरुष के अनुपम आध्यात्मिक भावों से संपन्न जैन दर्शन की विशिष्टता को दिखाती है। - इसकी रचना श्री सिद्धाचन तीर्थाधिराज पर चतुर्मास करते हुए श्रीमान देवचंद्रजी महाराज ने की है । आपकी गुरु परपरा आपने इसी बीसी के अंतिम पद में इस प्रकार दी हैं। खरतर गच्छ जिनचंद सरिवर, पुण्य प्रधान मुणिदो। सुमतिसागर साधुरंग सुवाचक पीधो श्रुत मकरदो ॥ मिनः ॥ गज सार पाठक उपकारी ज्ञान धर्म दिणदो। दीपचंद्र सहरु गुणवता Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ . पाठछ धीर गवं दो ॥ जिन० ॥ देवचन्द्र गणि श्रातम हेते गाया वीस जिणंदो xx इस वीसी के भाषों को समझाने के लिये दाहोद के रहनेवाले श्रावक पडित मनसुखलालजी के शिष्य अं सतोष चदजी ने गुजराती अनुवाद किया है जो साथ ही छपा है। अनुवाद भी बड़े सुन्दर ढग से किया गया है । इस वीसी को पढ़ने पर अध्यात्म करत, जैन दर्शनानुरागी लोगों को भारी बोध लाभ प्राप्त होगा । श्रमदेव चन्द्रजी महाराज के साहित्य का विशिष्ट कारन अध्यात्म प्रसारक डज प दरा ने दिया है । ६छ अवश कृतियपरिशिष्ट रूप में इस बीसी के पृष्ट माग मे अबित है । इप्त पुस्तक का प्रकाशन करके भी प्रकार को में एक प्रकार से दशन की ही सेवा की है । इसी प्रकार दर्शन सेवा का लाम हमेशा समाज को मिलता रहे यही एक अभिलाषा रखता हुआ-- उपाध्याय कवीन्द्रसागर बीकानेर ( राजस्थान) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥उँ नमः सिद्धेभ्यः॥ ॥ अथ श्री महोपाध्याय देवचंद्रजी विरचित विरहमान जिन स्तवनानि बालावबोध सहित ॥ ॥ दोहरा ॥ जयति ज्योति शुद्धात्मनी, करति परम उद्योत; दूर करे सहु विघ्नभय, करे, अखिल सबोध. दुःखहर सुखकर सद्गुरु, "श्री मनसुख" मति पूर; - स्वपर समय ज्ञाता सदा, मम मति । करे सनूर. (२) स्याद्वाद जिन वचनने वंडं धरि सन्मान , हृदय वदन राखुं सदा, सहज लहुं शुभ ध्यान, देवचंद्र मुनिवर रचित, स्तवन वीश भभिरामा । (३) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विरहमाम जिनवर तणां, अति गंभिर गुणधाम, (४) पूर्ण अर्थ में नवि लह्यो, पण निजमति अनुमान; अथ लखुं हुं एहनो, हृदय धरि सन्मान. (५) द्रव्यानुयोग दूरे करे, करम भरमनो खेल; । सुमति सखि श्रावी मले, लहे सुगुण रंगरेल. शिषमगा पग ते धरे, करे सुतत्त्व विचार; शिव संपति शाश्वत लहे, तरे सहज : संसार. ध्यावे ते पावे सदा, परम महोदय सार; तिणे धरि घिर अप्रमत्तता, शिव साधो जयकार. प्रथम श्री सीमधजिन स्तवनं ॥ सिद्धचक्रपद् वदो ।। ए देशी ॥ ॥ श्री सामंधर जिनवर स्वामी, वीनतणी अवधारो ॥ शुद्ध धर्म प्रगटयो जे तुमचे, (८) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रगटो तेह अम्हारो रे स्वामी, विनविय मन रंगे ॥१॥ अर्थ:-सहज अनंत सुख निधान शुद्धास्म परिणति, तेनो घात करनार मिथ्यात अज्ञान अने कषाय रूप अनादिकालना महान् शत्रुनोने जेणे सम्यकपराक्रम बड़े जीस्था छे ते "जिन" मां वर अर्थात् प्रधान-शिरोमणि तथा शारीरिक श्रने मानसिक अनंत असह्य दुःखना हेतुभूत श्रा भयानक ससार समुद्रमा परिभ्रमण करी दुःखी थता दीन जीवोनुं परम करुणाभाव वडे रक्षण करनार तथा अन्य जीवोने पण अहिंसानो उपदेश पापी तेश्रो पासे पण रक्षण करावनार तथा अबाध्य सिद्धांत वडे संमोचीन मोक्षमार्गनो उपदेश करी आस्मिक सहज स्वतंत्र परमानंदना दातार होवाथी "स्वामी" तथा अनतज्ञान, अनतदशन, अनतसुख प्रन अनंतवीर्यरूप आत्म लक्ष्मीना मालीक, देहातीत आस्मसत्ताभूमिमां निरंतर विरहमान हे श्री सीमंधर देव ! आपने समर्थ जाणी आप प्रति अत्यंत उलसित चित्ते नम्रभावे विनंती करुंछु के सरस Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संवर जलना प्रवाह बडे ज्ञानावरणादि कर्म रूप मल धोवाई जवाथी स्फटिक मणि समान अत्यंत शुद्ध केवलज्ञान दर्शनात्मक जेल श्रापनो स्वधर्म सर्वथा प्रगट-व्यक्त थयोछे, "तेमज श्रमारो पण सत्तागते रहेलो (ज्ञानाबरणादि कर्म बडे लिप्त थएलो) लोकालोक प्रकाशक अनंत. सुखनिदान अात्मधर्म संपूर्ण रीते प्रगट थानो" ए उक्त विनंती प्रार्थना हे भगवंत ! अमो दीन उपर करुणाद्रष्टी करी अवधारो-चित्तमा धारो ॥१॥ जे परिणामीक धर्म तुभारो, तेहवो अमचो धर्म ॥ श्रद्धा भासन रमण वियोगे, वलग्यो विभाव अधर्मरे ॥ स्वामी० ॥२॥ ___ अर्थः-सर्वे द्रव्य "उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्" लक्षणवंत होचाथी प्रति समये परमभाव अनुयायी नवा नवा पर्याये परिण से छे अर्थात् वर्तमान पर्याय तीरोभूत थाथ छे भने नूतन पर्यायनो अावीर्भाव थाय छे भने द्रव्य ध्रुव रहे छे. तेथी पापनो आत्म द्रव्य, ज्ञान दर्शन चारित्रादि अनत शुद्ध पर्याय रुप निरंतर परिणमे छे-सहज Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमानदना अनुभवमां निमग्नपणे वर्ते छे. तेमज श्रमारो आत्म द्रव्य पण कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नये (शुद्ध संग्रह नये) श्रापना सहश सत्त वंत छे. "जारिस सिद्ध सहावो तारिस भावो हु सव्व जीवाण" तथापि अनादिथी __ कनकोपल न्याये अशुद्ध होवाथी शुद्ध परिणतिनी श्रद्धा (प्रतीती), भासन (विज्ञान), रमण-आचरण स्थिरताना वियोगथी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र रूप अधर्म परिणमे छे. अर्थात अात्माथी परवस्तु जे पुद्गल द्रव्यथी बनेला विलक्षण धर्मवंत शरीरमां, प्रात्मपणानी श्रद्धा करे ले. तेनेज प्रास्म रूप जाणे छे तेथी ते पौद्गलीक भा वस पोताना श्रास्म परिणामने स्थित करे छे-तल्लीन , करे छे एटले पुद्गल द्रव्यमा इष्टानिष्ट कल्पना करी । अनिष्टने दूर करवामां अने इष्टने प्राप्त करवामा तथा स्थिर राखवामा पोतानी प्रास्म परिणतिने निरंतर रोकी राखे छे ॥२॥ , वस्तु स्वभाव स्वजाति तेहनो, मूल अभाव न थाय । पर विभाव अनुगत परिणतिथी, Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मे ते अवरायरे स्वामी ॥ वि० ॥३॥ अर्थः-द्रव्य, अस्तित्व नास्तित्व स्वभावयंत होवाथी अन्य द्रव्यनो परिणाम तेमां कदापि काले प्रवेश करी शके नहीं अने अस्तिपणे रहेला जे अनंत अन्वय गुणो समांथी कोइनो पण कोई पण काले अभाव थाय नहीं कारण के द्रव्य मात्र द्रव्यार्थिक नये नित्य छे भने “तदभावाव्ययं नित्यम” एम नित्यनी व्याख्या श्री तत्त्वार्थ सूत्रमा प्रतिपादन करेल छे तथा वली "अणोणं पावसंता दिता ओगास मण मणस्स । मेलताविय णिच्चं, सग सग भावं ण विजहति” ए न्याय अनुसारे श्रास्मामा रहेला ज्ञान दर्शन चारित्रादिनो समूल अभाव धवानो बिलकुल असंभव छे तथा वली पंचास्ति द्रव्य मात्र उर्धता तथा तिर्यगप्रचयवंत होवाथी पण तेमज सिद्ध थाय छे. परंतु अनादि अज्ञान वशे आत्म परिणतिने परकर्तृत्व, परभोक्तृत्व, परग्राहकत्व, परव्यापकत्व, पररमणता, पराधाराधेयता श्रादि परानुयायी पणे प्रबर्ताव Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थी शुद्धास्म परिणति ज्ञानावरणादि दुष्ट अष्ट कर्मव अपराय छे-व्याघात पामे छ एम शुद्ध परिणतिनो वियोग रहे छे ॥३॥ जे विभाव ते पण नैमित्तिक, संतति भाव अनादि । परनिमित्तते विषय संगादिक, ते । संयोगे सादिरे स्वामी ॥ वि०॥४॥ अर्थ-मनोज्ञ अमनोज्ञ पुद्गलीक विषयमा इष्टानिष्ट कल्पना करवाथी, धन धान्यादि सचित्त प्रचित्त मिश्र परिग्रहमा ममत्व बुद्धि ग्रहणवुद्धि करवाथी आत्मा राग द्वेष रूप विभावे परिणमे छे तेथी ते विभाव नैमित्तिक छे तथा सादि सात छे तथापि प्रवाहे संतति अनादिनी छे. जेम प्रापणे वर्तमान समये एक पुरुषने जोइये छिये ते पुरुष तेना पिताबडे उत्पन्न थयेल छे तेथी ते भादि सहित छ भने तेनो नाश पण छे तेथी ते पुरुष सादिसांत भांगे थे परन्तु ते पुरुष तेना पिताथी उत्पन्न थयो के तेम तेनो पिता पण बली तेना पिताथी उत्पन्न थयो के एम तेनो वंश अनादि सिद्ध के ॥४॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुद्ध निमित्ते ए संसरता, अत्ता कत्ता परनो ॥ शुद्ध निमित्त रमे जव चिदधन, कर्ता भोक्ता घरनो रे स्वामी ॥ वि० ॥५॥ अर्थ:-ज्ञानावरणादि कर्म उदय रुप अशुद्ध निमित्त पामी अज्ञान मिथ्यात कषाय रूप अशुद्ध परिणासे परिणमी भव समुद्रमा संसरण-परिभ्रमण करतां प्रात्मा परद्रव्यादिकना कर्त्तापणानुं ममत्व, अभिमान करेछे अर्थात् में अभुक जीवने मारयो, अमुकने उगारन्यो, अमुकने सुखी करयो, असकने दुःखी करयो ने अमुक राख्यो, अमुकने चलाव्यो तथा घटपटादिक में बनाया अथवा घर हाटादिकनो में नाश करयो, अमुक इष्ठ पदार्थोनो में लाभ मेलव्यो, तेश्रोने में माहरा भोगमां लीधा. ते ऊंने में राख्या, दूर जवा नहि दीधा, अमुक वस्तु में शुभ मनोज्ञ करी, अमुक वस्तु में अशुभ अमनोज्ञ करी, एम हुं करूं छं, भविष्यतमां एम करीश ए आदि पुद्गल रूप त्रण योगनी, क्रियामां ममत्व करे छे एम अज्ञान वशे पर द्रव्यादिकनो कत्तों बनी घुनः ज्ञानावरणादि नवां कर्म बांधे छे अने वली ते Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पांवेला कलेना उदय काले पण उपर प्रमाणे वत्ती पुनः ज्ञानावरणादि कर्म वांधे छे. एम परना कतापणा, ममत्व करी निरंतर सात आठ कर्म बांधतो. श्रा संसार समुद्रमा परिभ्रमण करे छे भने 'जन्म जरा मरण तथा सोग शोक भय आदि अनेक दुःसह दुःखनो अमाप भार पोताना शिरऊपर उपाडी लेके. पण ज्यारे सम्यकज्ञान सम्यकदर्शन सम्यकचारित्र रूप शुद्ध निमित्तमा रमण करे अर्थात् माई तल्लीन थाय, पोतानी आत्म परिणतिने तेमां स्थित करे, पर द्रव्यादिथी उदासिन्न वृत्ति धारण करे त्यारे पोतानाज स्वभावनो कर्ता भोक्तादि थाय, निर्मल प्रशमरतिनो विलास पामे अने राग स्नेहथी रहित वर्त्तवाथी कर्म रूप रज तेने स्पर्श करवा पामे नहि तथा पूर्व बांधेला संचित कमनो क्षय निजरा थाय || जेहना धर्म अनंता प्रगट्या, जे निज परिणांते वारया ॥ परमातम जिन देव अमो ही, ज्ञानादिक गुण दरियारे स्वामी० ॥६॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ:-श्रास्मानो परमभाव जे ज्ञान, तदनुथायी दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य, कर्तृता, भोक्तृता, प्राहकता, व्यापकता, रक्षणता, रमणता, प्राधाराधेयता विगेरे अनंत स्वधर्मों जे अनादिकालथी कर्ममलबडे लित थएला हता-बाधक भावे परिण - मता हता, ते शुक्लध्याननी तिक्ष्ण भ्रांच घडे फर्ममल भस्म थइ जवाथी संपूर्ण प्रगट यया अर्थात् निरायाध-स्वतंत्र पणे पातपोताना कार्यभाधे परिणमवा लाग्या एटले शुद्ध परिणति रूप अनुपम लक्ष्मीने वरया-तेना स्वामी दया. तेज परमात्म जिनेश्वर देव, क्रोध मान माया लोभ मादि मोन हीय कर्मनी अठावीश प्रकृतिथी रहित तथा सानादिक गुणना दरिया अर्थात् ज्ञानादि गुणना भखूट निधान छे.. एटले जेम दरियामांथी जल खूटे नहि तेम तेमनामांथी कोइ पण काले'ज्ञानादि गुणो-पर्यायो खुटवाना-क्षीण थवाना नथी, अनंतकाल सुधी एक सरखी रीते परिणम्यांज करशे ॥६॥ अवलंबन उपदेशक रीते, श्री सामंधर देव । भजीये शुद्ध निमित्त अनोपम, तजीये Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. भव भय टेवरे स्वामी ॥ वि० ॥७॥ अर्थ-श्री सीमंधर देवमां साध्य पद पूर्ण पणे प्रगट होवाथी तेज पुष्ट-अनुपम निमित्त हेतु छे (साध्य साध्य धर्म जेमाहे होवे रे ते निमित्त . अति पुष्ट, तथा च-पुष्ट हेतु जिनेंद्रोय, माक्ष सद्भाव साधने) तथा सर्वज्ञ अने चीतराग होवा थी प्राप्तमोक्षमार्गना साषा उपदेशक तथा सर्वे प्रास्मरिद्धि संपूर्ण पणे प्राप्त होवाथी परम भाधार भव समुद्रमा वृडता भव्य प्राणीयोने जहाज समान, भवाटवीमां सथ्थवाह समान छे. न्याय, पूर्वक एम सिद्ध होवाथी तेउनी भक्ति करीये अर्थात् तेमनी धाज्ञा भापणा शिर उपर चढावीए सन्मानीये. कधु के के "आणाकारी भत्ता, आणा - छेइऊ अभत्तात्ति" माटे तेमनी माणा प्रमाणे वर्तीए. मिथ्यात, अज्ञान, कषाय, प्रमाद, अविरति रूप भयंकर भष भ्रमपनी टेषनो त्याग-परिहार फरीये ॥७॥ शुद्ध दबे अवलंबन करता, परिहरीये Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ परभाव | आतम धर्म रमण अनुभवतां, प्रगटे आतम भावरे स्वामी० ||८|| अर्थ - जे अज्ञान कषाय विषय आदि दूषणोथी भरपूर छे अर्थात् जे सर्वे द्रयना त्रिकालवर्त्ती पर्यायाने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष पणे जाणी शकता दधी, पोताना आत्म द्रव्यने पण सर्व नये प्रत्यक्ष पणे जाणता नथी तथा तेथी पोतानी आत्म विद्धि श्री परांगसुख होवाथी निरंतर जे विषय कषायने आधिन वर्त्ते छे. चाह दाहमां प्रज्वलीन भइ रह्या छे, भव समुद्रसां बूडेल के तेलां देवप केस मनाय पण जे अज्ञान यादि समरत अधर्म रूप दूषणोथी सर्वे नये मुक्त होवाथी परम निष्कलंक शुद्ध देव छे. से श्री सीमंधर स्वामीनुं शरण ग्रहण करतां पर द्रव्यनी ममता, ग्राहकता, रमपता यदि समस्त परभावनो परिहार-त्याग थाय ने ज्ञान दर्शन चारित्र, रूप शुद्धात्म भावमां रमण करतां - - सेमां तल्लीन थतां तृप्त थतां - संतुष्ट थतां तेनो स्वा दन अनुभव लेतां ज्ञानादि श्रात्म धर्म, कर्म लेपथी रहित शुद्ध प्रगट थाय ॥ ८ ॥ ܐ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आतम गुण निरमल नीपजतां, ध्यान समाधि स्वभावे ॥ पूर्णानंद सिद्धता साधी, देवचंद्र पद पावरे स्वामी० ॥ ९ ॥ - अर्थ- शुद्ध साध्य सन्मुख लक्ष राखी (यस्मात् क्रिया प्रति फळन्ति न भाव शुन्या) धने शुक्लध्यानन सेवन करता तजन्य समाधिमां लीन थतां यात्म गुण निर्मल अर्थात् मल रहित परमपवित्र थाय. एम पूर्णानंदमय सिद्ध पद साधी देवमां चंद्रमा समान अर्थात् देवाधिदेव पदने प्राप्त थइए ॥६॥ ॥अथ द्वितीय श्री युगमंधर जिन स्तवन ।। नारायनी देशी ॥ - श्री. युगमंधर विनवुरे, विनतडी अवधाररे दयालराय ॥ ए पर परिणति रंगारे, मुजने नाथ उगाररे ॥ द. श्री० ॥१॥ अर्थ-प्राणातिपात विरमण, मृषावाद विरमण. . . Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ अदत्तादान विरमण, मैथुन विरमण तथा परिग्रह संग्रह विरमण रूप पंचमहाव्रत तथा क्षांति, मार्दव, आर्यष, मुंत्ति, तप, संयम, शौच, सत्य, अकिंचन तथा ब्रह्मचर्य धादि सर्वे धर्मीमा अनुवृत्ति धरावनार अहिंसा-दया धर्म छे. जेमा सर्वे धर्मनो समा. वेश थइ जाय छे. उक्तंच-सव्वाउंांब नइउं, जह सायरंमि निवडंति । तह भग, वई अहिंसिं, सव्वे धम्मा समिल्लन्ति ॥ तथा जेने सर्व मतावलंबीउ स्विकारे छे-सन्माने के "अहिंसा परमो धर्म, हिंसा सर्वत्र गर्हिता” परन्तु जैन शिवाय अन्य मतावलंबीउ अहिंसा-दयामां घर्ती शकता नथी कारण के तेउ हिंस्य हिंसा तथा हिंसाना कारणोने यथार्थ संपूर्ण उलखता नथी. । सर्वज्ञ तीर्थंकर देव द्रव्याहिंसा तथा भावहिंसा एम हिंसाना बे प्रकार प्ररूपे छे-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय अने वनस्पतिकाय एम पंच स्थावरकायिक एकेंद्रि जीवो तथा थेंद्रिय प्रादि प्रस जीवोनां पांच इंद्रियो, मनोपल, वचनबल, कायवन, Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वासोश्वास तथा आयुप्राण ए दश द्रव्यप्राणने .मारवू, काप, छेवु, दुःखवq तथा तेनो बियोग , करवो ते द्रव्यहिंसा छे, पोताना द्रव्यप्राणनी हिंसा करवी ते स्वतव्यहिंसा भने अन्य जीवना द्रव्यप्राणनी हिंसा करवी ते परद्रव्यहिंसा छे तथा ते कायमा ममत्व करी रहेला जीवोना ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, वीर्य उपयोग विगेरे भावप्राणनो मिथ्यात. भ्रज्ञान तथा कषाय धडे घात करवो ते भावहिंसा छे अर्थात् मिथ्योपदेशादिवडे कोई जीवना दर्शन गुणनाघात करी मिथ्यास्थ रूप परिणमाववो, सम्यकज्ञानथी चूकावी प्रज्ञान रूप परिण.. माववो तथा क्षमा गुणनो घात करी क्रोध रूप परिणमावषो तथा विनय गुणनो घात करी मान रूप परिणमाववो तथा पायव (सरलता) गुपनो घात करी मायारूप परिणमाववो मुत्ति गुणनो घात करी लोभ रूप परिणमाववो, ए विगेरे तेनी शुद्ध परिणतिनो घात करी प्रशुद्ध परिणामे परिणमावचो हे भावहिंसा छे. तेमां पोताना भावप्राणनी सिंह करवी ते निजभाव हिंसा छे.भने परजीवना भाष. प्राणनी हिंसा करवी ते परजीव भावहिंसा छ भने + Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद तथा योगेनुं सेवन करवू ते हिंसानां कारणो के ते कारणो सेववाथी हिंसा थाय के कडुछे के कारण जोगे कारज निपजेरे, एहमां कोई न वादापण कारण विणु कारज साधीए रे, तेनिज मति ऊन्माद” एम स्यावाद नय युक्त जिन प्ररूपित द्रव्य हिंसा तथा भावहिंसाना स्वरूपथी अजाण तथा तेना कारणोथी अजागा मिथ्याद्रष्टी जीवो एक समय मात्र पण अहिंसाभाधमां वत्ती शकवाने असमर्थ छ तथापिं मोहमद्यमां बेभान थयेला हिमामा वतता छतां हमे दया पालीए छीए-दयालु छीए एम पोताना जीव्हाथी जल्पना तथा मनर्मा कल्पना करे छे पण तेथी शुं सांची दया पाल्या । परमोत्तम फल मोक्ष सुखने पामी शके नहि । ' पण जे स्थाबाद नय युक्त जिन प्ररूपित द्रव्य. हिंसा तथा भावहिंसाना स्वरूपर्नु तथा तेना कारपोर्नु सम्यकज्ञान धरावे बे-जे परमोत्तम फलना उत्सुक छ हिंसानु फल जे भवभ्रमण तेथी उदिन शिवाय Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयभीत छे एवा सम्पद्रष्टी जीवोज अस्मिा वर्ती शकवाने , समर्थ "(पढनं नाणं तउं. दया)" जे जे अंशे अहिंसाभावमा बर्से छे सेने सेटला अंशे च हिंसक काहिए माटे चोथा गुणस्थानथी मांडी पला उपला गुणस्थामोमा सिकदशा • य प्रमाण अधिकी अधिकी पते छे पण हे भगवत ! भाप हिंसामा सबै कारपोथी र बत्ती होबाथी सर्वोत्कृष्ट तथा सर्वदा शिक्षक भावमा वों, छो राग द्वेष रहिन छोपाथी सर्वे जीयो ऊपर एक सरखी री द्या राखोलो, तेथी सर्वे दयालु जीवोमा पाप राजा लमान शिरोमणि छो, सेथी घासराय श्री गसंषर स्वामी ! करुणा निधान तथा समर्थ जाणी आप प्रति विनंती उचारं; कारण के दयालु तथा समर्थ होय तेज सेषकनी विनंति मनोर्थने परिपूर्ण करे बाटे भुज छेवकनी विनंती करुणा भावे चित्तमा धारी-"ए परपरिणति रंगथी मुजने नाप उगार". हे नाथ! हे स्वामी ! पनादि विभाष वशे पुद्गला पर्याय जे शरीरादिक मां अपणुं मानी ऊपर सत्यंत राता करीला तीन धा ग्धो छ नशा से भारी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रादिकने प्रशस्त-हितकारी कुटुम्बी जनो मित्रवर्ग नोकर चाकर तथा धन धान्य मणि औषधी श्राधास आदि अनेक पुद्गल पर्यायोमा तथा पंचेंद्रिना अनेक मनोज्ञ विषयमा राग वशे तल्लील थइ रह्यो छ, तेने मेलववा राखवा माटे अनेक प्रयास करूं छु, अनेक विकल्प जाल रचु छु. तेनी तृष्णारूपी भागमा निरंतर प्रज्वलित थाऊं छु, लेनो वियोग थाय ते माटे भय भोगबु छं, तेना वियोगे शोक संताप श्रानंद विगेरेनो भोक्ता बर्नु छ, भने पोतानी सहज अनंत स्वतंत्र, अप्रथम् भूत स्वक्षेत्रवर्ती अधिनश्वर मुख निदान श्रात्म परिणतिथी वियोगी रहुं धुं माटे हे भक्त वत्सल प्रलु ! एची दुष्ट परपरिणतिना रंगथी मुजने हवे शीघ्रमेव उगारो॥१॥ कारक ग्राहक भोग्यतारे, में कीधी महारायरे, दयालराय ॥ पण तुज सरीखो प्रभु लहीरे, साची वात कहायरे, दया० ॥२॥ . अर्थ-सर्वे द्रव्यो अस्तित्व, घस्तुस्थ, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व भगुरुलघुत्व भने सत्त्व स्वभाषवंत होवापी पोताना गुणपर्यायोना कर्ता, ग्राहक, व्यापक Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ श्रादिपणे पोतानी सत्ताभूमिमां सर्वदा वर्ते है, तथा वली "क्षेत्र काल भावानाम् एक समुदायित्वं द्रव्यत्वम्” क्षेत्र काल भावनुं एक समुदायिपणुं ते द्रव्यत्व छे माटे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाष परस्पर अभेद छे प्रथग भूत के सैंथी कोह द्रव्य बीजा द्रव्यना क्षेत्र काल भावमां प्रवेश करवा सर्वथा असमर्थ के माटे मिश्वव नये कोह द्रव्य अन्य द्रव्यनो कारक कर्त्ता, भोक्ता, ग्राहक, व्यापक, आधार, प्राधेय विगेरे थइ. शके नहि, तथापि जीवमां अनादि विभाव स्वभाव होषाथी हुं मिथ्यात अज्ञान वशे पर परिणति - पुद्गल पर्यायो विषे फत भोक्ता, ग्राहक, व्यापक श्रादि बुद्धि करी मारी प्रात्मीक स्वतंत्र रिद्विधी वियोगी रह्यो पण हे युगमंधर स्वामी ! आपने संपूर्ण नये पोताना परिणामना कर्ता, ज्ञाता तथा तेमांज रमण करनार तथा सेनोज आस्वादन- अनुभव लेनार होथाथी साधा प्रभु जागी आप प्रति हुं मारी साधी कथा निवेदन करुं हुं ॥ २ ॥ 11 यद्यपि मूल स्वभावमेरे, पर कर्तत्त्व Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विभावरे ॥ दयालराय ॥ अस्ति धर्मजे माहरोरे, एहनो तथ्य अभावरे ॥ दयालराय ॥ श्री० ॥ ३॥ अर्थ-अनादि कालथी जो के माहरा ज्ञान दर्शन चारित्ररूप प्रास्म गुणमा परकर्तृत्वादि विभाचनो सश्लेष थयेलो के तेथी हु अनादिकालथी परतवादि विभाव रूप परिण, छं तो पण सत्ता. गते रहेला माहरा अस्तिधमां-सामान्य स्वभावमां खरखर ते विभावनो अभाव के कारण के सामान्य स्वभाव सदा लिगवरण छे; माटे जो हुँ माहरा अस्तिधर्म तरफ लक्ष आपु तेने प्रगट करवा रूचि धरूं तो निश्चय कर्मजन्य उपाधि रूप विभावनो समूल नाश करी संपूर्ण शुद्ध सुखनिधान अस्लिधर्मनो भोगी था, सादिअनंतकाल सुधी ए. अवस्थामा अवस्थित रहुं ॥ ३ ॥ ___पर परिणामिकता दशारे, लहि पर कारण योगरे, दयालराय ।। चेतनता परगत थईरे, राची पुद्गल भोग, दयालराय ॥श्री॥४॥ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा भावकर्मना उदय वशे पर परिणामिक दशाने प्राप्त थयो छु, अर्थात् पर द्रव्यना परिणामने पोतानो परिणाम मान छु एटले मन वचन अने कायानी क्रियाने श्रात्म क्रिया मानु छ तेथो मारी चेतनता पर परिणाममां व्यापी-परगत थई-पुद्गल पर्यायोने भोगववामां राची-अामक्त थई-लीन थई-त्यांज स्थित थई तेथी आत्म परिणामलो भोग लेवा अघकाश मल्यो • नहीं ॥४॥ ___ अशुद्ध निमित्त तो जड अरे, वीर्य शक्ति विहानरे ।। द० ॥ तुं तो वारज ज्ञानयारे, सुख अनंते लीनरे ॥ द०॥ श्री० ॥५॥ ___ अर्थ-पास्माने अशुद्ध परिणामे अर्थात् अज्ञान, मिथ्यात अने कषाय रूप परिणमवामां शुभाशुभ कर्मोदय वडे पुद्गल द्रव्य गुण पर्यायनो संबंध ते निमित्त छे पण ते शुभाशुभ कर्मोदय, जड-चेतनता रहित तेमज वीर्य शक्ति रहित होवाथी ते ' आत्माने अशुद्ध परिणाने परिणमाववामां पोतानी मेले कारण बनवाने असमर्थ छे, तथा कारण पद तो Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ ↑ उत्पन्न पर्याय के माटे ज्वारे कर्त्ता कार्य साधवानो रुचीवंत थइ तेने निमित्तमां वापरे त्यारे तेमां कारण 'पद उत्पन थाय छे. "ए कारका कर्तुराधिना ” जो आत्मा प्रमाद् भावमां वर्त्ते तो ते शुभाशुभ कर्मोदय अशुद्ध परिणामनु निमित्त धाय पण पोते सचेत थह पोताना शुद्ध कार्यनो कर्त्ता धाय त्यारे कारकचक्र सुलटे ने शुभाशुभ कर्मोदये अशुद्ध परिणामे परिणमे नहि तो ते पुद्गलो निमित्त पण , थइ शके नहि. जेम कुंभार घट कार्यनो रुचियान थाय नहि, तथा दंड चक्रा दिने ते घट कार्य साधवामां वापरे नहि, तो दंड चक्रादि तेवारे घट कार्यना निमित्त कहेवाय नहि. पण हुं अनादि विभाव वशे राग द्वेषे परिणमवानी द्रढ टेबधी ते पुद्गल जडमां कारण पद उत्पन्न करी अशुद्ध परिषामे परिणमुं छं, तेथी आत्मिक शुद्ध कार्य करवामां आत्म वीर्य श्रस्यंत हीन थइ रहो बुं, अर्थात् अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुखरूप अनुपम आत्म व्यक्तिथी रहित कंगाल बनी अत्यंत पराधिन, दरिद्र - दयामणि अवस्थाने भोगवुं हुं पण हे प्रभु ! तमे तो अनंत ज्ञान वीर्यना परिपूर्ण पणाथी - पूर्ण व्यक्तिथी सहजं, ' Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अकृत्रिम, स्वतंत्र, एकांतिक, अंतातीत, अव्यायाध आत्मीक सुखमां लोन-संतृप्त-निमग्न थइ रह्या छो॥ ५॥ . ‘तिण कारण निश्चय करयो रे, मुज निज परिणति भोगरे । द० । तुज सेवाथी नीपजेरे, भांजे भव भय शोगरे॥द०॥ श्री० ॥६॥ अर्थ-तेथी न्याय युक्त ज्ञानद्रष्टिथी मने एवो निश्चय थयो छ के हे भगवत ! कर्म रूप रजथी सर्वथा निलेप स्फटीक समान तमारा संपूर्ण, निर्मल पवित्र गुणोनुं सेवन करतां-भक्तिकरतामाहरी श्रास्म परिणति रुप अवाध्य अखूट स्वतंत्र पूर्णानंदमय सहज श्रात्म संपदाना भोगनी मने प्राप्ति थशे तथा. "भांजे भव भय सोग' अनादि कालथी चार गतिरूप भवसमुद्रमा अज्ञान वशे अनेक दुःसह दुःखो तथा लज्जान्य भय, शोक, संताप, आनंद विगेरे सहुं छु, तेनो सहज लीलामात्रमा नाश थशे ॥ ६॥ शुद्ध रमण आनंदता रे, ध्रुव निस्संग Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेह स्वभाव रे ॥ ५० ॥ सकल प्रदेश अमूर्ततारे, ध्यातां सिद्धि उपायरे ॥ ५० ॥ ७ ॥ अबाधित, निरावरण, शुद्ध अर्थ - अचल, परमात्म पद रमण - अनुभवजन्य आनंदने तथा पोताना ध्रुव अर्थात् पोताना द्रव्य क्षेत्र काल भावे सदा सत् (दव्वं गुण समुदाउ, खित्त' प्रोगाह वट्टा कालो । गुण पज्झाय पवत्ति भावो निवत्थु धम्मो सो) अनंत अन्वय गुणनो पिड तथा निस्संग-सकल परभाव, परिग्रहथी अतीत एवा आत्मभावने तथा अलेशी, अस्पर्शी, अगंधी अवर्णी, अरसी, अक्रोधी, श्रमावी, अमानी, लोभी, थवेदी आदि अनेक व्यतिरेक गुणना समूहरूप सकल प्रदेश श्रमूर्ति पिंड आत्म द्रव्यने सर्वे परद्रव्पनी सूर्छाथी पोतानी आत्म परिणति वारी पोतानी' आस्म भूमिमां स्थित करो - लीन कपोतानी सर्वे वीर्य शक्ति एकत्र करी एकाग्र चित्ते ध्यातां श्रमूर्त्त परमात्मपदनी सिद्धि थायध्याता ध्येयनी एकता थाय ॥ ७ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .0 .. सम्यक तत्व जे उपदिश्योरे, सुणता, तत्त्व जणायरे ॥०॥ श्रद्धा ज्ञाने जे ग्रह्योरे, तेहि न कार्य करायरें ॥द०॥ श्री० ॥८॥.... ___अर्थ-द्रव्यना सर्व पर्यायना ज्ञान विनाना एकांत वादीयो ( मिथ्या वादीयो ) (एकांते होइ मिथ्थतो) ना विडवनारूप भव भ्रमणना हेतुभूत दुनयथी परिपूर्ण अज्ञान जन्य सिद्धांतथी उपजता अज्ञानरूप अंधकारना समूहनो नाश करनार सकलनय तथा प्रत्यक्ष परोक्ष प्रमाणथी अबाधित स्याद्वाद् युक्त, अव्याप्ति अतिव्याप्ति' ताथा असंभवादि सकल दूषणो रहित जीवादि तत्वोन सत्य स्वरूप प्रतिपादन करनार जिनेश्वरना परम कल्याणकारी वचनो श्रवण मनन निधिध्यासन करतां शंसय विपर्यय अने अनध्यवसाय रहित, तत्त्व स्वरूपनु सम्यक्ज्ञान थाय अने सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान युक्त जो आस्म स्वरूप जाणीयेग्रहण करीये तोज परमात्म सिद्धिना साधक वन शकीए ज्यांसुधी पास्मद्रव्यन सम्यज्ञान सम्यक दर्शन थयु नथी त्यांमुधी पादरेलु चारित्र ते सम्यक विशेषणने प्राप्त थइ शके नहि भने सभ्यक्चारित्र Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ विना कदापि काले मोक्षनी प्राप्ति यह शके नहि. मधु छे के "विरआ सावझ्झाउं, कषाय हीणा महव्वय धरावी । सम्मदिठी विहणा, कयावि मुख्खं न पावंति” तथा “ नपगम भंग पमाणेहि, जो अप्पा सायचार्य भावेण । मुणइ मोख्ख सख्खं समादछ सो ने"॥८॥ कार्य रुची कर्ता थेयेरे कारक सवि पलटायरे ॥ द०॥ आतम गते आतम रमेरे, निज घर मंगल थायरे ॥ द०॥६॥ ...अर्थ-ज्यांमुधी जीव मिथ्यात गुणस्थाने पर्ते छे- सम्यक्दर्शननी प्राप्ति थइ नथी, त्यांसुधी मनास्म वस्तुमा प्रारमवुद्धि-अहंपणुं माने छे पर्यात् पुद्गल स्कंधोथी बनेल चैतन्यशून्य जे शरीर तेमां लोलीभूतपणे परिणमि पोतानु श्रास्म अंग माने के तथा ते शरीरने जे प्रशस्त, हितकारी पदार्थो-स्त्री धन कुटुंबादिने पोतानां हितकारी माने छे, लेऊमां रागरसे रीझे छे, संसार भ्रमण परिपाटीने वधारे छे (जो अपसत्थो रागो, वढ्ढई संसार भ्रमण परिवाडी । विसयाइसु सयणा Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसु ईठत्तं पुग्गलाईस) भने ते शरीरादिने पोता ना साध्य जाणी निरंतर तेने साधवा माटे अनेक प्रयास करे छे-तेनेज पोतार्नु कार्य जाणे के एम अज्ञान वशे पोते पर कर्तृत्व भावे परिणमे छे. तेथी कारकचक्र शुद्ध स्वभावथी विरूद्ध धाधकभावे परिण मे छे. पण यारे आत्मा योग्य कारण वडे सम्यक्ज्ञाननो लाभ पामे, अनंत परमानंदमय संपूर्ण सुखना हेतु परमात्म पद रूप पोताना शुद्ध माध्यने उलखें, न्यारे पर साध्य तरफयी अरूची थाय अने पोतार्नु शुद्ध साध्य साधवानी रूची थाय शुद्ध कार्य करवानो अभिलाषी थाय स्यारे जे कारकचक्र याधकभावे अर्थात् प्रास्माना ज्ञान दर्शन सुग्व वीर्यनी घात करवा रूप कार्य परिणमंतु हतुं ते साधक भावे एटले शुद्ध ज्ञान दर्शन सुख वीर्य साधवा रूप परिणमे एटले श्रात्म पोताना शुद्ध परिणामे वर्ते-तेमां रमण करे-त्यांज स्थित थाय एम थतां प्रास्माना सर्व प्रदेशे मंगल थाय अर्थात् कर्म रूप रज गली जाय-अत्यंत सुख निधाननो लाभ थाय ॥९॥ त्राण शरण आधार छोरे, प्रभुजी भव्य सहायरे ॥ द० ॥ देवचंद्र पद नीपजेरे, जिन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदक्रज,सुपसायरे द० ॥ श्री० १०॥ अर्थ-हे प्रभुजी ! आँप ' चार गति रूप भव ब्रमणना दुःखंथी त्राण अर्थात् रक्षण करनार तथा महान् दुःखदायी ज्ञानावरणादि प्रचंड अष्ट कर्म शत्रउंथी डरता भव्य प्राणीउने शरण छो तथा भय समुद्रमा वृडता भव्य प्राणीउने हस्तावलंबन रूप छो तथा भव्य जीवोने मोक्षलक्ष्मी वरवामां परम सहायभूत छो, 'तेथी हे गुण सागर अापना निर्मल चरण कमलना पसायथी देवमां चंद्रमा समान परमात्म पदनी प्राप्ति थाय ए निर्विवाद छे ॥१०॥ (संपूर्ण) ॥ अथ तृतीय श्री वाहुजिन स्तवनं ॥ संभव जिन अवधारीये ॥ ए देशी ।। बाहुजिणंद दयामयी, वर्तमान भगवान प्रभुजी ॥ महाविदेहे बिचरता, केवल ज्ञान निधान ॥ प्रभुजी ।। वा० ॥१॥ ____अर्थ-महाविदेह क्षेत्रमा विहरमान वर्तमान भगवान, सडण पडण विवंसन धर्म युक्त पौद्गलीक शरीरथी अत्यंत विलक्षण महान् प्रास्म सत्ता Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूमिमां (अर्थात् जे भूमिमां अन्य कोइ पण द्रव्यंनो प्रवेश थइ शके तेम नथी तेथी बीलकुल संकडाश वगरनी परम रमणीय स्वतंत्र एवी श्रात्म सत्ताभूमिमा) निरंतर पोताना पर्यायोमा परिणमता पोताना गुण पर्यायो सहित सदा सत् लक्षणवंत होवाथी वर्तमान, आत्मीक भविचल अखंड लक्ष्मीनां स्वामी होवाथी भगवान, सामान्य केवलीअोमां इंद्र समान हे श्री बाहुस्वामी ! श्राप सर्व प्रदेशे सर्व काले सर्व भावे दयामयी छो अर्थात् आपना सर्व प्रदेशथी हिंसाना हेतुनो अभाव थयलो छे तथा हवे ते हेतुनो समूल क्षय होवाथी कोइ पण काले हिंसकभावे परिणमनार नथी तथा ज्ञानादि सर्वे धर्मो सर्वे नये पूर्ण पवित्र थया के तेथी कोइ पण भाव हिंसकभावे परिणमे तेम नथी. तेथी __ आप सर्वांगे सर्वोत्कृष्ठ अनुपम दयाना भंडार छो तथा जे ज्ञानमां जीवाजीव सर्वे द्रव्यो पोताना त्रिकालवर्ती सर्वे पर्यायो सहित प्रत्यक्षपणे भासे छे उक्तंच तत्त्वार्थे- (सर्वे द्रव्य पर्यायसु केवलस्य) एहवा केवलज्ञानना निधान के अखूट खाण . छो. कारण के द्रव्य ते गुण पर्यायन भाजन छे, छत्तीपर्याय तथा सामथ्यपर्यायनो माधार छे तेथी Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को पण काले द्रव्य ते पर्यायथी हीण क्षीण धाय नहि. कारण के तीरोभावे रहेला पर्यायो श्रावी वे थाय छे अने ते पाछा तीरोभूत थाय छे एम परावर्त चके परिणमे छे. उक्तंच- संमत्ति ग्रंथे-"दव्वं पजाय विउत्रं, दब वियुत्ताय पजाया नच्छि उप्पायव्यय गंगाइ दविय लरकण एयं” तथाच पंचास्तिकाय समयसारे-“दव्वं सल्लरकणियं, उप्पादब्वय धुवत्त संजुत्त । गुण पन्जाया सर्य वा, जं तं भस्मंति सव्वण्हु” ॥१॥ द्रव्यथकी छकायने न हणे जेह लगार ॥ प्रभुजी ॥ भावदया परिणामनो, एहिज छे व्यवहार ॥ प्रभुजी ।। बा० ॥२॥ अर्थ-पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस्काय, वायुकाय वनस्पतिकाय अने त्रसकाय ए छ कायना जीवना द्रव्यप्राणने हावाहणाववा तथा हणतानी अनुमोदना करवी ए द्रव्यहिंसा छे ते द्रव्यहिसामां भावहिंसाना कारणनी भजना छे. तेथी भावहिंसानो स्थागी द्रव्याहिंसा प्रादरे नहि-थवा दे नहि-सावचेत पणे वत्त-समिति पूर्वक वर्ते अर्थात् Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकायना जीयोनी द्रग्यहिंसानो त्याग करवो ते __ भाव दयानो तथा भावदयाना परिणामीनो व्यवहार थे.द्रव्यअहिंसा ते भावअहिंसानो व्यवहार-कारण थे ॥२॥ रूप अनुत्तर देवथी, अनंतगुणु अभिराम ॥ प्रभुजी ॥ जोता पण जग जंतुने न वधे विषय विराम ॥ प्रभुजी ॥ बा०॥३॥ ___ अर्थ-सर्वे जीवोने आ संसार जन्य जन्म जरा मरणादि रूप भयंकर दुःखथी छोडावी रत्नत्रय पमाडी अनंत भास्मीक परमानंदना भोक्ता करूं एवी उस्कृष्ट भावदयाना योगे अत्यंत तीब्र शुभ परिणाम वडे-सर्वोत्कृष्ट पुण्यानुषंधी पुण्यना उदये हे याहु जिनद्र! आपनु रूप लावण्य कांति, विजय विजयंत जयंत श्रपराजीत अने सर्वार्थसिद्ध । विमानवासी देवो करतां पण अनंतगुणुं अभिराम, अतिशययुक्त, सर्वोपरी, मनोहर, रमणीय, श्राहवादकारी छे. उक्तंच-जाकी देहदुतिसो दसौ दिशा पवित्र भई; जाके तेज आगे सव तेजवंत रुके है । जाको रूप निरखी थकित महा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूपवत; जाकी वपुवाससो सुवास और लुके है।जाको दिव्य धुनो सुनि श्रवनको सुख होत जाके तन लच्छन अनेक प्राइ टुके है। तेइ जिनराज जाके कहे विवहार गुन, निहवे निरखि शुद्ध चेतनसों चुके है॥” एवं अत्यंत देदिप्यमान अनुपम औदारिक आपनुं मनोहर रूप जोतां-निरखता छतां पण विषयातुरताने अवकाश __ मलतो नथी परंतु श्रापनी शांत, दांत, गंभीर अने निश्चल मुद्रानुं दर्शन पामी विषयोथी उपशान्त चित्त थाय छे ॥ ३ ॥ ____कर्म- उदय जिनराजनो; भविजन धर्म सहाय, ॥ प्रभुजो ॥ नामादिक संभारतां, मिथ्या दोष विलाय ॥ प्रभुजी ।। बा० ॥४॥ '. अर्थ- “सवि जीव करु शासन रसी; इसि भाव दया मन उल्लसी” एहया अत्यंत तीव्र शुभ बाग युक्त, भावद्याना परिणाम बड़े बंधायला तीर्थकर नामकर्मना उदय वड़े हे त्रिलोक - पूज्य ! श्रा पारावार, दुःखनिधान संसार समुद्रमा बूढ़ता भव्य प्राणियोनो उद्धार करवा माटे सर्वे दूषणों Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहित अने पांत्रीश गुण सहित, नय निक्षेप पक्ष प्रमाण युक्त जीवा जीवादि तत्त्वनो सम्यक प्रकारे उपदेश प्रापो छो ए श्रापनो कमें उदय निर्विवाद् पणे "भवि जन धर्म सहाय” अनादि कालथी ज्ञानावरणादि कर्म रज बडे मलिन थएला-लिस थएला भव्य जीवोना भास्म धर्मने एवंभूत नये प्राप्त थवा सहाय-निमित्तभत छे. तथा हे तीर्थनाथ ! प्रापना नामादिक चार निक्षेप संभारतस्मरण करतां-लक्षमां लेतां मिथ्यास्वादि दुष्ट दोषोनो तत्काल अत्यंत प्रभाव थाय. “ तीर्थसंसार निस्तरणो-पायं करातीति तीर्थकृत्" इति वचनात्. जन्म मरण रूप संसार सागरथी तरी जवानो उपाय जे सम्यगदर्शन ज्ञान चारित्र ते तीर्थ छे. उक्तंच तत्वार्थ सूत्रे " (सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्ष मार्गः)" ते रस्नत्रयरूप तीर्थने भव्य जीवोना हृदयमा स्थापन करनार पुष्ट निमित्त होवाथी श्राप तीर्थकर नामने संप्राप्त छो. तथा अापना निर्मल असंख्यात् आत्म प्रदेशमा ते रत्नत्रय भरपूर अभेद्य पणे वसी रह्यां छे ते स्थापनानिक्षेपो. तथा मापनो धास्म द्रव्य ते Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ ज्ञान दशन चारित्र रूप भावनु सर्वदा कारण के से द्रव्यनिक्षेपो. अने घातीकर्मना क्षयथी अनंत चतुष्टय अनंत शुद्ध पर्याय पणे प्रगट्या ते अापनो भाव ते भावनिक्षेपो. एम श्रापना चार निक्षेप आपथी तन्मय पणे एक क्षेत्रे रया छे. उक्तंच" इह भावोचिय वच्छु, तप सुनेहिं किंच सेसेहि, नामादयो विभावा, जं ते विहु वच्छु पजाया ” तथा वली-'अहवा बच्छुभिहाणं णामं ठवणाय जो तयागारो । कारणयासे दव्वं, कज्जय वन्न तयं भावो ॥ अने श्राप पण जीव द्रव्य छो अने हुँ पण जीव द्रव्य छ माटे स्व जाती छु तेथी प्रापर्नु स्वरूप यथार्थ पणे जाणतां माहरूं स्वरूप पण यथार्थ जणाय जो जाणइ अरिहंतं, दव्य गुण पजवतेहिं । सो जणाइ अप्पाणं, मोहो खलु जाइ तस्स लयं ” अने पोताना आत्म स्वरूपनी प्राप्ति थतां मिथ्यास्व अज्ञान आदि दोषो तत्काल विलयमान थाय, कर्म: बंधनो नाश थाय, मोक्ष पदवीनी प्राप्ति थाय. उक्तंच-" दर्शन मात्म विनिश्चित, रात्म परि Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ३५ ज्ञान मिष्यते बोध । स्थिति रात्मनि चारित्र कुत एतेभ्यो भवति वन्धः ॥ " तथा "योगात प्रदेश बन्धः स्थिति बन्धो भवति तू कषायात् । दर्शन बोध चरित्र, न योग रूपं कषाय रूपं च ॥” ॥ ४ ॥ तम गुण विराधना, भाव दया भंडार ॥ प्रभुजी ॥ क्षायिक गुण पर्याय में, नवि पर धर्म प्रचार || प्रभुजी | बा० ॥५॥ अर्थ - ज्ञान दर्शन चारित्रादि अनंत आत्म गुणो ते भावप्राण छे भने ते भावप्राणनो विषय कषायादिके घात करवो ते भावहिंसां छे. अने ते भावप्राणं समिति गुप्ति आदि संवर वडे रक्षण करवुं घात न थाय एम अप्रमत्त भावम वर्त्ततुं ते भावया छे. ते भावदद्याना आप भंडार - निधान छो. कारण के भावप्राणना घातक मिथ्यास्वादि दुष्ट हेतुनो आपना आत्म प्रदेशमधी संवदा नाश थयो छे, क्षायिक लब्धिने पाम्या छो. तेथी अपनी सत्ताभूमिमां मिथ्यात्वादि दोषोनो रंच - t 1 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मात्र पण प्रवेश-प्रचार थई शके तेम नथी अने तेथी श्रापमा भावहिंसानों बिलकुल अभाव छे तेथी श्राप निर्विवाद पणे भावदयाना भंडार छो॥ ५ ॥ गुण गुण परिणति परिणमे, बाधक भाव विहीन ॥ प्रभु०॥ द्रव्य प्रसंगी अन्यनो, शुद्ध अहिंक पीन ॥ प्रभुजी॥ बा०॥६॥ ' अर्थ-आपनो आत्म द्रव्य ज्ञान दर्शन चारित्र दान लाभ भोग उपभोगादि अनंत गुणनो पिंड छ (दव्वं गुण (समुदाओ) ते सर्वे गुणो वाधकभाव रहित पोताना शुद्ध परिणामे परिणमे के कारण के "सव सपज्जवा गुणा, अपज्जबे जाणणा नच्छि” पण ते गुणो जो वाधकभावे एटले ज्ञान अज्ञानपणे, दर्शन प्रदर्शनपणे, चारित्र मिथ्याचरण रूप एम परिणमे तो प्रात्म स्वगुणनो रोध करे-शुभाशुभ कर्मबंध करे-श्रात्मीक सहज अबाधित सुखनी हाणी करे " (सायासाय दुःखं, तविरहमि य सुहं जउत्तेण । देहिं. दियेसु दुःस्कं, सुख्खं दहिदिया भावो)" Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ पण, पापना सर्वे गुणो अबाधकभावे परिणमे छे तेथी प्रास्म अनंत गुणना आनंदना भोक्ता छे, ज्यांसुधी प्रास्मा बाधकभावे परिणमे स्यांमुधी अशुद्ध छे पण ज्यारे सर्वे परद्रव्यना राग-संग रहित वर्ते त्यारे शुद्ध छे, अहिसक छे, कर्मबंधनो अकर्ता छे तथा पोताना अनंत श्रास्म वीर्य वडे पुष्ट छे. उक्तंच " परदव्व रऊं वज्झइ; विरउ मुचेइ मठ कम्मेहिएसो जिन उवएसोः समासउं बंध मोख्खस्स" ॥ ६ ॥ क्षेने सर्व प्रदेशमें; नहिं परभाव प्रसंग ॥ प्रभुजी ॥ अतनु अयोगी भावथी; अवगाहना अभंग ॥ प्र०॥ वा०॥७॥ .. अर्थ-जेम मोनु खाणमां पथ्थर माटी विगेरे भनेक कुधातुउंथी मलेर्नु होय छे पण ज्यारे योग्य युक्ति वडे तेने सर्वथा जूडं पाडी गाली शुद्ध सोनुं करी लइए त्यार पछी ते सोनाने काट लागी शके नहि. . . तेमज अनादिकालथी प्रास्म प्रदेशे लागेला ज्ञानावरणादि कर्मनो श्रापे शुक्लध्यान रूप अग्नि Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ वडे सर्वथा नाश को छे, सर्वे प्रदेशे शुद्ध निर्मल परम पवित्र थया छो लेथी श्रापना कोइ पण प्रदेशे परभाव-नाग द्वेषादिनो विषय कषायादिनो रंच मात्र पण संश्लेष नथी, थवानो संभव पण नथी. ज्यांमुधी भास्मा औदारिकादि शरीरमा तेमज मन वचन काय योगमां ममत्व करी वसे छे तेथी ते चल पुद्गल योगे प्रात्म प्रदेश सकंप थाय के पण ज्यारे सर्वथा नेनुं ममत्व त्याग करे स्यारे शुद्धात्म भावे अरूपी झायक स्वरूप प्रगटे. उक्तंच आचारांगे-ले णदीहे ण हस्ते ण वट्टे ण तसे ण चउरसे ण परिमंडले ण किन्हे ण णीले ण लोहिए ण हालिद्दे ण सुकिल्ले ण सुरहिगंधे ___ण दुरहिमंधे ण तित्ते ण कडुए ण कसाये ण अविले ण महुरे ण कख्खड ण मनुए ण गुरुए ण लहुए ण सीए ण उपदे ण णिध्धे ण लुख्ख ण काऊ णं रूहे ण संगण इत्थी ण पुरिसे ण अन्नहा परिणे सपणे उवमा ण विजाए अरूवी सत्ता अपथस्स पयं णश्थि से ण सद्दे ण रूवे ण गरेण रसे ण फासे Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इच्चेतावात तिमि” एम अतनु भयोगी श्रास्म अंग प्रात्म भावमा स्थिर थाय स्यारे कोइ पण मात्म प्रदेश रंच मात्र पण सचल थाय नहि. अभंग अवगाहनाने प्राप्त थाय. ॥७॥ उत्पाद व्यय ध्रुव पणे, सहेजे परिणति थाय ॥ प्रभुजी- ॥ छेदन योजनता नहि, वस्तु स्वभाव समाय ॥ प्रभु० ॥ बा०॥८॥ अर्थ-स्वभाव भावे परिणमवामां अन्य द्रव्यनी सहाय जोइति नथी. जेम अग्नि सहजे दाहकभावे परिणमे छे तेम सर्वे द्रव्यो उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्त सदाकाल होवाथी सहजे पोताना स्वभाव पर्यायमां परिणमे. अन्य द्रव्यनी मदद जोइए नहि. उक्तंच दवियदि गच्छदि ताई, सब्भाव पज्जयइंजं; दवियं तं भणते अणणभूदं तु सत्तादो” वस्तुने सहजे परिणमवामां कंइ पण दूर करवानी तथा कंइ पण संयोग करपानी भावश्यकता नथी कारण के द्रव्य तथा पर्यायनो अभेद भाव छे. जेम अग्निने दाहक परिणाम षगरनी तथा अग्नि वगर दाहक परिणामने भापणे Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० कदापी काले जोता नथी अर्थात् अग्निने ज्यारे जोइए त्यारे दाहक परिणाम सहितज होय छे तेम सर्वे द्रव्य सदाकाल पोताना परिणामे वसंताज होय छे. परिणाम वगरे द्रव्य अभाव-शून्यपणाने पामे. उक्तंच-पज्जय विजुदंदचं दव विजुदाय पज्जयाणच्छि दोण्हं अणाणभूदं; भावं समणा परूविति ॥" वर्तमान पर्यायनो व्यय थाय अने नूतन पर्यायनो उत्पाद् थाय तो पण द्रव्यार्थिक नये द्रव्य सदा ध्रुव छे. जेम सोनानु कडु भांगी मुकुट वनावीए तेमां कडानो नाश अने मुकुटनो उत्पाद् थता छतां पण सोनुं द्रव्य सदा ध्रुव छे. उक्तंच-" भावस्त थिणासो, पश्थि अभावस्स चेव उप्पादो । गुण पज्जयसु भावा, उप्पाद वये पकुव्वति ।” ॥८॥ गुण पर्याय अनंतता, कारक परिणति तेम ॥ प्रभुजी ॥ निज निज परिणति परिणमे, भाव अहिंसक एम ॥ प्रभुजी.॥ बा० ॥६॥ अर्थ-ज्ञान ते सम्यक्ज्ञान रूप, दर्शन ते Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ सम्यक्दर्शन रूप, चारित्र ते स्वभावाचरण रूप - एम ज्ञानानुयायी अपना अनंत गुणो पोताना शुद्ध परिणामे परिणमे के कारण के आप कारक चक्र ते शुद्ध अबाधक पणे सदा परिणमे छे (१) स्वधर्म कर्त्ता ते कर्त्ताप (२) स्वधर्म परिणाम ते कार्य (३) स्वधर्मानुयायी चेतना शक्ति ते करण (४) साध्य गुण शक्तिनुं प्रभवु ते संप्रदान (५) पूर्व पर्यायनुं निवर्त्तन ले अपादान (६) स्वगुणनो आधार श्रम सत्ताभूमि ते अधिकरण-एम गुण पर्यायनी तथा कारक परिणतिनी अनंतता घे तेथी कोइ पण आत्म धर्मने विराधक पणे रंघ मात्र समय मात्र पण परिणमता नथी तेथी आप सदा अहिंसक नामनुं सर्वोत्कृष्ठ बिरुद्ध धरावो छो ॥ ९ ॥ एम अहिंसकता मर्या, दीठो तुं जिनराज ॥ प्र० ॥ रक्षक निज पर जीवोनो, तारण तरण जिहान ॥ प्र० वा० ॥१०॥ अर्थ:- एम स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्रापर्नु रक्षण करनार तथा श्रगाध कषाय रूप जलथी भरेला संसार समुद्रमांथी तारण तरण जहाज रूप हे जिनेश्वर ! हे करुणा निधान ! या जगत् त्रयमां मां सर्वांगे दयामय में आपनेज जोया ॥ १० ॥ f Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परमातम परमेसरु, भाव दया दातार ॥ प्रभुजी ॥ सेवो ध्यावो एहने, देवचंद्र सुखकार || प्रभुजी० ॥ वा० ॥ ११ ॥ अर्थ:- आत्मानो परमभाष जे ज्ञान तेनी शुद्धता तथा संपूणताने सर्वे नये प्राप्त थयेला होवाथी परमात्मा तथा अनंत अविनश्वर स्वाधीन परमानद मय शुद्धात्म ऐश्वयताने प्राप्त धरला होवाथी परमेश्वर, अने भावया रूप जे परमधर्म ( आत्म गुण रक्षणा तेह धर्म, स्वगुण विद्वंसना ते अधर्म ) तेना उपदेष्टा, दातार तथा भव भ्रमण जन्य शारीरिक तथा मानसिक दुःखनो अत्यंत अंत करी सहज परमोत्कृष्ट श्रात्मीक सुखना दातार त्रिलोक पूज्य श्री बाहुजिनेश्वरने सेवो, ध्यावो, तेमना गुणनुं ध्यान करो, तेथी एकाग्र चित्त करो, एम श्री देवचंद्र मुनि मित्र भावना वडे भव्य जीवोप्रति हित शिक्षा आपे छे ॥ ११ ॥ ( संपूर्ण ) " ४२ ↓ ॥ अथ चतुर्थ श्री सुबाहुजिन स्तवनं ॥ ॥ माहरो व्हालो ब्रह्मचारी ।। ए देशी || Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुबाहुजिन अंतर जामी, मुज मननो विशरामी रे ।। प्रभु० ॥ आतम धर्म तणो आरामी, पर परिणति निःकामी रे ॥ प्रभु अंतरजामी ॥ श्री० ॥१॥ अर्थ:-शुद्ध अने तिक्षण उपयोगमां परम स्थिरता एकाग्रता धारण करी राग द्वेष रूप महान् शत्रुउंने जीतेला हे श्री सुबाहु स्वामी! केवलज्ञान दर्शन उपयोग वडे मारा तेमज सर्वे द्रव्योना अंतर्गत भावने 'द्रियादिकनी सहाय विना प्रत्यक्ष जाणवा देखवावाला तथा सर्वदा परम संवरमां लीन होवाथी अंतर्यामी छो. _ स्त्री पुत्र मित्रादि परिजनो तथा धन धान्य हिरण्य क्षेत्रादि परद्रव्यना मनोज्ञ पर्यायोने पि" सुख हेतु जाणता नथी परंतु तेउने जलना बुबुद्वत् तथा बिजलीना चमत्कारवत् क्षणीक, पराधीन मतृप्तिना हेतु, तथा भात्म धर्म रोधक राग द्वेषना निमित्त, संसार परिभ्रमणना निमित्त साक्षात् पणे जाणो छो माटे ते विषयोनी धापने कामना केम थाय ? कदापि न थाय; तथी आप सदा नि:कामी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ साहिब मलियो, तिणे सवि भवभय टलियो रे || प्रभु अंतरजामी ॥ ३ ॥ अर्थ- जो के हुं मोहादि वडे ठगायो, परपरि - तिमां तल्लीन थइ रह्यो, पण हवे तमारा जेवा साहेबनी वाणी सांभली मने प्रतित थवाथी मारो सर्वे भवभय दूर थयो, जो के मोह श्रज्ञान मिथ्यात्यादि दुष्टोए मने वश करी मारी ज्ञानादि संपदा ठगी लोधी छे, माहरा सहज अनुपम सुख भोगथी मने वियोगी कर्पो छे, तथी हुं ते दुष्टोना वशमां पडी अत्यंत कंगाल अवस्थाने भोगवुं छु. 1 परपर्याय - शरीर स्वजन परिजन तथा धन धान्यादिमां अहं ममत्त्व करी तेनेज सुख तथा सुख हेतु जाणी तेनीज इच्छा कामना करो जैम खींचडामां वसतो कीडो लीमडाना रमनेज मधुर मानी तेमां तल्लीन रहे छे, त्यांथी निकलवा चाहातो नथी, तेम हुं तेमां तल्लीन थई रह्यो, तेथी विरत थयो नहि, पण हवे हे करूणानिधे ! सर्वज्ञ भने वीतराग आप जेवा समर्थ स्वामीनी मने प्राप्ति थई - आपन दर्शन पाम्यो तेथी अनंत रोग शोक भय क्रोध मान माया लोभ अरति आदि के भरेला भव समुद्रमां भ्रमण करंवानो भय दूर थयो. कारण 1 Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ते भव भ्रमणनी हवे अवधि प्रावी. उक्तंच__ "अंतो मुहत्त मित्तपि फासि हझ जेहिं सम्मत्तं, तसि अबढ पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो" ॥ ३॥ ___ ध्येय स्वभावे प्रभु अवधारी; दुांता परिणति वारी रे ॥१०॥ भासन वीर्य एकता कारी; ध्यान सहज संभारी रे ॥ प्र० ॥ श्री० ॥४॥ ___ ध्याता ध्येय समाधि अभेदे; पर परिणति विछेदे रे ॥ प्र०॥ ध्याता साधक भाव उछेदे, ध्येय सिद्धता वेदे रे ॥प्र॥ श्री० ॥ ५॥ . अर्थ:-प्रभुपदने पोतान शुद्ध ध्येय जाणी पोताना हृद्यमां स्थापना करी, दुर्ध्यान रूप परिस्मतिने निवारी, पोताना ज्ञान वीर्यनी संपूर्ण एकता अभेदता करनारूं सहज प्रात्म ध्यान संभारे; तथी पर परिणतिनो समूल विच्छेद थाय, त्यारे ध्याता ध्येय समाधिमां तल्लीन थाय भने ध्येयं पदनी सिद्धि प्राप्तिने वेदे भोगवे. त्यारे ध्यातामांधी Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छो. जे मुग्द प्राणीउ ते विषयोने सुख हेतु जाणे तेने नेनी कामना थाय अने तेज तनी चाहरूप दाहमा प्रवेश करी पोताना आत्म भोगने दग्ध करे पण श्राप तो केवल सम्यक्ज्ञानी होवाथी शुभाशुभ-शाता अशाता बनेना उद्यने श्रात्मगुणना रोधक होबाथी दुःख रूपज जुउछो तथी आपने , तनी कासनानो बिलकुल संभव नथी, निरंतर निष्कामी छो. तथा शुद्धात्म ज्ञान दर्शन चारित्र गुणने स्वाधीन अविनश्वर तथा परमानंदना हेतु जापी निरंतर तमांज रमण करवावाला तथा तेनाज भोगमां परम संतुष्ट छो. एवी आपनी परमोत्कृष्ट अवस्था जोइ ते पद साधवानी मने रूची थइ तथा ते पद साधवानो समीचीन मार्ग पण चापे बतायो तथो खरेखर मारा मनने परम विश्रामना हेतु प्रापजछो. ॥ १ ॥ केवलज्ञान अनंत प्रकाशी, भविजन कमल विकाशी रे॥प्र० ॥ चितानंदघन तत्त्व विलासी, शुद्ध स्वरूप निवासी रे ॥प्र०॥ श्री० ॥२॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अर्थ- अनंत केवलज्ञान रूप सूर्यनो प्रकाश करी भव्य जीवोना हृदयकमलने किश्वर करनार ज्ञाना. नंदना समूह आत्म तत्त्वमा विलास करनार तथा तेज शुद्ध स्वरूपमां निवास करनार छो. ___ अनादि कालथी ज्ञानावरणादि कर्मवडे आच्छादित थयेला अनंत केवलज्ञान रूप जलहलाटमान अद्वितीय स्सूर्यने, कर्म पडलनो नाश करी संपूर्णपणे प्रकाशमान करी अज्ञानरूप अंधकार बडे श्रावृत धएला भव्य जीवोना हृदयकमलने ज्ञानकिरणो वडे परम प्रफुल्लित करनार छो. रूप रस गंध स्पर्शादि परद्रव्यना पर्यायनो भोग, रमण, प्रास्वाद, सूर्या, कामना विगेरेनो ससूख नाश करी राग-द्वेषादि विभावको परिहार करी पोताना सहज अविनश्वर ज्ञानसमूह आत्म तत्त्वमा विलास करनार अर्थात् तेना भोगमा निमग्न छो. तेज शुद्धामस्म स्वरूपमा सदा निवास करो छो अर्थात् आपनो उपयोग त्यांथी समय मात्र पण चलतो नथी-परद्रव्यादि तरफ जतो नथी ॥२॥ यद्यपि हूं मोहादिके छलियो, पर परिणसिशु भलियो रे। प्र०॥ हवे तुज सम मुज Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहिब मलियो, तिणे सवि भवभय टलियो रे ॥ प्रभु अंतरजामी ॥ ३ ॥ ___ 'अर्थ-जो के हुं मोहादि वडे ठगायो, परपरिणतिमा तल्लीन धइ रह्यो, पण हवे तमारा जेवा साहेचली वाणी सांभली मने प्रतित थवाथी मारो सर्वे भवभय दूर थयो. जो के मोह अज्ञान मिथ्यात्वादि दुष्टोए मने वश करी मारी ज्ञानादि संपदा ठगी लीधी छे, माहरा सहज अनुपम सुख भोगथी मने वियोगी कर्यो छे, तेथी हुं ते दुष्टोना वशमां पडी अत्यंत कंगाल अवस्थाने भोगq छु. परपर्याय शरीर स्वजन परिजन तथा धन घान्यादिमां अहं ममत्त्व करी तेनेज सुख तथा सुख हेतु जाणी तेनीज इच्छा कामना करी जेम लीवडामा वसतो कीडो लीमडाना रमनेज मधुर मानी तेमां तल्लीन रहे थे, त्यांथी निकलवा चाहातो नधी, तेम हुं तेमां तल्लीन थई रह्यो, तेथी विरत थयो नहिं, पण हवे हे करूणानिधे ! सर्वज्ञ भने वीतराग पाप जेवा समर्थ स्वामीनी मने प्राप्ति थहे--अापनु दर्शन पाम्यो तेथी अनंत रोग शोक भय क्रोध मान माया लोभ परति आदि के भरेला भव समुद्रमा भ्रमण करवानो भय दूर थयो. कारण Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के ते भव भ्रमणनी हवे अवधि आधी. उक्तंच"अंतो मुहुत्त मित्तंपि फासिझं हुझ जेहिं सम्मत्तं, तेसि भवढ्ढ पुग्गल, परिअटो चेव संसारो" ॥३॥ __ ध्येय स्वभावे प्रभु अवधारी; दुल्ता परिणति वारी रे ॥प्र०॥ भासन वीर्य एकता कारी; ध्यान सहज संभारी रे ॥ प्र० ॥ श्री० ॥ ४॥ ध्याता ध्येय समाधि अभेदे पर परिणति विछेदे रे ॥प्र०॥ ध्याता साधक भाव उच्छेदे, ध्येय सिद्धता वेदे रे ॥प्र॥ श्री० ॥ ५॥ . अर्थ:-प्रभुपदने पोतान शुद्ध ध्येय जाणी पोताना हृद्यमा स्थापना करी, दुर्ध्यान रूप परिसतिने निवारी, पोताना ज्ञान वीर्यनी संपूर्ण एकता अभेदता करनारू सहज प्रात्म ध्यान संभारे; तथी पर परिणतिनो समूल विच्छेद थाय, त्यारे ध्याता ध्येय समाधिमां तल्लीन थाय अने ध्येयं पदनी सिद्धि प्राप्तिने वेदे-भोगवे. स्यारे ध्यातामांधी Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधकपद दूर थाय. ज्ञानावरणादि सकल कर्मना संबंधथी सर्वथा मुक्त केवलज्ञान दर्शन धारिन वीर्यमय सहज आत्म गुणना समूह रूप श्री सुषालु स्वामीना परमात्म पदने शद्ध ध्येय (ध्यावया लायक वस्तु) धारी--ज्ञान पूर्वक निश्चय फरी, जन्म जरा मरण रूप संसार भ्रमणना हेतु भूत, शुद्ध परिणतिथी विमुख पात रौद्र परिणाम घारे दूर करे, (कारण के ज्यांसुधी दुर्ध्यान एरिणाम वर्ते त्यांसुधी शुद्ध ध्यानने अवकाश मले नहि जेम तलीन वस्न ऊपर केशरनो रंग लागे नहि अने पर परिणामानुगत थयेला पोताना प्रात्म वीर्यने समेटी मात्र शुद्ध ज्ञान दर्शन चारित्र परिणाममां भास्म वीर्यने एकत्र तल्लीन करे-अभेद करे एबुं सहज भास्ल ध्यान आदरे, जेथी ध्येय समाधि अर्थात् शुद्धात्म अनुभव रूप निर्विकल्प निराकुल निरूपचरित स्वतंत्र परम समाधिमां मग्न-तल्लीन थाय; ते बारे आत्म परिणति मनोझ अमनोज्ञ कोइ पण पर . . द्रव्यमां राग मेष रूप अशुद्ध परिणामे वः (गमन करे) नहि, ते वारे ध्येय पदनी अर्थात् शुद्ध परमास्म पद्नी सिद्धि थाय. तेना अथवा अनंत भोग Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ ___ उपभोगनो स्वामी थाय. उक्तंच-एको मोक्ष पथो. य एष नियतो, द्रज्ञप्ति वृत्त्यात्मक; स्तव स्थिति मेति यस्तमनिशं, ध्यायेच्चतं चेतसि, तस्मिन्नैव निरंतरं विहरति द्रव्यान्तराण्य स्पृशन् । लोवश्यं सम्यस्य सार मचिरान्नित्योदयं विन्दति । अर्थ:-सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्रात्मक मोक्ष मार्गमा जे पुरुष स्थित थाय छे, तेनेज जे निरंतर ध्यावे के वली तेनेज जाणे, छे तेनेज अनुभवे छे वली तेनाज विषे विहार करे छे-प्रवत्तें छे पण अन्य द्रव्यमा रंच मात्र स्पर्श करतो नथी ते अल्प कालमां नित्योदय परमात्म पदने पामे छे त्यारे ध्यातामांथी साधक भावनो उच्छेद थाय छे; कारण के ध्येयनी संपूर्ण सिद्धि थया पछी साधवान कंड थाकी रह्यं नथी. ज्यांमुधी कंइ साधवान बाकी होय स्यांसुधी साधक भाव कहेवाय जेम (कारण पद उत्पन्न, कार्य थये न लह्योग). ॥ ॥५॥ द्रव्य क्रिया साधन विधि याची, जे जिन आगम वाची रे॥३०॥परिणति वृत्ति विभाव . . Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राबी, तिण नवि थाये साची रे॥ प्र०॥ श्री० ॥६॥ अर्थः-शुद्ध ध्येय जे परमात्म-मोक्ष पद नेनुं यथार्थ स्वरूप श्रद्धान पूर्वक में न जाण्यु तथा साध्य सापेक्ष आचरणा न श्रादरी त्यांसुधी माहरी • चित्त वृत्ति विभावमा राची रही अर्थात् श्रा लोक संबंधी पंच इंद्रियोना मनोज्ञ भोग्य पदार्थों तथा परलोक संबंधी स्वर्गादिना भोगमा अाशक्त रहीतेनी मनोकामना रही तेथी श्रापना सत्य प्रमाणिक आगममां बतावेली समिति गुप्ति परिषह सहन तथा चारित्र तप नियमादि परमात्म पदनी साधन भूत द्रव्य क्रियाउं पण विष गरल अने अन्योन्य अनुष्टान रूप होवाथी परमार्थ-मोक्ष पदने श्रापवा समर्थ थई नहि. ज्यांसुधी सम्यग्ज्ञानमी प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी सर्वे क्रिया शुद्ध भाव विनानी अशुद्ध विष गरल अन्योन्य अनुष्टान रूप जाणवी उक्तंच "शुद्ध क्रिया तो संपजे, पुद्गल आवर्तने अव रे” ॥ ६॥ पण भय नहि जिनराज पसाये, तत्त्व रसायण पाये रे ॥ प्र०॥ प्रभु भगते निज Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१ चित्त वसाये, भाव रोग मिट जाये रे ॥ प्रभु० ॥ श्री० ॥ ७ ॥ :- पण हवे मने भय नथी कारण के जिन राजना वचन पसाये तत्त्व रसायणनी प्राप्ति थई छे तेथी माहरू चित्त प्रभुनी भक्तिमां वसवाथी भाव रोग मटी जशे. पण हवे हे तरण तारण श्री सुबाहु जिनेश्वर ! बत्रीश दोष रहित तथा वाणीना पांची गुण सहित परमामृत रूप आपना वचनोना पसाये ज्ञानावरणादि कर्म रोगने अत्यंत दूर करी आत्म वीर्यनी संपूर्ण वृद्धि पुष्टि करनार देवतत्व, गुरु तत्त्व, अने धर्मतत्त्वनी मने प्राप्ति थई छे तेथी माहरी चित्त वृत्ति मनोझ अमनोज्ञ पर द्रव्यथी निवृत्रा थई प्रभुनी आज्ञा पालवा रूप भक्तिमां लीन थेशे तेथी माहरा ज्ञानावरणादि सर्वे भाव रोगो सूर्यथी जेम अंधकार नष्ट थाय तेम तत्काल विनाप्रयासे नष्ट थई जशे एवा निश्चयथी मारो भव भ्रमणनो अत्यंत भय दूर थयो छे ॥ ७ ॥ * जिनवर वचन अमृत अनुसरिये, तत्त्व रमण आदरिये रे ॥ प्र० ॥ द्रव्य भाव Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ आलव परिहरिये, देवचंद्र पद, वरिये रे ॥ प्र० ॥ श्री० ॥ ८ ॥ अर्थ :- जिनेश्वरना अमृत समान वचन अनु सारे वत्त, तत्त्व रमणना ग्राहक थईए, द्रव्यास्त्रव तथा भावास्रवनो स्याग करीए तो देवमां चंद्रमा समान सिद्ध पद वरिये 3 हे सुबाहु जिनेश्वर ! श्राप सर्वज्ञ श्रने वीतराग होवाथी साचा प्राप्त छो. आपनांज वचन श्राचार गति रूप अत्यंत भयंकर पारावार भव" समुद्रथी पार उतारी शिव स्थानके पहोंचाडवाने अद्वितीय नौका समान छे तथा दुष्ट ज्ञानावरणादि कर्म रोग वडे पडता दुर्बल आत्म बीथी ही थएलाने ले रोग दूर करी आत्म वीर्ये संपूर्ण पुष्ट करवाने अमृत समान छे. माटे जो आपना बचनने हमे अनुसरीये ते प्रमाणे वर्त्तीए ने शुद्धात्म तत्त्वनुं रमण करीए - तेमां लीन थईए तथा अभिनिवेशादि पांच मिथ्यात्व, हिंसादि पांच व्रत, तथा क्रोधा दिक कषाय, विकथादि प्रमाद तथा चौदारिक काय योग आदि योगनो परिहार करीए - राग द्वेषादि विभावनो त्याग करीए तो नवां कर्म आवतां बंध धाप भने पूर्व संचित कर्मनी निर्जरा धाय तेथी Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवमां चंद्रमा समान, परमात्म पदनी प्राप्ति थाय अतींद्रिय अव्याषाध अनंत सुखनी प्राति थाय उक्तंच " पंचासब्व बिरत्ता, विषय विजुत्ता समाहि संपत्ता, राग दोष विमुत्ता, मुणिणो साहति परमच्छ” ॥८॥ . . " (संपूर्ण) ॥अथ पंचम श्री सुजात स्वामी जिन स्तवन । देहुं देहुं नणद हठीली ।। ए देशी ।। स्वामो.सुजात सुहाया, दीठा पाणंद उपाया रे, मन मोहना जिनराया। जिणे पूरण तत्त्वनिपाया, द्रव्यास्तिक नय ठहराया रे, मन मोहना जिनराया ॥ स्वामी० ॥१॥ पर्यायास्तिक नय राया, ते मूल स्वभाव समाया रे, मन मोहना जिनराया।ज्ञानादिक स्व परजाया, निज कार्य करण वरतायारे, मन मोहना जिनराया ॥ स्वामी० ॥२॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ 37 अर्थ :- हे सुजात स्वामी ! सर्वे स्वपयपर्नु कारण द्रव्य हे पण द्रव्यनुं कारण अन्य द्रव्य होइ शके नहि तैथी श्राप स्वयं सिद्ध हो. स्वयं बुद्ध छो, सर्व पर - द्रव्यनी कामनाथी रहित परम संतुष्ट छो, तथा तद्रिय अत्र्याबाध, अनुपम, निरूपचरित, स्वाधीन, अपृथग्भूत, अनंत, सहज, श्रात्म सुखना निरंतर भोक्ता, अनुभव लेनार हो, सुखात्मा हो, उक्तंच '' जादो सयं स चेदा, सवण्डू सव्व भोग दरसीय | पप्पोदि सुहमतं, अव्वावाहं सगम मुत्त || माहरा चित्तने सुहंकर बाग्या छो, अनंत गुणना निधान आप स्वजातिनुं दर्शन धत अपूर्व आनंद रूप जल वडे माहरू चित्त सरोवर भरपूर थयुं, अज्ञान कषायना पात्र पर द्रव्यादिनी चाह दाहमां निरंतर प्रज्वलित थतां शुद्धात्म अनुभव रूप सुगंधथी रहित हरिहरादि कुदेवोने करीरादि वृक्षोनी पेठे त्यागी शुद्धात्म अनुभव रूप अनंत सुगंधथी भरपूर श्रापना पद कमलमां माहरू मन मोहित थयुं छे, ह्यांधी रंच मात्र पण खसवा चाहातुं नथी; माटे हे जिनश्वर । जगत् त्रयमां श्रापज भव्य जीवोना मन मोहन छो. जे अपे अनादि कालधी लागेला आत्म गुण रोधक ज्ञाना Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरणादि कम मलने बाल अभ्यंतर तप घडे दूर करी पोताना आत्म तत्त्वनी एवंभत नये सिद्धि करी अर्थात् सर्वे श्रास्म गुणो संपूर्ण निर्मल तथा स्वाधीन करी लीधा छे माटे हवे कई पण करवान आपने बाकी रह्यं नथी थी श्राप निष्क्रिय बिरुदने संपूर्ण प्राप्त थया छो, अनंतानंदना स्वामी थया छो तथा अात्म धर्मने मलिन करवाना तथा भव भ्रम. साना निमित्त अज्ञान मिथ्यात्व कषाय अने योगनो सर्वथा अभाव कर्यो छे तेथी श्रापनो कोइ पण गुण पर्याय हवे कोइ पण काले रंचमात्र पण मलिन धवानो नथी तथा तेमज ते सिद्धि अवस्थाथी भाप, कोइ पण काले च्यूत थवाना नथी. द्रव्यास्तिक नये आप सदा अवस्थित रही चेतनतामां समाता पोताना शुद्ध अनंत पर्यायन राज्य भोगवो छो. ज्ञानादिक सर्वे पर्यायोने स्वकार्य करवामां निरंतर प्रवर्तीवो छो अर्थात् ज्ञान गुण बडे अनंत द्रव्यना त्रिकालवर्तीनंत गुण पर्यायने समकाले प्रत्यक्षपणे जाणो छो, दर्शन गुण घडे सर्वे द्रव्यना अस्तित्त्वादि सामान्य स्वभावने समकाले देखो छो, चारित्र गुण वड़े सर्व परभावथी निवृत्त पणे अनंत ज्ञानादिक स्वधर्ममां निरंतर रमण करो छो अने श्राप, आत्म Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने जोनारा एहवा हे प्रभु ! श्रापेज नय अने प्रमाणना मार्ग वडे दुर्नय मार्गने दूर कर्यो के से नयना विस्तारथी अनेक भेद छे (व्यासतो नेक विकल्पः) कारण के वस्तु अनंत धर्मात्मक के भने ते अनंत धमेनुं निरूपण करवाने वचन मार्ग पण अनंत होय माटे जेटलां वचन तेटला सर्व नयवाद कहेवाय "जावझ्या वयण पहा, तावइया चैव हुन्ति नयवाया" तो पण ते सर्वे नयवादोनो संग्रह करनारा एहवा सात अभिप्रायनी कल्पनाना द्वारे करीने सात नयो प्रतिपादन करेला छे तेनां नामनैगम, संग्रह, व्यवहार, रूजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ अने एवंभूत. तेमांथी प्रथमना चार नयो द्रव्यार्थीक नयमां भने शब्दादि त्रण नयोने प्रर्यावार्थिकमां समाय छे ते त्रण भावनय के. ~ " समासतो द्विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः तत्र द्रव्यर्थिक चतुर्धा नैगम, संग्रह, व्यव-: हार, रुजुसूत्र भेदात् पर्यायार्थिकस्त्रिधा शब्द समभिरूढ एवंभूत भेदात् " श्री सिद्धसेन दिवाकर रूजुसूत्रनयने पर्यायार्थिकमां, Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणे छे माटे तेमना अभिप्राये नैगमादि त्रण नय द्रव्यार्थिक अने रूजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक छे. द्रव्यने सामान्यपणे निरूपण करनारा प्रमाताना अभिप्रायो जेश्रोनो भाधना चार नयमा समावेश थाय छे ते द्रव्यार्थिक छे अने जे अभिप्रायो शब्दना अर्थनी मुख्यता धरावे छे ते शब्दादिक त्रण नय पर्यायार्थिक छे माटे आदिना चार नय ते अविशुद्ध छ भने शन्दादिक ऋण नय ते विशुद्ध के उक्तंचआद्य नय चतुष्टय माविशुद्ध पदार्थ प्ररूपणा प्रवणत्वात् अर्थ नया नाम द्रव्यत्व सामान्य रूपा नयाः शब्दादयो विशुद्ध नयाः शब्दावलंवार्थ मूख्यत्वात् तथा च स्याद्वामंजरौ ये केचनार्थ, निरूपण प्रवणाः प्रमात्र भिप्रायास्ते सर्वेऽप्याद्यनय चतुष्टयेऽन्तर्भवति ये च शब्दविचार चतुरास्ते शब्दादि नय त्रय इति ॥ ॥ तथा रत्नाकरावतारिका ग्रंथे " द्रवति द्रोष्यति अद्रुद्रवत् तांतान् पर्यायानिति Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर्य ते पण ज्ञानादिक धनंत स्वधर्म परिणमाववामा वर्ते छे. एम अापना सर्वे पर्यायो पोत पोतानुं कार्य करवामां स्वाधीन पणे वर्तायो छो वली हे सर्वे नीतिमानमां शिरोमणि ! द्रव्यना यथार्थ स्वरूपनो बोध थवा माटे पापे मास्तिक अने पर्यायास्तिक ए बे मूख्य नयो ठराव्या छे. जेमा सर्वे नयनो समा. वेश थई जाय छे ते नयना यथार्थ ज्ञानवडे वस्तुनुं स्वरूप यथार्थ साक्षात् वत् जणाय छ-भासे छे ॥१॥ अंश नयमार्ग क हाया, ते विकलप भाव सुणायारे ॥ मन ० ॥ नय चार ते द्रव्य थपाया, शब्दादिक भाव कहायारे । मन ॥३॥ अर्थ-नय ते पदार्थना ज्ञानने विषे ज्ञानना अंश छ, यस्तु अनंत धर्मात्मक छ अर्थात् जीवादिक दरक पदार्थमा अनंता म छे. तेमांथी जे स्वाभिष्ट एक धमेने मुख्यताए गषे छे तेमा रहेला बीजा धर्म, प्रति उदासिनता राखे छे ते नय छे उक्तंच-स्याद्वाद मंजरीमा "नीयते परिच्छिदते एक देश विशिष्टोथे आभिरिति नीतयो नयाः तथा रत्नाकरे, नीयते येन श्र ताख्या प्रमाण विषयी कृतस्याथै स्याशस्तदितरांशौदासीन्यतः स प्रतिपत्त रभिप्राय Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषा नयः” एम ट्रेक नयो वस्तुना स्थाभिष्ट एक अंशने प्रतिपादन करे छे तेथी ते विकल्प मागै छे. जे एकांते पोताना अभिष्ट धर्मनेज स्थापन करे छे नेमां रहेला बीजाधर्मोने तिरस्कारे छे. श्रोलवे के, अपेक्षा राखतो नथी ते दुर्नय अथवा नयाभास छे. स्वाभिप्रेतादंशा दितरांशा पलापी पुनर्नयाभास " अने जे वस्तुमा रहेला कोइ पणधर्मने तिरस्कारतोनथी अर्थात् तेनी अपेक्षा राखे छे एम बताधवाने स्यात्पद युक्त अभिष्ठ धर्मनु प्रतिपादन करे छे ते सुनय छे, स्थावाद के, प्रमाण वाक्य छे, तेज हे जिनेश्वर ! भापना परम श्रागमनुं धीज [ जीवन ] छे, जे सर्वे एकांत वादे मचेला उनमत हाथी उना मदने भजन करवाने मिह ममान छे, वस्तुनुं यथार्थ सर्वांगे स्वरूप जाणथा दिव्य ज्ञान दृष्टि छ, उक्तंच-स्यादाद्मजगैराग-उपेंद्रवज्रा ॥ · सदेव सत्सयात् सदिति त्रिधार्थो, मीयेत दुनौति नय प्रमाणै; यथार्थ दर्शातु नयप्रमाण, पयेन दुर्नीति पथं त्वमास्थः अर्थ-सत्यज छे, सत् छ भने स्यात् सत् के एवी रीतनो त्रण प्रकारनो अर्थ अनुक्रमे दुर्नय, नय अने प्रमाण वडे मापी शकाय छे भने यथास्थित पदार्थ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने जोनारा एहवा हे प्रभु ! श्रापेज नय अने , प्रमाणना मार्ग वडे दुनय मार्गने दूर को छे ते नयना विस्तारथी अनेक भेद छे (व्यासतो नेक विकल्पः) कारण के वस्तु अनंत धर्मात्मक छ भने ते अनंत धमेनुं निरूपण करवाने वचन मार्ग पण अनंत होय माटे जेटलां वचन तेटला सर्व नयवाद कहेवाय “जावझ्या वयण पहा, तावझ्या चेव हुन्ति नयवाया तो पण ते सर्वे नयवादोनो संग्रह करनारा एहवा सात अभिप्रायनी कल्पनाना द्वारे करीने सात नयो प्रतिपादन करेला छे तेनां नामनैगम, संग्रह, व्यवहार, रूजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ भने एवंभूत. तेमांथी प्रथमना चार नयो द्रव्यार्थीक नयमां भने शब्दादि त्रण नयोने प्रर्यावार्थिकमां समाय छे ते त्रण भावनय छे. .. समासतो विभेदः द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकः तत्र द्रार्थिक श्चतुर्धा नैगम, सग्रह, व्यव: हार, रुजुसूत्र भेदात् पर्यायार्थिकस्त्रिधा शब्द समभिरूढ एवंभूत भेदात्” श्री सिद्धसेन दिवाकर रूजुसूत्रनयने पर्यायायिकमा Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गणे छे माटे तेमना अभिप्राये नैगमादि त्रण नय द्रव्यार्थिक अने रूजुसूत्रादि चार नय पर्यायार्थिक छे. द्रव्यने सामान्यपणे निरूपण करनारा प्रमाताना अभिप्रायो जेश्रोनो भावना चार नयमा समावेश थाय छे ते द्रव्यार्थिक छे अने जे अभिप्रायो शब्दना भथनी मुख्यता धरावे छे ते शब्दादिक त्रण नय पर्यायार्थिक छे माटे आदिना चार नय ते अविशुद्ध छ भने शन्दादिक त्रण नय ते विशुद्ध चे उक्तंचआद्य नय चतुष्टय मावशुद्ध पदार्थ प्ररूपणा प्रवणत्वात् अर्थ नया नाम द्रव्यत्व सामान्य रूपा नयाः शब्दादयो विशुद्ध नयाः शब्दावलंवार्थ मूख्यत्वात् तथा च स्याद्वादमंजरौ ये केचनार्थ, निरूपण प्रवणाः प्रमात्र भिप्रायास्ते सर्वेऽप्याद्यनय चतुष्टयेऽन्तर्भवति ये च शब्दविचार चतुरास्ते शब्दादि नय त्रय इति ॥ ॥ तथा रत्नाकरावतारिका ग्रंथे " द्रवति द्रोष्यति अद्रुद्रवत् तांतान् पर्यायानिति Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यं तदेवार्थ:, सोऽस्ति यस्य विषयत्वेन स द्रव्यार्थिक, " पर्येति उत्पाद विनाशौ प्राप्नोतीति पर्यायः स एवार्थः स अस्ति यस्यासौ पर्यायाथिकः ” ॥३॥ दुनय ते सुनय चलाया, एकत्त्व अभेदे ध्यायारे ॥ मन०॥ ते सांव परमार्थ समाया, तसु वर्तन भेद गमायारे ॥ मन० ॥ ४ ॥ अर्थः-सुनयन लक्षण कहे छे. “ स्वार्थ ग्राही इतरांशाप्रतिक्षेपी सुनय इति सुनय लक्षणं" कुनयतुं लक्षण कहे थे. " स्वार्थ ग्राही इतरांशप्रतिक्षेपी दुर्नय इति दुर्नय लक्षणं” अर्थः-स्वाभिष्ट धर्मने गवेषतां वीजा धर्मोनो अपेक्षा नहि राखनार वीजा धर्मोने बोलवनार जे दुर्नयो तेने दूर करी स्वाभिष्ट धर्मथी इतर सर्वे धर्मोनी अपेक्षा राखी स्थात्पदे शोभता सुनय-अनेकांत वादनी प्रवृत्ति करी, ते अनेकांत-स्याद्वादनये घस्तुर्नु संपूर्ण स्वरूप जाणी सर्वे धर्मो वस्तुथी एकत्व तथा Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभेद अर्थात् कोई काले जूदा नहि पडे एम चित्तमां चिंतन करी धारणा करी ते सर्वे नयोने परमार्थ एटले शुद्ध द्रव्यस्वरूपमा समाव्या, तजन्य एक शुद्धास्मअनुभूनिने भोगववा लाग्या, नयोनी वर्तना रूप विकल्पनो नाश थयो उक्तंच-उपेंद्रवज्रा. य एव मुक्त्वा नय पक्षपातं, स्वरूप गुप्ता निवसन्ति नित्य विकल्पजाल च्युत शान्त. चित्ता, स्तएव साक्षादमृतं पिवन्ति ॥ ४॥ स्थावादी वस्तु कहीजे, तसुधर्म अनंत लहीजे रे ॥ मन० ॥ सामान्य विशेषतुं धाम, ते द्रव्यास्तिक परिणाम रे॥ मन०।५। अर्थः-वस्तु अनंत धर्मात्मक छ अर्थात् अनंताधर्मो वस्तु समकाले होय . जेम स्वद्रव्यादि चतुष्टये वस्तु अस्ति स्वभाववत छे, पर द्रव्यादि चतुष्टये वस्तु नास्ति स्वभाववत छे. मज नित्य अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, वक्तव्य प्रवक्तव्य, विगेरे स्वभाववंत वस्तु रोष के माटे जो तेमांथी स्वाभिष्ट एक स्वभाधने एकांते गवेषीये, निश्चय करीये तो वस्तुनुं ज्ञान यथार्थ थाय नहीं पप जो स्यात् अस्ति, स्यात् नित्य, स्यात् Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक विगेरे अनेकांते गधेषीये तो बाकी रहेला बीजा थर्मोनी पण सूचना थाय एम सर्वे वस्तु स्थाद्वाद अनंत धर्मात्मक छे तेथी स्याद्वाद वडे वस्तुमा रहेला अनंत धर्मनो बोध थाय. ___ बली अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरुलघुत्व. प्रमेयत्व, सत्व, ए व मूल सामान्य तथा अस्तिस्वभाव, नास्तिस्वभाव नित्यस्वभाव, अनित्यस्वभाव, एकस्वभाव, अनेकस्वभाव, भेदस्वभाव, अभेदस्वभाव भव्यस्वभाव, अभव्य स्वभाव, वक्त. व्यस्वभाव, श्रवक्तव्यस्वभाव, परमस्वभाव विगेरे उत्तरसामान्य स्वभाव वस्तुमा अनंता छे तथा जीना चेतनता अनुयायी अनेक विशेष स्वभाव छे तेम धर्मास्तिकायमां गति सहायादि, तथा अधर्मास्तिकायमा 'स्थितिसहाय आदि तथा आकाशमा अवगाहदान आदि तथा पुद्गलमां पूरण गलनादि अनंत धर्मो छेते अनंत सामान्य स्वभाव तथा विशेष स्वभावनो आधारभूत जे अस्तित्वधर्म ते सधैं द्रव्यमां सदाय समकाले परिणमे के. उक्तंच. " नित्यत्वादीनां उत्तर सामान्यानां परिगामिकत्वादीनां विशेष स्वभावानामाधार Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भूत धर्मत्वं अस्तित्वं ” विगेरे ॥ ५॥ . जिनरूप अनंत गणीजे, ते दिव्यज्ञान जा णीजे रे ॥ मन० ॥ श्रुत ज्ञाने नय पथ लीजे, अनुभव आस्वादन कीजे रे। मन०॥५॥ अर्थ:-जिनेश्वर निर्मल ज्ञानानुयायी अनंत , रमणीय गुणना समूह अनंत धर्म विराजमान छे अप्रतिहत् महान तेजस्वी अखंड एक ज्ञान मूर्ति के, इंद्रिय विषयथी अतीत छे, ज्ञानस्वरूपी ज्ञानगम्य छ, तेथी तेश्रोने रागद्वेष रूप मलीमताथी रहित मात्र शुद्ध दिव्यज्ञानवडे जाणी शकीये माटे जिनेश्वर ते अनंत गुणात्मक अर्थात् जिनेश्वरना अनंत गुणोने शुद्ध नये जाणवू तेज सुंदर अनुपमज्ञान छे ते माटे अनंत गुणात्मक जिनेश्वरने सम्यप्रकारे जाणवा माटे भवसमुद्रमा नौका समान सर्वज्ञ वीतराग प्ररूपित श्रुतज्ञानना प्रसादथी सुनय-स्यावाद मार्ग ग्रहण करीए. अने शुद्ध नये जाणी तस्वरुपना अनुभवनो अानंद पामीए- . भोगवीए. उक्तंच-राग वसंततिलका वृत्तम" नैकान्त संगत दृशा स्वयमेव वस्तु, तत्व Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ धारी छै. जो अपनी श्रज्ञाने मस्तके चढ़ावी तदनुसार सम्यक्पराक्रम बजावी मम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रने आदरूं-सेतुं तो आप सदृश परमानंद भोगने निःसंदेह प्राप्त थाउं. उक्तंच - "तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनं, यथार्थ हेयोपादेय परीक्षा युक्त ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानं, स्वरूप रमण पर परित्याग रूपं चारित्रं येतद्रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग साधनात् साध्य सिद्धिः " एम में आपना न्याय युक्त यवाध्य वचनना प्रसादे परीक्षा पूर्वक माहरी सत्तानो निर्धार कर्यो छे ॥७॥ तुं तो निज संपत्तिनो भोगी, हूं तो पर परिणतिनो योगी रे ॥ मन० ॥ तिण तुम प्रभु माहस स्वामी, हुं सेवक तुज गुण ग्रामी रे ॥ मन० ॥ ८ ॥ अर्थ:- हुं अनादिधी कर्म शत्रुनी जेलमां पडेलो होवाथी अनंत काल सुधी माहरी ज्ञानादि अखूद लक्ष्मीनुं मने दर्शन पण न मल्युं तेथी जड चल जगत् जीवनी एंव जलना परपोटा जेवी क्षणभंगुर, पराधीन, चाहदाहथी बालनार, माहराथी ' Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ दूरवर्तीथई अनेक प्रकारना शोक दुःख उपजावनार, नेना काल प्रमाणे वर्तनार, सदा अतृप्त राखनार, जेनो भोग किंपाकफलनी पेठे प्राण घानक, एवी जे पुद्गल परिणति (पौदगलीक विषयो। तेमां हुँ भोग सुख मानी मग्न, तल्लीन थई रह्यो, माहरी कत्तृत्त्व, भोक्तृत्व ग्राहकत्व, व्यापकत्व, दान लाभ, भोग, उपभोग आदि परिणतिने तद्गत करी संसार परिपाटीने वधारी उक्तंच- “जो अपसथ्थोरागो, वढ्इ संसार भमण परिवाड़ी। विसयाइसु सयणाइसु, इतृत्तं पुग्गलाइसु ॥", माहरी अनुपम अखूट ज्ञानादिक संपदाथी वियोगी रह्यो पण हे भगवंत ! आप तो श्रास्म संपदाना भोगमा अंतराय करनार फर्मशत्रुनो सम्यक्चारित्र वडे समूल नाश करी अनंतज्ञाम, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग अनंतउपभोग आदि स्वसंपदानो लाभ मेलवी स्वाधीन करी निरंतर निष्कंटक पणे ज्ञानादि अनंत भचल निरुपचरित अनुसार प्रात्म संपदानों भोगमा अत्यंत मग्न थया छो.तेथी हे प्रभु ! आपनेज माहरा स्वामी जाणुं : छु, प्रापथीज माहरो मनोर्थ परिपूर्ण थशे. आपनाज दर्शनथी मारी Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यवस्थितिमिति प्रावलोक यन्तः ॥ यादवाद शुद्धि मधिका माधगन्य सन्तो, ज्ञानी भवन्ति जिन लीनि मलन्धयन्तः ” भावार्थसर्व वस्तु सहज अनेकांतात्मक छ माटे जिनेश्वरना म्याद्वाद न्याय न हि उलंघन करतां वस्तु तत्त्वनी अनेकांतास्मक व्यवस्था सन्मुख दृष्टि राखी स्याद्वादनि अधिक शुद्धिने अंगीकार करी सत्पुरुषो ज्ञानी बने छे-ज्ञानपद धारण करे छे. ॥ ५ ॥ प्रभु शक्ति व्यक्ति एक भाव, गुण सर्वरह्या समभावेरे ॥ मन०॥ माहरे सत्ता प्रभु सरखी, जिन वचन पसाये परखीरे ।। मन० ॥ ७॥ अर्थ:-हे त्रिलोकपूज्य प्रभु ! प्रापनी ज्ञान दर्शन सुख वीर्यादि सर्व शक्तिउं व्यक्त अर्थात् निरावरण थई छ, अवाधित पणे पोताना शुद्ध कायें परिण में छे, श्रागामी अनंतकाल सुधी एमज परिणमवाने शक्तिमान छे, कोइ पण काले क्षीणता पामे नेम नथी कारण के द्रव्यमा सामर्थ्य पर्याय तथा छती पर्याय अनंत छे माटे आफ्नी Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शक्ति व्यक्ति एक भावे छे तथा श्राप अमुक वर्तमान समये सर्वे द्रव्यना त्रिकालवी पर्यायोने समकाले प्रत्यक्ष पणे जाणो छो अर्थात् प्रा समये आवी रीते परिणामे छ, श्रावते समये अमुक रीते परिणमशे पछी बीजे समये अनागतने वर्तमान पणे जाणो छो अने वर्तमान परिणतिने भूतपणे जाणो छो एम उत्पाद् व्ययने भोगवो छो पण आपनी कोइ पण शक्ति हवे श्रावृत्त नथी के जे हवे प्रगट व्यक्त थाय माटे सर्वे शक्ति व्यक्ति एक भावे छे. तथा ज्ञान शुद्ध ज्ञानपणे, दर्शन शुद्ध दर्शनपणे, एम श्रापना सर्वे गुणो राग द्वेष मोह विगेरेथी रहित समभावे परिणमे के कारण के विषय परिणामना हेतु अज्ञान मिथ्यास्व कषायनो आपे समूल नाश को छे वली जेम श्राप प्रचल सिद्ध स्वक्षेत्रमा वसी स्वतंत्र पणे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, अव्यावाधता, अटल अवगाहना, अगुरूलघुत्व, अमूर्त्तित्त्व, अजरता, श्रमरता, निर्भयता, निरामयता, निराकुलता, निद्धधता, निस्पृहता धादि अनंत गुण जन्य आनंद समूहना विलासी थया छो तेमज हुं पण संग्रह नये भाप समान सत्ता Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ धारी छै. जो अपनी श्रज्ञाने मस्तके चढ़ावी तदनुसार सम्यक्पराक्रम बजावी मम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रने श्रादरूं-सेतुं तो आप सदृश परमानंद भोगने निःसंदेह प्राप्त था. उक्तंच - " तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग् दर्शनं, यथार्थ हेयोपादेय परीक्षा युक्त ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानं, स्वरूप रमण पर परित्याग रूपं चारित्रं येतद्रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग साधनात् साध्य सिद्धिः " में आपना न्याय युक्त प्रबाध्य वचनना प्रसादे परीक्षा पूर्वक माहरी सत्तानो निर्धार कर्यो छे ॥७॥ एम तुं तो निज संपत्तिनो भोगी, हुं तो पर परिणतिनो योगी रे || मन० ॥ तिण तुम प्रभु माहरा स्वामी, हुं सेवक तुज गुण ग्रामी रे ॥ मन० ॥ ८ ॥ अर्थ:- अनादिधी कर्म शत्रुनी जेलमां पडेलो होवाथी अनंत काल सुधी माहरी ज्ञानादि अखूद लक्ष्मीनुं मने दर्शन पण न मल्युं तेथी जड चल जगत् जीवनी एंव जलना परपोटा जेवी क्षणभंगुर, पराधीन, चाहदाहथी बालनार, माहराधी / Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूरवर्ती थई अनेक प्रकारना शोक दुःख उपजावनार, ना काल प्रमाणे वर्तनार, सदा अतृप्त राखनार, जेनो भोग किंपाकफलनी पेठे प्राण घानक, एवी जे पुद्गल परिणति (पौदगलीक विषयो। तेमां हुँ भोग सुख मानी मग्न, तल्लीन थई रह्यो, माहरी कर्तृत्त्व, भोक्र्तृत्त्व ग्राहकत्व, व्यापकत्त्व, दान लाभ, भोग, उपभोग आदि परिणतिने तद्गत करी संसार परिपाटीने वधारी उक्तंच- " जो अपसथ्थोरागो, वढ्इ संसार भमण पग्विाडी। विसयाइसु सयणाइसु, इत्तं पुग्गलाइसु ॥" माहरी अनुपम अखूट ज्ञानादिक संपदाथी वियोगी रह्यो पण हे भगवंत ! श्राप तो श्रास्म संपदाना भोगमां अंतराय करनार कर्मशत्रुनो सम्यक्चारित्र वडे समूल नाश करी अनंतज्ञाम, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग अनंतउपभोग आदि स्वसंपदानो लाभ मेलवीस्वाधीन करी निरंतर निष्कंटक पणे ज्ञानादि अनंत मचल निरुपचरित अनुसर आत्म संपदानां भोगमा अत्यंत मग्न थया छो. तेथी हे प्रभु ! श्राप नेज़ माहरा स्वामी जाणुं छु, श्रापथीज माहरो मनोर्थ परिपूर्ण थशे. आपनाज दर्शनथी मारी Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'स्वयं श्रात्म लक्ष्मीना स्वामी श्री स्वयं प्रभु स्वामीने हजारवार- वारंवार, निरंतर, भाम जाउं अत्यंत प्रमोद भावना वडे गुणानुरागी भइ सेवा भक्तिमां लीन थाऊं. के जेनो " वस्तु धरम पूरण नीपन्यो " अर्थात् अनादी कालथी ज्ञानावर्णादि कर्मवडे आवृत थइ रहेला होवाथी ज्ञानादि श्रात्म घर्मो पोतानुं कार्य शुद्ध रीतेकरी शकता नहोता, परवश परानुयायी थइ रह्या हता, कर्मबंधनना हेतु थइ रह्या हता, ते सर्वे धर्मो संपूर्ण प्रगटव्यक्त थया छे, तदन निरावरण थया छे, अप्रतिहत् पणे पोताना शुद्ध कार्ये निरंतर परिणमे छे तथी अखंड अचल अविनाशी परमानद दशाने प्राप्त थया के परम निभय निराकुल दशामां अनंत शुद्धात्म अनुभूतिमां तल्लीन थइ रह्यो . तथा "भाव कृपा किरतार" अर्थात चार गतिरूप अपरिमित भयंकर भवाटवीम विषय कषाय - वशे छेदन भेदन ताडन तर्जन तिरस्कार वियोग शोक भय आनंद विगेरे अनेक प्रकारनां असह्य शारीरिक तथा मानसिक दुःखों दीन अनाथपणे भोगवताने, अत्यंत कारुण्य भावनावडे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मोक्ष मार्गे दोरी, तना दुःखनो समूल नाश करी परमानंदमय Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवपुरीमा विराजमान करो छो. एज भी स्वयंप्रभ स्वामीनी दया परमोत्कृष्टता धरावे छे. पण जे विषय कषायनी वृद्धि करनार उपदेश, था पदार्थो श्रापी, अज्ञानीजीचोनी विषय कषाय तथा हिंसानी प्रवृत्तिने वधारे छ-तेनां कारणोने पुष्ट करे के अने हमे दया करीए छीए एम कहेनार मिथ्य भिमानी जीवो तो हे प्रभु ! दयालु नहि पण वास्तविक न्याये श्रापना वचनानुसार हिंसाना अनुमोदक प्रतित थाय छे. ॥ १ ॥ द्रव्य धरम ते हो जोग समारवा, विषयादिक परिहार ॥ आतमशक्ति स्वभाव सुधर्मनो, साधनहेतु उदार ॥ स्वामी० ॥ २ ॥ ____ अर्थ:-प्राणातिपात; मृषावाद, भदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, देष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्य, गतिश्ररति, परपरिवाद, मायामृषावाद तथा मिथ्यात्वशल्य ए पापस्थानमां मन वचन कायाने नःश्वरितां स्यादुवाद युक्त जिनेश्वरना पवित्र कल्याणकारी बचनो . वांचवा, सांभलवा, विचारवामां तथा तेना उपदेष्टा - सद्गुरू आदिना विनय वैयावच्चादिमा तथा ज्ञान Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ धारी छ. जो आपनी प्राज्ञाने मस्तके चढ़ावी तदनुसार सम्यक्पराक्रम बजावी सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रने प्रारूं-सेवु तो आप सदृश परमानंद भोगने निःसंदेह प्राप्त थाउं. उक्तंच-"तत्वार्थ श्रद्धानं सम्यग दर्शनं, यथार्थ हेयोपादेय परीक्षा युक्त ज्ञानेन सम्यग्ज्ञानं, स्वरूप रमण पर परित्याग रूपं चारित्रं येतद्रत्नत्रयी रूप मोक्ष मार्ग साधनात् साध्य सिद्धिः” एम में अापना न्याय युक्त अबाध्य वचनना प्रसादे परीक्षा पूर्वक माहरी सत्तानो निर्धार कर्यो छे ।।७॥ तुं तो निज संपत्तिनो भोगी, हुं तो पर परिणतिनो योगी रे ॥ मन० ॥ तिण तुम प्रभु माहस स्वामी, हुं सेवक तुज गुण ग्रामी रे ॥ मन० ॥८॥ .. अर्थ:-हुं अनादिथी कर्म शत्रुनी जेलमां पडेलो होवाथी अनंत काल सुधी माहरी ज्ञानादि अखूट लक्ष्मीनुं मने दर्शन पण न मल्युं तेथी जड चल जगत् जीवनी एंव, जलना परपोटा जेवी क्षणभगर, पराधीन, चाहदाहथी बालनार, माहराथी' Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूरवर्ती थई अनेक प्रकारना शोक दुःख उपजावनार, तेना काल प्रमाणे वतनार, सदा अतृप्त राखनार, जेनो भोग किंपाकफलनी पेठे प्राण घानक, एवी जे पुद्गल परिणति (पौदगलीक विषयो। तेमा हुँ भोग सुख मानी मग्न, तल्लीन थई रह्यो, माहरी कतत्त्व, भोक्तत्व ग्राहकत्व, व्यापकत्व. दान लाभ, भोग, उपभोग आदि परिणतिने तद्गत करी संसार परिपाटीने वधारी उक्तंच- " जो अपसथ्थोरागो, वह संसार भमण परिवाडी। विसयाइसु सयणाइसु, इंदृत्तं पुग्गलाइसु ॥” माहरी अनुपम खूट ज्ञानादिक संपदाथी वियोगी रह्यो पण हे भगवंत ! श्राप तो श्रात्म संपदाना भोगमां अंतराय करनार कर्मशत्रुनो सम्यक्चारित्र वडे समूल नाश करी अनंतज्ञाम, अनंतदर्शन, अनंतसुख, अनंतवीर्य अनंतदान, अनंतलाभ, अनंतभोग अनंतउपभोग आदि स्वसंपदानो लाभ मेलवी स्वाधीन करी निरंतर निष्कंटक पणे ज्ञानादि अनंत भचल निरुपचरित अनुसर आत्म संपदाना भोगमा अत्यंत मग्न थया छो तेथी हे प्रभु ! आपनेज, माहरा.. स्वामी जाणुं . छु, आपथीज माहरो मनोर्थ परिपूर्ण थशे. प्रापनाज दर्शनथी मारी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अखूट लक्ष्मी माहराउपर प्रपन्न थई माहरे स्वाधीन थशे माटे हु आपनी सेवाने निरंतर चाहनार आपनो सेवक ा पनाज गुण ग्राममां संतोष वृत्ति धारण करुं छु ॥ ८॥ ए संबंधे चित्त समवाय, मुज सिद्धिन कारण थाय रे ॥ मन० ॥ जिनराजनी सेवना करवी, ध्येय ध्यान धारणा धरवी रे ॥मन०६। तुं पूरण ब्रह्म अरुपी, तुं ज्ञानानंद स्वरूपी रे ॥ मन० ॥ इम तत्त्वालंबन करिये, तो देवचंद्र पद वरिये रे ।। मन० ॥ १० ॥ अर्थः-श्रापनी सेवामां जो माहरु चित्त एकाग्र थाय, अभेद संबंध धारण करे तो तत्काल माहरा उपादानमां सिद्धिन कारण पद् उत्पन्न थाय माटे में तो निश्चय कर्यो छे के हे जिनेश्वर ! अन्य सकल परद्रव्यनी सेवा तजी श्रापनीज सेवामां निरंतर वसवं, श्रापने शुद्ध ध्येय जाणी आपनाज ध्यानमां निश्चल वृत्ति धारण करवी ॥६॥ ____ कारण के हे जिनेश्वर ! कोइ पण द्रव्यनी कामना आपमा जणाती नथी तथा पोताना ज्ञानादि Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वे पर्यायोना भाप कारण तथा ज्ञाता भोक्ता होबाथी आप पूरण ब्रह्म छो. रूप रस गंध स्पर्श संस्थान आदि पुद्गल द्रव्यना कोइ पण पर्यायनो मापने रंच मात्र पण संश्लेष नथी तेथी श्राप अरूपी को. पाप पोताना ज्ञानजन्य आनंदमां सदा लीन छो-तदुरूप छो माटे प्रापर्नु अवलंबन धारण करू ईं. कारण के जेम काष्टना अवलंबने लोदु जलमा तरी जाय तेम हुं श्रापना अवलंघने आ भयंकर भवार्णवमांथी तरी देवमां चंद्रमा समान शुद्ध सिद्ध परमात्म अवस्थाने प्राप्त थईश. ॥ १० ॥ ॥ संपूर्ण ॥ - ॥ अथ षष्ठम श्री स्वयंप्रभ जिन स्तवनं ॥ मो मनडो हेडाउ हो मिसरि ठाकुरो महदरो ॥ एदेशी॥ स्वामी स्वयंप्रभने हो जाउं भामणे हरखे वार हजार ॥ वस्तुधरम पूरण जसु नीपन्यो भावकृपा किरतार ॥ स्वामी० ॥ १॥ अर्थः-महान् अखूट वैभवधारी इंद्र चंद्र चक्रवर्ना आदिना समूहवडे पण वंदनीक, स्वयं बुद्ध, Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयं श्रात्म लक्ष्मीना स्वामी श्री स्वयं प्रभु स्वामीने हजारवार- वारंवार, निरंतर, भामले जाउं अत्यंत प्रमोद भावना वडे गुणानुरागी भइ सेवा भक्तिमां लीन थाऊं. के जेनो " वस्तु धरम पूरण नीपन्यो” अर्थात् अनादी कालथी ज्ञानावर्णादि कर्मवडे वृत थइ रहेला होवाथी ज्ञानादि श्रात्म घर्मो पोतानं कार्य शुद्ध रीतेकरी शकता नहोता, परवश परानुयायी थइ रह्या हता, कर्मबंधनना हेतु थइ रह्या हता, ते सर्वे धर्मो संपूर्ण प्रगटव्यक्त थया छे, तदन निरावरण थया छे, अप्रतिहत् पणे पोताना शुद्ध कार्ये निरंतर परिणमे छे तथी अखंड अचल अविनाशी परमानंद दशाने प्राप्त थया छे परम निभय निराकुल दशामा अनंत शुद्धात्म अनुभूतिमां तल्लीन थइ रह्यो . तथा "भाव कृपा किस्तार" अर्थात चार गतिरूप अपरिमित भयंकर भवादवीम विषय कषाय वशे छेदन भेदन ताडन तर्जन तिरस्कार वियोग शोक भय श्राकंद विगेरे अनेक प्रकरनां असह्य शारीरिक तथा मानसिक दुःखों दीन नार्थपणे भोगवताने, अत्यंत कारुण्य भावनावडे सम्यक्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप मोक्ष मार्गे दोरी, तीना दुःखनो समूल नाश करी परमानंदमय Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिवपुरीमां विराजमान करो छो. एज श्री स्वयंप्रभु स्वामीनी या परमोत्कृष्टता धरावे छे. पण जे विषय कषायनी वृद्धि करनार उपदेश, तथा पदार्थो श्रापी, अज्ञानी जीवोनी विषय कषाय तथा हिंसानी प्रवृत्तिने वधारे छे तेनां कारणोने पुष्ट करे छ अने हमे दया करीए छीए एम कहेनार मिथ्य भिमानी जीवो तो हे प्रभु ! दयालु नहि पण वास्तविक न्याये श्रापना वचनानुसार हिंसाना अनुमोदक प्रतित थाय छे. ॥ १ ॥ द्रव्य धरम ते हो जोग समारवा, विषयादिक परिहार ॥ आतमशक्ति स्वभाव सुधर्मनो, साधनहेतु उदार ॥ स्वामी० ॥ २ ॥ अर्थः-प्राणातिपात; मृषावाद, भदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध मान, माया, लोभ, राग, देष, कलह, अभ्याख्यान, पैशुन्ग, गतिश्ररति, परपरिवाद, मायामृषावाद तथा मिथ्यात्वशल्य ए पापस्थानमा मन वचन कायाने न प्रवर्तीवतां स्याद्वाद युक्त जिनेश्वरना पवित्र कल्याणकारी बचनो वांचवा, सांभलवा, विचारवामां तथा तेना उपदेष्टा सद्गुरू भादिना विनय वैयावच्चादिमां-तथा ज्ञान Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शन चारित्रनी वृद्धि तथा स्थिति करवामां प्रवर्तावां तथा " लिषयादिक परिहार ” अर्थात् थीणा, सारंगी, दुंदुभी, विगेरे घाजीत्र तथा मेना, पोपट, स्त्री, किंनरी मादिना ललिता मनोहर स्वर ते श्रवणइंद्रिनो विषय, तथा स्त्री पुरुष पशु पक्षी बालक बाग बगीचा तथा मनोहर श्रावास विगेरेना चित्र विचित्र मनोज्ञ वर्ण तथा घाट से नेत्रइंद्रिनो विषय, तथा पारिजातक, कुंद, कमल, मालति, गुलाव, अगर, तगर, चंदन, केशर, मलयागर विगेरे पदार्थोनी मनोज्ञ सुगंध ते घ्राणेंद्रिनो विषय, तथा स्वादीम, खादीम, पेय श्रादि वस्तुना मनोज्ञ मधु. रादि स्वाद् ते जीव्हाईद्रिनो विषय, तथा स्त्री पुरुषादिनां मनोहर अंग तथा शय्या प्रासन विगेरे पदार्थोना मनोज्ञ स्पर्श ते स्पशेनिनो विषय ए पंचेंद्रिन' विषयोनो स्याग करवो अर्थात् ते विषयो ने इष्ट रम्य भोग्य सुहकर जाणी तेश्रोमां राग, कामना, मूर्छा करवी नहि, प्राप्त स्वाधीन तथा भोगववानुं सामथ्र्य होवा छतां पण ते विषयादिने स्वभावाचरणथी चकवाना हेत तथा दाखना निदान जाणी तेओनो परिहार करवो ते साचो त्याग छे. पण नहि मलवाथी न भोगवq ते कई स्याग नथी, Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ उत्क्तंच - ( दश वैकालिके ) " - जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुञ्चइ ॥ साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ - एम बिजोगनुं " "" समोर तथा विषयादिनो त्याग ते आत्माना मलिन थयेला ज्ञान दर्शन चारित्र आदि स्वभाषिक धर्मने शुद्ध प्रगट करवामां कल्याणकारी साधनो होवाथी द्रव्यधर्म के अर्थात् भाव धर्मना कारणो के उक्तंच - " कारण यासे दव्वं " भने कारण वगर कार्य सिद्धि अलभ्य के, उष- कारण जोगे हो कारज नीपजेरे, एहमां कोइ न वाद । पण कारण विण कारज साधियेरे, तै निज मति उन्माद - माटे विषय परिग्रहादि जे रागादि अशुद्धोपयोगना हेतुभो तेनो त्याग करवो अमे ज्ञान ध्यानादिक, जे रागादिनो नाश करी शुद्धात्म भाव प्रगट करवाना हेतुओ के ते मादरवा, जेथी कार्य सिद्धि धाय ॥ २ ॥ उपशम भावे हो मिश्र क्षायिकपणे, जे निज गुण प्राग्भाव ॥ पूर्णावस्थाने नापजावतो, Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 साधन धर्म स्वभाव ॥ स्वार्मी० ॥ ३॥ अर्थः-एम विजोगर्नु समार, तथा विषयादिकनो स्याग; ए ज्ञानादि धर्मो : प्रगट करवानां साधनो छे ते उपशम क्षयोपशम तथा क्षायिकभावे प्रगट थएला आत्म: गुणोने पूर्ण शुद्ध अवस्थाने अर्थात् सिद्धशाने प्राप्त करे छे. जे कंह प्रास्म धर्म उपशमपणे क्षयउपशमपणे वा. क्षायिकपणे प्रगट प्राप्त थयो ते क्रमे फ्रमे प्रास्म गुणोनी शुद्धि करतो संपूर्ण शुद्धावस्थाने-सिद्ध अंवस्थाने प्राप्त करवाने कारण रूप छे. जेम समकित प्राप्त थयाथी विरतिनी प्राप्ति थाय, अने पिरतिवडे अप्रमत्त भावनी प्राप्ति थाय, तथा अप्रमत्त गुण वडे संपूर्ण कषायोनो नाश थाय, कषायोना नाशवडे वीतरागता प्राप्त थाय के. अने वीतरागता चडे केवलज्ञान थाय. एम क्रमे क्रमे प्रात्म गुणोनी अधिक अधिक शुद्धि थइ संपूर्ण शुद्धि थाय. तेथी जे गुण प्राप्त थयो ते अधिक गुणनो प्राप्तिनो हेतु छे. जेम कोइ माणस महान् पाधिग्रस्त होवाथी जरा पण खोराक लइ पचावी शकवाने असमर्थ होय, अत्यंत निर्वल होय पण ते कोई रीते थोडं वल पामे तो ते पलवडे धीमे धीमे अधिक अंधिक खोराक पचावी 'अधिक' अधिक Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलवान थतो पूर्ण बलवान थाय. उक्तंच-" प्रशमरति ग्रंथे--आर्या छंद । पूर्व करोत्यनंतानुवन्धि नाम्नां क्षयं कषायाणाम् । मिथ्यात्व मोह गहणं, क्षपयति सम्यक्त्व मिथ्यात्वम् . सम्यक्त्व मोहनीय, क्षपयत्यष्टावतः कषायांश्च । क्षपयति ततो नपुंसक, चेदं स्त्रीवेद मथतस्मात् हास्यादि ततःषत, क्षपयति तस्माच्च पुरुषवेदमपि , ॥ संज्वलनानपि हत्वा, प्राप्नोत्यथ, वीतरागत्वम् । सर्वोदघातित मोहो, निहत क्लेशो यथाहि सर्वज्ञः ॥ “भात्यनुप लक्ष्य राहशोन्मुक्तः पूर्ण चन्द्रइव ॥” तेथी समकित प्राप्ति माटे अत्यंत उद्यम करी प्रथम समकितनी प्राप्ति करवी जेथी बीजा सर्वे गुणो प्रगट थाय. ।३। समकित गुणथी हो शैलेशी लगे, आतम अनुगत भाव ।। संवर निर्जरा हो उपादान हेतुता, साध्यालंबन दाप ॥ स्वामी० ॥४॥ अर्थः-अनादि विभाष योगे भात्म परिणति Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ परानुगत थएली छे अर्थात् ज्ञानशक्ति परद्रव्यने जाणवामां, दर्शनशक्ति परद्रव्यने देखचामां-निर्धार करवामां, चारित्रशक्ति परद्रव्यमा आचरण रमण करवामां, एम सर्वे गुणो मास्मगुणना बाधकपणे परानुयायी प्रवर्ते के पण ज्यारे समकितनो लाभ पामे स्यारे परानुगत थएली प्रात्म परिणतिने शुद्धात्म भनुगत पणे प्रवत्ववानो अभिलाषी थाय, शुद्ध कार्य सन्मुख परिणति करे अर्थात् " समकित गुणथी " एटले चोथा गुणस्थानधी मांडी " शैलेशी गुण लगे" एटले चौदमा गुणस्थान सुधी परानुगत थएली आत्म परिणतिने वारी क्रमे क्रमे अधिक भधिक शुद्धताए वर्तावतो जाय. जेम जे परिणति अनात्म वस्तुमे प्रात्म जाणवासाहवा विगेरेमा प्रवर्तती हती ते चोथे गुणस्थाने आस्माने भारमा जाणवा-सदहवा विगेरेमा प्रवर्तावे तथा जे परिणति हिंसादि पांच भव्रतमा वर्तनी हती ते पांचमे छठे गुणस्थाने अहिंसादि, पांच व्रतमा वर्मा तथा मद विषय कषाय निंद्रा विरूयामा जे परिणति वसंती इती ते वारी सतिमे गुणस्थाने अप्रमत्त भावे भास्मगुण रमणमा वर्तावे एम अाठमे गुणस्थाने रसघात स्थितिघात गुण Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संक्रम गुणश्रेणि करे, अपूर्व स्थिरतामा आत्म परिणतिने प्रवर्त्ता, संज्वलन क्रोध मान माघा विगेरेधी आत्म परिणतिने वारी नवमे गुणस्थाने ते कषाय रहित - अकषायपणे समभाषमां वर्तावे सूक्ष्म लोभ शिवाय बाकीना कषायथी श्रात्म परिणतिने वारी दशमे गुणस्थाने अधिक शुद्ध समपरिणामे प्रवर्त्तावे, सर्व कषायनो क्षय करी बाग्मे गुणस्थाने वीतराग यथाख्यात चारिश्रमां वर्त्ते, चार घातीया कर्मनी समूल क्षय करी मेरा गणस्थाने अनंतज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र अनंत वीर्यपणे भस्म परिणतिने वर्तावे - योग क्रियानी सकल चपलता वारी चौदमा गुणस्थात्रे to योगी अवस्था करी पूर्ण परम निवृति पद, पामे. एम दरेक गुणस्थाने आत्म गुणनी अधिक अधिक शुद्धि करतो संपूर्ण सिद्धावस्थान प्राप्त धाय. एम दाव राखी साध्यने आधारे साध्यं सन्मुख उपादान - आत्म परिणतिनी शुद्धताना हेतुए वर्त्तनुं तेज सं अर्थात् नवा कर्मनुं रोक तथा निर्जरा एटले पूर्व संचित कर्म क्षयं धवानो हेतु के, उक्त 66 जो संवरेण जुत्ता, अप्पट प्रसाधगोहि अपणं । मुनिउण आदि यिदं णाण ጎ ' Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो संधुणोदि कम्मरयं” ॥ ४ ॥ . . सकल प्रदेशे हा कर्म अभावता, पूर्णानंद स्वरूप ॥ आतम गुणनी हो जे संपूर्णता, सिद्ध स्वभाव अनूप ॥ स्वामी० ॥ ५॥ अर्थः-श्रापना अात्म अंगना लवे प्रदेशथी ज्ञानावरणादि कर्म मलनो सर्वथा अभाव थयो छे तेथी सर्वे प्रदेश स्फटिकमणि समान शुद्ध संपूर्ण निरावरण थया छे, कोइपण काले हवे कर्म .मलनों रंच मात्र पण सश्लेष थवानो संभवं नथी, तेथी श्रात्म अंगमां वसता अनंत गण पर्यायना सर्वे अविभागो संपूर्ण शुद्ध थया छे, शुद्ध कार्ये परिणमे छे तेथी हे भगवंत ! आप पूर्णानंद स्वरूपं छो. अर्थात् जगत्जीव तो उपाधिना प्रतिकारथी आनंद माने छे, परद्रव्यने भोग जाणी तेमा लयलीन थई रहे छे नेथी जगत्जीवनो आनंद तो क्षणभंगुर अपूर्ण तथा भयसहित छे, पण आप तो. पोताना स्वाधीन अविनश्वर एक क्षेत्रावगाही गुण पर्यायोना भोक्ता छो, तेमां रमण करो छो, तेमा संतुष्ट तल्लीन थई.मानंद भोगवों छो तेथी मापनो श्रानंद कोईपण काले नांश धाय अथवा दूर जाय तेम Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयी तथा स्वाधीन अने. सहज, होवाथी भय आकुलता स्पृहाः रहित ने तेथीभापनोज श्रानंद एकांतिक: आत्यंतिक पूर्णपदने योग्य . जगत्-जीवनो अानंद तो साचो श्रानंद नथी,'अज्ञान वशे श्रानंद मनाय छे. एम प्रास्मगुणनी संपूर्णः शुद्धता, कर्तृता, भोक्तृता, परिणामीकता, ग्राहकता, व्यापकता आदि तेज आपनो अनुपम सिद्ध स्वभाव छे.. हवे, कईपण कार्य करवानुं शेष नथी, कंईपण भादवानुं तेम छोडवान बाकी नथी तेथी अचल श्रयाधित शाश्वत परमानंदना स्वामी छोः ।। ५ ।। "अचल अबाधित होजे निःसंगता, परमातम चिद्रप ॥ आतमभोगी हो रमता निजपदे, सिद्ध रमण ए रूप ॥ स्वामी० ॥ ६॥ ... । अर्थः-अात्म परिणामने चल करनार जे राग देष मोह परिणाम तेनो. सर्वथा अभाव होवाथी अचल, तथा श्रात्म परिणामने शुद्धपणे परिणमवामां 'घात, स्खलना करनार ज्ञातावरणादिक घातीकर्मनो अभाव होवाथी अबाधित छो तथा धन धान्य क्षेत्र वस्तु हिरण्य श्रादि बाह्यः परिग्रह तथा मिथ्यात्व क्रोध मान-माया लोभ हास्य रति Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अरति भय शोक जुगुप्सा पुरुषवेद स्त्रीवेदनपुंसकवेद चौद अभ्यंतर परिग्रह, एम बाथ अभ्यंतर परिग्रहथी सर्वथा रहित होषाथी निःसंगछो. तथा 'ज्ञानानुयायी सर्वे धर्मो संपूर्ण शुद्ध निर्मल होबाथी परमात्मा छो. तथा संसार अवस्थामा कर्म संयोगे 'शरीरमा लोली भूतपणे वसी शरीर रूपे पुद्गल रूपे संसारी जीव पोताने माने के पण भाप तो शरीरथी सर्वथा अतित थयाको सथी मात्र ज्ञानरूप-ज्ञानमूर्सी छो तथा पुद्गल भोगनुं रमण तजी आप पोताना शुद्ध ज्ञान दर्शनादि गुणोमा रमण फरवावाला भात्म भोगी छो, शुद्ध स्वाधीन भविनश्वर रम्यमा रमण करो को तेथी प्रापर्नु रमण संपूर्ण भने अविनश्वर होवाथी सिद्धपद धारण करे छे ॥६॥ एहवो धर्म हो प्रभुने नीपन्यो, भाख्यो एहवो धर्म ॥ जे आदरता हो भवियण शुचि हुवे, त्रिविध विदारी कर्म ॥ स्वामी० ॥७॥ अर्थः-एम प्रभु ! मापना ज्ञानादि सर्वे धर्मो कर्म मलथी रहित शुद्ध प्रगट थया. अचल, Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ अविनाशी, अनंत, अज, अलेशी, अवेदी, अकषायी अचल, अक्रिय, नित्य, स्वाधीन, निबंध, परमानंद दशाने प्राप्त थया छो. भने जे रीते श्राप ए दशाने प्राप्त थया तेज उपाय, तेज धर्म, परम करूणा चडे भव्य जीयोने आ संसार समुद्र-मांथी पारंगत-थई शिवभूमीए पहोंचवा प्ररूप्यों-उपदेश्यो छे. ते सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्र रूप धम श्रादरतां-सेषता भव्य जीवो द्रव्यकर्म, भावकम अने नोकम ए प्रण प्रकारना कर्मनो नाश करी परम पवित्र शुद्ध निरावरण थाय. ॥७॥ नाम धरम हो ठवण धरम तथा, द्रव्य क्षेत्रतिम काल ॥ भावधर्मना हो हेतु पणे भला, भाव विना सहु आल ॥ स्वामी० ॥८॥ • अर्थ:-नामधर्म, स्थापनाधर्म, द्रव्यधर्म, क्षेत्रधर्म, कालधर्म, तथा भावधर्म एम धर्म स्वरूप अनेक प्रकारे छे, पण नाम, स्थापना, द्रव्य क्षेत्र तथा काल 'ए जो भावधर्मना सन्मुख, भावधर्मना हेतु होय अर्थात् भावधर्म साधवामां कारणभूत होय तो प्रशंसनीय कार्यकारी छ पण जो ते भावधर्मनी अपेक्षा शून्य होय तो माल अर्थात् निरर्थक धुल Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ उपर लीपण जेवा जाणषा. “भाव शून्या क्रिया न फलन्ति इति” अथवा एकडा विनानां मीडा जेवा जाणवा. पण जो भावधर्मनी सापेक्षताए "होय तो एकडा उपरन मीडांनी माफक गुणकारी छ. ॥८॥ श्रद्धा भासन हो तत्व रमण पणे, करतां तन्मय भाव ॥ देवचंद्र जिनवर पद सेवतां, प्रगटे वस्तु स्वभाव ॥ स्वामी० ॥ ९॥ . अर्थः-शुद्धात्म तत्त्वनी श्रद्धा अर्थात् जो हुँ जिन प्ररूपित सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र रूप धमै अादरूं तो हुँ पण शुद्धात्म तत्त्वनो 'भोगी थई शकुं. एम श्रद्धा करे, नय निक्षेप प्रमाण युक्त एम जाणे, तथा ते शुद्धात्म तत्त्वनेज पोतार्नु रम्य जाणी तेमांज रमण करे, परद्रव्यादिमांथी रमणता टाले, तो श्रात्म स्वभावमांज तल्लीन थायतद्रूप थाय. श्रीमान् देवचंद्र मुनिवर कहे छे के एम जिनेश्वग्ना द्रव्यचरण भावचरणने सेवतां “आपणो श्रास्म स्वभाव संपूर्ण शुद्ध प्रगटे, परमानंदनी प्राधि थाय, ॥६॥ . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ सप्तम श्री रुषभानन जिन स्तवनम् ॥ वारी हूं __ गोडी पासने ॥ ए देशी ॥ ॥ श्री रुषभानन वंदिये, अचल मनंत गुण वास जिनवर । क्षायिक चारित्र भोगथी, ज्ञानानंद विलास जिनवर ॥ श्री० ॥ १॥ अर्थ:-धर्म धुरंधर, धर्म तीर्थकर, अशरण शरण, श्री रुषभानन प्रभुने आ लोक परलोकना विषय सुखनी अभिलाषा स्पृहा रहित तथा मान पूजाना लोभ रहित, प्रा संसार समुद्रमांथी तारण तरण जहाज.जाणी, अत्यंत विशुद्ध भावनाए परम आदर, पूर्वक बंदिये-सेवा भक्ति करिये. के जे प्रभु अचल अर्थात् प्रदेश मात्र पण दूर न थाय तथा राग द्वेष मोह जन्य चपलता रहित एहषा ज्ञानादि अनंत गुणना वास-निधान छ तथा क्रोध मान माया लोभ हास्य रति रति भय शोक जुगुप्सा तथा त्रण वेद ए चारित्रमोहनीय प्रकृतिनो सत्ता सहित क्षय करी यथाख्यात् स्वभावाचरण ज्ञान दर्शन आदि अनंत स्वभाविक भोग जन्य भानंदमां अनंत ज्ञान सहित विलले छे॥१॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जे प्रसन्न प्रभु मुख आहे, तेहिम नयन प्रधान जिनवर ॥ जिन चरणे जे नामीये, मस्तक तेह प्रमाण जिनवर ।। श्री० ॥२॥ '; अर्थ:-हे भगवंत ! अापना ज्ञान दर्शनादि सर्वे भोग उपभोगो आपने सदा स्वाधीन वर्ते छे. कोइ पण काले प्रदेश मात्र पण दूरवर्ती थाय तेम नथी तेथी आप सदा शोक रहित तथा ते भोग उपभोग ने कोइ पण बाधा पीडा तथा हरण करी शके तेम नथी तेथी परम निर्भय, नया ते भोग उपभोगो पर द्रव्यना भेल-मलिनतारहित सदा शुद्ध होवाथी आप गिलानी रहित, तथा ते भोग उपभोगो अखूट श्रानंद जनक होवाथी अरति रहित छो, एम क्रोधादि सर्वे कषाय रहित होवाथी आपन मुखकमल सदा अम्लान परम प्रफुल्लित प्रसन्न छे, दर्शनीय छे. एहवा श्राप श्रीना भानंद वर्धक वदनकमलनु, जे नेत्र वडे दर्शन थाय तेज नेत्र प्रधान कल्याणकारी मार्नु छं. तथा मोक्ष मार्गमां अति शीघ्रताए गमन करनार श्रापना चरण द्वयने, जे मस्तक वडे स्पर्श धाय तेज मस्तक पान्यु प्रमाण गणु छं ।। २॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ ॥ अरिहा पदकज अरचीये, सलहीजे. ते हथ्थ जिनवर ॥ प्रभु गुण चिंतनमें रमे, तेहज मन सुकयथ्थ जिनपर ॥ श्री० ॥३॥ अर्थ:-अनादि कालथी आत्म साम्राज्यने कबजे करि राखनार मोहादि दुष्ट शत्रुउंने जेमणे अति तिक्षण ज्ञान बाणा वडे गतःप्राण निवा करया छे एहवा हे श्री अरिहंत रूषभानन भगवंत! माहरा मन मधुकरने अत्यंत विश्रामना स्थान, शुद्धास्म अनुभूति परिमलथी भरपूर आपना चरण कमलने, जे हाथ घडे अंचे पूजें तेज हाथ सत्य साभकारी समज छं. तथा हे प्रभु ! शरद रूतन पूर्ण चंद्र समान प्रल्हादक शांति प्रापनार अापना अनंत निर्मल परम पवित्र गुण समूहना चिंतन मननमा जे मन रमे, प्रमोद सहित वर्ते तेज मन सुकृतार्थ-सर्व अथेनी सिद्धि करनार मार्नु छु. पण जेम हरिणने तेना कान मनोज्ञ स्वरमा लुब्ध करी जालमा फसावी शस्त्र बड़े प्राणनो वियोग करावे छे तथा पतंगने जेम तेना नेत्रो मनोज्ञ वर्णमां मोहित करी अग्निनी ज्वालामां तेना देहने भस्मीभूत करावे छे तथा मधुकरने तेनी घ्राणेंद्रि कमलनी Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुवासमां मोहीत करी ते स्थले घेरी राखी तेना वल्लभ प्राणनो त्याग करावे ळे तेम जो माहरूं मन, इंद्रियो तथा अंगोपांग विषय कषायना पदार्थो उपार्जन करवामां, मेलबवामां, तेनु सेवन, तेनी रक्षा करवामां रोकाय, स्वपर जीधना द्रव्य भाव प्राणनी हिंसा करवामां वत्ते-मदकारी थाय, पाप कमर्नु उपार्जन करी भव भ्रमणना हेतु थाय, तो एहवा मन तथा इंद्रियोना लाभथी शुं ? तथा दश दृष्टांत दुर्लभ एहवा मनुष्य भवनो लाभ, पण निष्फल-धयुक्तं- " यः प्राप्य दुःप्राप्यमिदं नरत्वं, धर्म न यत्न न करोति मूढः ।। क्लेशः प्रबंधेन स लब्ध मब्धौ, चिंतामणिं पातयति. प्रमादात् ” ॥ तथा '' ते धत्तर तरूं वपंति भवने प्रोन्मूल्य कल्पद्रुमम् । चिंतारत्न मपास्य काचशकलं स्वीकूते ते जडाः ॥ विक्रीय द्विरदं गिरींद्र सदृशं क्रीणति ते गसभं । य लधुं परिहत्य धर्ममधमा धावति भोगाशया" ॥ ३ ॥ जाणो छो सह जीवनी, साधक बाधक Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भांत जिनवर ॥, पण- श्रीमुखथी सांभली, मन पामे नीरांत जिनवर ॥ श्री० ॥४॥.. ___अर्थः हे त्रिलोक पूज्य ! दर्पण तलनी माफक आपनी केवल-ज्ञान मय उस्कृष्ट ज्योतिमा सर्वे द्रव्यो पोताना त्रैकालिक संपूर्ण पर्यायो सहित प्रयास बिना यथावत् प्रतिधिषित थाय छे. तेथी सर्वे जीवोनी साधक वाधक भांति आप जाणो छो अर्थात् अमुक जीव प्रा समये सम्यक् ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप मोक्ष साधनमां वर्ते छे के रस्न प्रगना प्रत्यनीक पणे भव भ्रमणना हेतु कर्म बंधनमां वर्ते के ए सर्वे वृत्तांत हे करुणा निधि ! आप तो प्रत्यक्ष पणे जाणोछोज. पण जो आपना मुखारविंथी हुँ साधक भावमा वा छं एम सांभखें तो माहरु म्न निरांत पामे, भव भ्रमणना, भयनो क्लेश शमे दूर थाय. ॥ ४ ॥ तीन काल जाणंग भणी, शुं कहिये वारंवार ॥ जि० ॥ पूर्णानंदी प्रभुतj, ध्यान ते परम आधार ॥ जि०॥श्री ॥ ५। अर्थः-त्रणे कालनी परिणतिने हेस्तामलकवत् Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा कार्य सिद्ध थइ गया पछी ते दंडादिमां कारण पंद नथी. कारण के कार्य कारण एक समये छे पण जे. कार्यानंतर तथा प्रथम अप्रयुक्तं काले दंडादिकने निमित्त कारण कहे छे ते मात्र नेगम नयनो मत जाणवो. एम कार्यना स्वरूपनो जाणनार कार्यनो अभिलाषी कर्ता साचा उपादान तथा निमित्तना योगे कार्य सिद्धि पामे पण कारण वगर कार्य सिद्धिनो श्राकाश पुष्पवत् अभाव जाणवो. तेथी हे प्रभु ! ज्ञान पूर्वक निर्धार करतां माहरा परमात्म सिद्धिना पुष्ट हेतु आपने जाणी पापमुंजे शरण अंगीकार करुं छु. निमित्त कारणना बे भेट छे (१) पुष्टनिमित्त (२) अपुष्ठ निमित्त "कार्यस्य आसन्न निमित्तं इति तदेव पुष्टं ” “ दूर तरं कारण नैमित्तिकं तत् अपुष्टं ” अर्थात् साध्य धर्म जेमा प्रगट-विद्यमान होय तथा जेमां कदापि कार्यनो ध्वंसक भाष न होय ते पुष्ट निमित्त जापवं. नेम नीर भगवंतमा परमात्म पद प्रगटविद्यमान छे. या परमात्म पदना घातक भावनो जेमा सर्वथा :भाषले माटे तीर्थंकर भगवंत परमात्म पाबामा पुष्ट निमित्त के एम जाणवू. Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PYA ( पुष्ट हेतु जिनेंद्रोयं मोक्ष सद्भाव साधने) अपुष्ट निमित्त-जेमां साध्य पद विद्यमान न होय, जे कर्त्तानी प्ररेणाथी कारण थाय छ, वली तेमांध्वंसक भाव पण रहेलो होय ते अपुष्ट निमित्त छ. जेम दंड ते घटनुं अपुष्ट निमित्त के कारण के दंडमां घर पणुं विद्यमान नथी वली कुंभार ज्यारे घट करवामा प्रवर्तीवे तोज घटोत्पत्तिनु निमित्त कहेवाय पण जो कुंभार घट ध्वंस करवामां बापरे तो ते घट ध्वंसना निमित्त कहेवाय माटे दंड ते घटनुं अपुष्ट कारण जाणवू. माटे हे. रुषभानन भगयंत ! आप मारा ‘परमात्मपदना पुष्ट निमित्त छो माटे आपनीज सेवाथी मारी सिद्धि, थशे एम जाणी आपनीज सेवा अंगीकार करूं छु..॥ ६॥ , शुद्ध तत्त्व निज संपदा, ज्यां लगे पूर्ण न थाय ॥ जि०॥ त्यां लगे जगगुरु देवना, सेवू चरण सदाय ॥जि०॥श्री० ॥ ७॥ . ___ अर्थः-अज्ञानरूप अंधकारनो अत्यंन नाश करनार तथा सम्यक्ज्ञान दर्शने चारित्र आदि संपूर्ण भास्म गुणनी सिद्धिने प्राप्त होव थी जगत Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रत्यक्ष पणे समकाले जाणवी देखवावाला प्रभु प्रत्ये वारंवार शुं कहुं ! मने तो हे प्रभु ! स्वयंभू. रमण समुद्रनी' पेठे अखूट आनंद रसथी भरपूर पापनाज पदनुं ध्यान-आपना पदमां एकाग्रचित्ततल्लीनता तेज भव समुद्रधी तरवामां उत्कृष्ट आधार भूत छे. ॥५॥ कारणथी कारज हुवे, ए श्री जिनमुख वाण ॥ जि० ॥ पुष्ट हेतु मुज सिद्धिना, जाणी कीध प्रमाण ॥ जि०॥ श्री० ॥६॥ अर्थः-जगत् दिवाकर, संपूर्ण तत्त्व वेत्ता, श्री केवली भगवंत एम प्ररूपे छे के योग्य कारणना योग वडे कार्य सिद्धि थइ शके. अर्थात् कार्यना स्वरूपनो यथार्थ जाणनार कार्यनो अभिलाषी कर्ता, उपादान अने निमित्त कारण वडे कार्य सिद्धि पामी शके. उपादान--जे पदार्थ कार्य सन्मुख थाय तथा तेज संपूर्ण कार्य रुप थाय-कार्य सिद्धिए जेनी हयाति जणाय ते उपादान कारण जाणवू. जेम घटनु उपादान कारण माटी तथा पटर्नु उपादान कारण रु अथवा सूतर, कारण के माटीनो पिंड थाय, पिंडथी स्थास कुसलादि पायो थइ माटीज Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प संपूर्ण घट रूप धाय, संपूर्ण घट थये पण मादीनी हयाती के माटे माटी घटनुं उपादान कारणं समजवु. माटीथीज घट उत्पन्न थह शके पण अन्य वस्तुमाथी घट घट शके नहि. उक्तंच - " यदात्मकं कार्य द्रश्यते तदिह तद द्रव्य करणं उपादान कारणं यथा तंतवः पटस्य इति "" निमित्त- जे उपादान कारणथी भिन्न होय के पण ते विना कार्य सिद्ध थइ शकंतु नथी. कार्य सिद्धं करवामां जेनी खास जरूर छे ते निमित कारण छे. ते निमित्त कारण पद, कर्त्ताने प्राधिन वर्त्ते छे. जेम घटनुं उपादान कारण माटी के अने मादीथा दंड चक्र चोबर आदि भिन्न छे तो प कुंभारने घट सिद्ध करवामां दंड चक्रादिनी अवश्य जरूर छे, ते विना घट बनावी शके नहि, तथी दंड वादि घटनां निमित्त कारण जागवां पण दुष्ट वादिने कुंभार ज्यारे माटीने घट रूप करवामां प्रवर्त्तावे (उपयोगमा ले ) स्थारेज तेडं (दंड चक्रादि) निमित्त कारण कहे वाय पण कुंभार घट कार्य करवामां दडवांदिने वापरता न होती कारण करवायें नाह? कौर्या मांडती पहेली n. forse Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० 12 तथी कार्य सिद्ध थइ गया पछी ते दंडादिमां कारण पंद नथी. कारण के कार्य कारण एक समये छे पण जे कार्यानंतर तथा प्रथम प्रयुक्त काले दंडादिकने निमित कारणं कहे छे ते मात्र नैगम नयनो मत जावो. एम कार्यना स्वरूपनो जाणनार कार्यनो अभिलाषी कर्त्ता साचा उपादान तथा निमित्तना योगे कार्य सिद्धि पामें पण कारण वगर. कार्य सिद्धिनो श्राकाश पुष्पवत् अभाव जाणवो. तेथी हे प्रभु ! ज्ञान पूर्वक निर्धार करतां माहरा परमात्म सिद्धिना पुष्ट हेतु आपने जाणी आपनुज शरण अंगीकार करुं लुं. निमित्त कारणना बे भेद छे (१) पुष्टनिमित्त (२) अपुष्ट निमित्त "कार्यस्य आसन्न निमित्तं इति तदेव पुंष्टं दूर तरं कारण नैमित्तिकं तत् अपुष्टं " अर्थात् साध्य धर्म जेर्मा प्रगट - विद्यमान होय तथा जेमां 'कदापि कार्यनो ध्वंसक भाव न होय ते पुष्ट निमित्त जा 1 77 66 वं. जेम नोकर भगवंतमा परमात्म पद प्रगटविद्यमान के था परमात्म पदना घांतक भावनो जेमां सर्वधः प्रभाष के माटे तीर्थंकर भगवंत परमात्म वामां पुष्ट निमित्त के. एम. जाणवु. " LJ P · Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( पुष्ट हेतु जिनेंद्रोयं मोक्ष सद्भांव साधने), अपुष्ट निमित्त-जेमा साध्या पद विद्यमान न होय, जे कर्त्तानी प्ररेणाथी कारण थाय छ, वली. तेमांध्वंसक भाव पण रहेलो होय ते अपुष्ट निमित्त छे. जेम दंड ते घटनु अपुष्ट निमित्त . कारण के दडमां घर पणुं विद्यमान नथी वली कुंभार ज्यारे घट करवामा प्रवर्तीवे तोज घंटोत्पत्तिनु निमित्त कहेवाय पण जो कुंभार घट ध्वंस करवामां वापरे तो ते घट ध्वंसना निमित्त कहेवाय माटे दंड.ते घटनु अपुष्ट कारण जाणवू. माटे हे रुषभानन भगवंत ! श्राप मारा परमात्मपदना पुष्ट निमित्त छो माटे पापनीज सेवाथी मारी सिद्धि थशे एम जाणी आपनीज सेवा अंगीकार करुं छु..॥ ६॥ , शुद्ध तत्त्व निज संपदा, ज्यां लगे पूर्ण न. __ थाय ॥ जि०॥ त्यां लगे जगगुरु देवना, सेवु चरण सदाय ॥ जि० ॥ श्री० ॥ ७॥ : अर्थः-भज्ञानरूप अंधकारनो अत्यंन नाय करनार तथा सम्यक्ज्ञान दर्शन ' चारित्र आदि संपूर्ण मात्म गुणनी सिद्धिने प्राप्त होक थी जगत Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुरु तथा जगतदेव हे रुषभानन स्वामी ! ज्यांसुधी गद्धात्म तत्त्वरूप स्वाभाविक अखंड अखूट अनुत्तर संपदानी मने संपूर्णपणे सिद्धि प्राप्ति न थाय त्यांसुधी हे दीनदयाल ! आपना द्रव्य भाष रूप चरण युग्मनुं निरंतर सेवन करूं एम भावना भाईं छं ॥७॥ कारज पूर्ण कर्या विना, कारण केम मुकाय जि०॥ कारज रुचि कारण तणा, सेवे शुद्ध उपाय ॥ जि०॥ श्री०॥८॥ अर्थ:-जेम समुद्र पार पामवानो इच्छक पुरुष जो समुद्र बच्चे वहाणनो त्याग कर तो समुद्र पार जइ शके नहि भने बच्चेडूबीजाय. माटे हे भगवंत! परमात्म सिद्धिरूप माहरु कार्य ज्यां सुधि सिद्ध थयु नथी त्यांसुधि पुष्टालंबन रूप अपिना चरण युग्मनी सेवना केम छोड़ें ? कारणं के कार्य सिद्धिनो रुचिवंत पुरुष कार्य सिद्ध थता सुधी शुद्ध कार णोने यथार्थ पणे सेवे-मादरे ए नीति छ. ॥ ८ ॥ ज्ञान चरण संपूर्णता, अव्याबाध अमाय || जि० ॥ देवचंद्र पद पानी, श्री जिनराज Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पासय ॥ जि० ॥ श्री० ॥ ९॥ । अर्थः-स्तवन कर्ता श्री देवचंद्र मुनि कहे छे के तरण तारण सामान्य केवलीमोमां राजा समान श्री रूषभानन तीर्थकरना चरण पसाय सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्रनी संपूर्णता तथा पूर्ण अव्यावाध पणुं तथा अमायी, अलेशी, अकंदी, भलोभीपणा आदि सर्वे आत्म गुणनी संपूर्णता रूप देवमां चंद्रमा समान परमात्म पदनी सिद्धि पामीये, कृत कृत्य थइये, अनंत काल सुधि सहज भखर परमानंद विलासने पामीए.॥६॥ ॥संपूर्ण । ॥ अष्टम श्री. अनंतवीर्य जिन स्तवनम् ॥ ____ धरणाली चामुंडा रण चडे ॥ ए देशी ॥ : ॥ अंनत वीज जिनराजनो, शुचि वीरज परम अनंतरे ॥ निज आतम भावे परिणाम्यो, गुण वृत्ति वर्तनावंतरे ॥ मन मोह्यं 'अम्हारु प्रभु गुणे ॥ १ ॥. . : ... " अर्थः सामान्य केवलीउंमां राजा समान श्री अनंतवीर्य भगवंत ! मापनुं "पीय" ज्ञानदर्शनादि Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वे गुणाने वर्त्तवामां आधारभूत आत्मवीर्य ते " शुचि" पर परिणामिकताथी सर्वथा रहित अत्यंत निर्मल तथा "परमे" जगत्वासी कोइपण जीघोमां एव वीर्य नथी तथा सर्वोत्कृष्ट तथा "अनंत" ज्ञानादि अनंत गुणोपांथी कोइपूर्ण गुणने वर्तवार्मा जरापण स्खलना (व्याघात) न पाये तथा कोइपण काले होगा क्षीण न धाय तेथी अनंत के. ૪ " 1 " एवं श्री अनंतवीर्य, भगवंतनुं परम पवित्र, परमोत्कृष्ट अनंत आत्मवीये ते फक्त ज्ञान दर्शन । दि पोतानाज अनंत गुणने परिणमवामा निःप्रयासपणे सहायरूप सदा परिणमे ले. एम श्री जिनेश्वरना परभावरूप मलिनताथी सर्वथा रहित परम पवित्र ज्ञानादि अनंत गुण जोड़तेमां माहरु मन मोहा -रत युं - लीन धर्यु - गुणानुरागी धर्युः ॥ १ ।। ॥ यद्यपि जीव सहु सदा, वीर्य गुण सत्तावंतरे ॥ पण कर्मे आवृत्त चल तथा पाठ बाधक भाव लहंतरे ॥ मन० ॥ १ ॥ " - ! अर्थः- वीर्य ए जीबनो मूल गुहा छे तेथी सर्वे जीवो त्रणे काले वीर्य गुणनी सत्ता सहित के एटले कोइपण 'जीब कोइप काले बीर्य वगरनो Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ સ " D ६ नधी; तथापि संसारी जीवोनुं वीर्य अनादिधी, कर्म पटल बडे प्रवृत्त होवाथी. आत्मगुणो. संपूर्ण शुद्ध केवलज्ञान, केवलदर्शन, येथाख्यात् चारित्रादि रूप परिर्मि शकता नथी अने तेथी पोतांनी अनंत अत्र्याबाध आत्मीय सहज समाधिथी-वियोगी रहे छे. तथा "ल" अर्थात् ज्ञानादि मास्म परिणतिमां निश्चल स्थिर नहि रहेतां राग द्वेष वशे अनेक पुद्गल पर परिणतिमां चलायमान थह रघु छे, पर कार्यमा रोक इथं. छे, जेम कोइ पुरुष पर कार्यमा पोतानी शक्ति रोके तो ते स्वकार्य साधी शके नहि तेमज ते वीर्य "बाल" हिताहितना ज्ञानथी रहित होवाथी “बाधकं" अर्थात् पोताने अहितकारी पणे परिणमे छे कारण के बाल बाधक वीर्य बडे जगत् जीवो अज्ञान मिथ्यात कषाय रूप परिणामी अनेक प्रकारना कर्मो बांधि पोताने अत्यंत अहितकारी - दुःख समूह रूप भवोपाधि व्हारी ले थे. पण जो पोताना वीर्य गुणने मात्र सम्यक् ज्ञान दे आत्म परिणाममांज बापरे तो अनंत सुखना स्वामी थाय ॥ २ ॥ ' } ," A { "अल्प वीर्य क्षयोपशम अछे, अविभाग / वर्गणा रूपरे ॥ पडगुण एम असख्यथी, * ५ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थाये योगस्थान स्वरूपरे । मन० ॥३॥ सुहम निगोदी जीवथी, जाव सन्नीवर पझात्तरे । योगनां ठाण असंख्य छ, तरतम मोहे परायत्तरे ॥ मन० ॥४॥ - अथः-सर्वे छद्मस्थ जीवोनुं आस्म वीर्य क्षयोपशम. भावे सदा होय पण सर्वथा भावृत्त थाय नहिं. जो सर्वथा भावृत्त होय तो चेतनतानो समूल प्रभाव थाय तेथी छमस्थ जीयोनो पण वीर्य गुण क्षयोपशम भावे होयज अर्थात् छद्मस्थ जायोने पण वीर्यातरायनो सदा क्षयोपशम होय अने वीर्यातरायना क्षयोपशम वडे छद्मस्थ जीवोने अल्पवीर्यनी प्रगटता होय छ भने ते अल्पयोर्यनी प्रगटताना कारणथी रत्नन्नयनी मलिनताने योगे पोताना कर्तृत्त्व स्वभावने लीधे कर्म ( क्रिया) रंगे आस्म प्रदेश चलायमान करे के एटले " आत्म प्रदेश परिस्पदो योगः" ए सूत्र प्रमाणे योगी पान के पदयुक्तला उत्पनीरय लेश्या सगे, आभलंधिज मति गरे। सूक्ष्म शूल-क्रिया Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने रंगे, योगी थयो उमंगेरे ॥” एम योग वशे कर्मनो ग्राहक थाय ले. ते योगर्नु स्वरूप निचे प्रमाणे " वीयांतराय क्षयोपशमोत्पन्नो मनो वचन काय वर्गणालंबनः कर्मादान हेतुभूत आत्मप्रदेश परिस्पदो योगः ” वीर्यातराय 'कमना क्षयोपशम वडे उत्पन्न मन वचन अने काय वर्गणानु अवलंबन करनार कर्म ग्रहण करवामां कारणभूत आत्म प्रदेशनुं परिस्पद ( संचलन ) ते योग छे. तिहां जघन्य वीर्यवालो जे जीवप्रदश ते वली केवलीना तीक्षण बुद्धि रूप शने करी छेदतां जे वीर्याशनो वीजो विभाग थई शके नहि ते वीर्य विभाग के अने भावाणु पण तेनेज कहीये. तेषा लोकाकाशथी असंख्यात गुणा जे वीर्याणू तेणे करी सहित जे जीवप्रदेश तेनो समुदाय एटले जीवप्रदेशनी श्रेणी ते प्रथम वर्गणा, तेथी एक वीर्य विभागे अधिक एवी जे जीव प्रदेशनी श्रेणी से बीजी वर्गणा, बे वीर्यविभागे अधिक एवी जे जीव प्रदेशनी श्रेणी ते त्रीजी वर्गणा, एम एकेक वीर्य'विभागे अधिक वीर्यवाला प्रवेशनी श्रेणी ते घनीकृत लोकनी एक प्रदेशिक सूची श्रेणीने असंख्यात Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 मे भागे जेटला आकाश प्रदेश होय तेटली वर्गणाए एक स्पर्धक थाय, ते प्रथम स्पर्धकनी उत्कृष्ट वीर्याश वर्गणाथी एटले बेल्ली वर्गणाथी एक बे अथवा संख्याते वीर्यविभागे अधिका कोइ जीव प्रदेश नथी परन्तु असंख्य लोकाकाश प्रमाण वीर्यांशे अधिक जीव प्रदेशनी श्रेणी ते बीजा स्पधेकनी प्रथम वर्गणा जाणवी, वली तेथी एकेक वीर्यविभागे वधता वधता जीव प्रदेशनी वर्गेणाए करी बीजो स्पर्धक थाय, तेथी वली असंख्य लोकाकाश प्रदेश भाग प्रमाण वीर्यांशे अधिक वीर्यवंत जीव प्रदेशनी श्रेणी ते त्रीजा स्पर्धकनी प्रथम वर्गणा, एणी पेरे श्रेणी प्रदेश असंख्येय भाग प्रमाण स्पध के पहेलु जघन्य योगस्थानक थाय, तेथी गुलना संख्यातमां भागना आकाश प्रदेश प्रमाण स्पर्धके बधतुं बीजु योगस्थानक होय, तेथी वली तेटलेज स्पर्धके बधतुं त्रीजुं योग स्थानक होय, एम असंख्याता योगस्थान थाय. वीर्यात्तरायना क्षयोपशमना असं ख्य भेद छे तेथी उपर प्रमीणे योगना पण अस ख्याता भेद थाय अर्थात् सूक्ष्म निगोदीच लब्धि अपर्याप्त जीवने भव प्रथम समये सहुधी जघन्य योग होय छे अने सन्नि पंचेंद्रि पर्याप्ता मनुष्य सौधी 1 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस्कृष्ट योग पामी शके छे एम मोहनी तरतमता वशे ( वीर्यातरायना क्षयोपशमना भेद वशे) सूक्ष्म निगोदिया लब्धिअपर्याप्ता जीवना भव प्रथम समयथी मांडी सन्नि पंचेंद्रिय मनुष्य सुधी असंख्यात योगस्थान जाणवां ॥३॥४॥ संयमने योगे वीर्य ते, तुम्हें कीधो पंडित दक्षरे ॥ साध्य रसी साधक पणे, अभिसंधि रम्यो निज लक्षरे ॥ मन०॥५॥ अर्थ:-ज्यांसुधी सम्यक्दर्शन सम्यज्ञाननी प्राप्ति थइ नथी त्यांसुधी संसारी जीव मिथ्यात अज्ञानवशे पौद्गलीक कार्यने पोतार्नु कार्य मानी वीर्यातरायना क्षयोपशम वडे प्राप्त थयेला आत्म. वीर्यने असंयममा अर्थात् स्वपर जीवनी द्रव्यभाव हिंसामां वापरे छे, पोताना वीर्यने बाल बाधक भावे परिणमावे छे, पोताना वीर्य वडे कर्मबंध करी भव भ्रमणनी उपाधि प्राप्त करे छे. पण हे भगवंत! मापे सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान वडे पोतानुं शुद्धोपयोग रूप कार्य जाणी बाल बाधक भावनो परिहार करी क्षयोपशम वडे प्राप्त थयेला वीर्यने संयम कार्यमा जोडयुं अर्थात् ज्ञानदर्शन चारित्रने निर्मल Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पणे परिणमवामां सहायकारी कर्यु. मन वचन तथा काययोगने संयम कार्यमा जोड्या एम भास्मवीर्यने पंडितभावे तथा हितकारी भावे परिणमाव्यु. सचिदानंदमय शुद्धात्म द्रव्य पोतानुं शुद्ध साध्य जाणी तेना रसीया-ते साधवाना 'उमंगी थइ अभिसंधिज वीर्यने ( जे'मतिपूर्वक उपयुक्त वीर्य ते अभिंसधिज वीय ) निज लक्षमां एटले अनंतसुखे पिंड जे शुद्धात्मपद ते साधवामां रमाव्युवापर्यु. एम अभिसंधिज वीर्यने शुद्ध कारक प्रवृत्तिमा जोडी प्रबंधक भावे परिणमाव्यु ॥५॥ अभिसंधि अंबंधक नापने, अनभिसंधि अबंधक थायरे ॥ स्थिर एक तत्त्वता वर्त्ततो ते क्षायिक भाव समायरे ॥ मन० ॥६॥ ___ अर्थः-एम हे भगवंत ! आपन अभिसंधिज वीर्य प्रबंधक भावे वर्तवाथी अनभिसंधिज वीर्य । पण प्रबंधक भावे परिणम्यु ( मन चिंतनापूर्वक • पाहार विहाराक जे करण व्यापार ते अभिसं. धिज वीर्य कहीये अने जे मन चिंतना विना केवल वचन अने कायाना व्यापार ते अनभिसंधिज वीर्य कहीये) माटे जेनी मनोवृत्ति-मंतरंग उपयोग Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भयंधक भावमा वर्से छे तेनी वचन श्रने कायानी क्रिया पण अपंधक भावमांज गणाय, संवर हेतुज गणाय. यद्यक्तं-भावात्रवाभावमयं प्रपन्ना, द्रव्यात्रवेभ्यः 'स्वत एव भिन्नः ज्ञानी सदा ज्ञान मयेक भावो, निरालवो ज्ञायक एक एव.” एम द्रव्यसंवर तथा भावसंचरना स्वामी थइ कर्मबंधनो परिहार करी आत्मवीर्यने निर्मल रस्नत्रयमा सहायभूत करी पं.ताना निभल एक परमात्मतत्वमा स्थिर तल्लीन पणे वर्ततां "क्षायिक भाव समायरे” शुद्धात्म परिणतिनो व्याघात करनार घातीया कर्मनो समूल क्षय करी अनंतज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य रूप पोतानी अनुपम अविनश्वर केवल लक्ष्मीने वर्या, तेरमा गुणस्थाने विराजमान थया ॥६॥ ॥ चक्र भ्रमण न्याय सयोगता, तजी कीध अयोगी धामरे ॥ अकरण वीर्य अनंतता, निजगुण सहकार अकामरे । मन० ॥ ७॥ अर्थः-पछी चक्रभ्रमण न्याये अर्थात् चक्रने फेरववा माटे कुंभार चक्रमां दंड घाली बहु जोरथी Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ एकदम चक्रने फेरवे छे तेथी ते पलना वेग वडे दंड काढी लीधा पछी पण केटलीकवार सुधी चक्र फर्या करे छे. तेम अनादि कालथी आस्मा अज्ञान वशे पर कार्यने पोतान कार्य मानी ममत्व सहित योग क्रियामा प्रवृत्ति करे छे तेथी केवल ज्ञान थये पण दंड काढी लीधा पछी चक्र जेम फर्या करे छे तेम तेरमा गुणस्थाने पूर्व उदयवडे निर्ममत्वपणे योगक्रिया थाय छ तेथी तेरमा गुणस्थाने पण सयोगीपणुं छे ते चक्रभ्रमण न्याये रहेली सयोगता एटले सयोगीपणानो पण हे भगवन ! आप स्याग करी " कीध अयोगी धामरे" अयोगी गुणस्थाने पधार्या करणवीर्य एटले इंद्रिजन्य बलवीर्यनो त्याग करी अतींद्रिय अनंत श्रात्मीक वीर्यनी प्रगटता करी. जे वीर्य मात्र ज्ञानादिगुण वर्तनामांज सहायकारी थाय पण अन्यद्रव्यनी कामनामांकदापिकाले चलाय. मान थाय नहि. तेथी हे भगवंत ! श्राप अकरण वीर्यना प्रभाव वडे अनंतकाल सुधी अकाम तथा स्वानुभूति जन्य परमानंदमां निरंतर विलास करशो. ॥७॥ ॥ शुद्ध अचल निज वीर्यनी, नैरुपाधिक शक्ति अनंतरे ॥ ते प्रगटी में जाणी सही, Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेणे तुमाहज देव महंतरे ॥ मन० ॥८॥ अर्थ:-सर्व विभाग रूप सश्लेष रहित जे आत्म वीर्य ते शुद्ध छे, तथा तेज वीर्य कामना रहित मात्र पोनाना स्वगुण पर्यायमा वर्तवाथी परगुण पर्यायमां चलायमान थतुं नथी तेथी अचल छे, एबा शुद्ध अने अचल वीर्यनी नैरुपाधिक अर्थात् स्वाभाविक अनंत शक्ति छ अर्थात् ते वीर्य वडे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन विगेरेनी वर्तना थाय छे माटे ज्यांसुधी वीर्यगुणमा अशुद्धपणुं तथा चलपणुं छे'. स्यांसुधी अल्प बल छ, अनंत ज्ञानदर्शनरूप अनंत शक्ति होइ शके नहि. पण हे भगवंत ! ते शुद्ध अने अचल वीर्यनी स्वाभाविक अनंत शक्ति प्रापमा प्रगटपणे छे एम में निसंदेह जाण्यं कारण के एक समयमां सर्व पदार्थना कालिक पर्यायने प्रगटपणे जाणो देखो छो तेथी हे भगवत ! आपज देव इंद्रादिकने पूजवा लायक देवाधिदेव छो, अनंत केवल लक्ष्मी वडे सदा देदिप्यमान छो॥८॥ तुज ज्ञान चेतना अनुगमी, मुज वीर्य स्वरूप समायरे ॥॥ पंडित क्षायिकता पामशे ए पूरण सिद्धि उपायरे ॥ मन० ॥ ९ ॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० पणे परिणमवामा सहायकारी कर्यु. मन वचन तथा काययोगने संयम कार्यमा जोड्या एम भास्मवीर्यने पंडितभावे तथा हितकारी भावे परिणमाव्युं. सच्चिदानंदमय शुद्धात्म द्रव्यन पोतार्नु शुद्ध साध्य जाणी तेनी रसीया-ते साधवाना उमंगी थइ अभिसंधिज वीर्यने ( जेमतिपूर्वक उपयुक्त वीर्य ते अभिसधिज वीय ) निज लक्षमां एटले अनंतमुखे पिंड जे शुद्धात्मपद ते साधवामां रमाव्युवापर्यु. एम अभिसंधिज वीर्यने शुद्ध कारक प्रवृत्ति मां जोडी प्रबंधक भावे परिणमाव्यु ॥५॥ - अभिसंधि अंबंधक नीपने, अनभिसंधि अबंधक थायरे ॥ स्थिर एक तत्त्वता वर्त्ततो ते क्षायिक भाव समायरे ॥ मन० ॥६॥ __ अर्थ:-एम हे भगवंत ! अापन अभिसंधिज वीर्य प्रबंधक भावे वर्तवाथी अनभिसधिज वीर्य । पण प्रबंधक भावे परिणायु ( मन चिंतनापूर्वक माहार विहारा िक जे करण व्यापार ते अभिसंधिज वीर्य कहीये अने जे मन चिंतना विना केवल वचन अने कायाना व्यापार ते अनभिसंधिज वीर्य कहीये) माटे जेनी मनोवृत्ति-शतरंग उपयोग Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ अधक भावमां व छे तेनी बचन अने कायानी ऋिया पण प्रबंधक भावमांज गणाय, संवर हेतुज गणाय. यद्यक्तं - भावास्त्रवाभावमयं प्रपन्ना, 1 "" एव. द्रव्यास्त्रवेभ्यः स्वत एव भिन्नः ज्ञानी सदा ज्ञान मयैक भावो, निरास्त्रवो ज्ञायक एक एम द्रव्यसंवर तथा भावसंवरना स्वामी थइ कर्मबंधनो परिहार करी आत्मवीर्यने निर्मल रत्नत्रयमां सहायभूत करी पोताना निर्मल एक परमात्मतत्त्वमां स्थिर तल्लीन पणे वर्त्ततां " क्षायिक भाव समायरे " शुद्धात्म परिणतिनो । व्याघात करनार घातीया कर्मनो समूल क्षय करी अनंतज्ञान अनंतदर्शन / अनंतसुख अनंतवीर्य रूप पोतानी अनुपम अविनश्वर केवल लक्ष्मीने वर्या, तेरमा गुणस्थाने विराजमान थया ॥ ६ ॥ ॥ चक्र भ्रमण न्याय सयोगता, तजी कीध अयोगी धामरे || अकरण वीर्य अनंतता, निजगुण सहकार अकामरे ॥ मन० ॥ ७ ॥ अर्थः- पछी चक्रभ्रमण न्याये अर्थात् चक्रने फेरवचा माटे कुंभार चक्रमां दंड घाली बहु जोरथी Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ एकदम चक्रने फेरवे छे तेथी ते पलना वेग वडे दंड काढी लीधा पछी पण केटलीकवार सुधी चक्र फों करे छे. तेम अनादि कालथी आस्मा अज्ञान वशे पर कार्यने पोतानुं कार्य मानी ममस्व सहित योग क्रियामा प्रवृत्ति करे छे तेथी केवल ज्ञान थये पण दंड काढी लीधा पछी चक्र जेम फयां करे छे तेम तेरमा गुणस्थाने पूर्व उदयवडे निर्ममत्वपणे योगक्रिया थाय छे तेथी तेरमा गुणस्थाने पण सयोगीपणुं छे ते चक्रभ्रमण न्याये रहेली सयोगता एटले सयोगीपणानो पण हे भगवंत ! आप स्याग करी " कीध अयोगी धामरे" अयोगी गुणस्थाने पधार्या करणवीर्य एटले इंद्रिजन्य वलवीर्यनो स्याग करी अतींद्रिय अनंत श्रात्मीक वीर्यनी प्रगटता करी. जे वीर्य मात्र ज्ञानादिगुण वर्तनामांज सहायकारी थायपण अन्यद्रव्यनी कामनामां कदापिकाले चलाय. मान थाय नहि. तेथी हे भगवंत ! श्राप प्रकरण वीर्यना प्रभाव वडे अनंतकाल सुधी अकाम तथा स्वानुभूति जन्य परमानंदमां निरंतर विलास करशो. ॥७॥ ॥शुद्ध अचल निज वीर्यनी, नैरुपाधिक शक्ति अनंतरे ॥ ते प्रगटी में जाणी सही, Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०३ तेणे तुमाहज देव महंतरे ॥ मन० ॥८॥ अर्थ:-सर्व विभाग रूप संश्लेष रहित जे आत्म वीर्य ते शुद्ध छे, तथा तेज वीर्य कामना रहित मात्र पोताना स्वगुण पर्यायमा वर्तवाथी परगुण पर्यायमां चलायमान थतुं नथी तेथी अचल छे, एबा शुद्ध अने अचल' वीर्यनी नैरुपाधिक अर्थात् स्वाभाविक अनंत शक्ति छ अर्थात् ते वीर्य वडे अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन विगेरेनी वर्त्तना थाय छे माटे ज्यांसुधी वीर्यगुणमा अशुद्धपणु तथा चलपणुं छे स्यांसुधी अल्प बल छे, अनंत ज्ञानदर्शनरूप अनंत शक्ति होइ शके नहि. पण हे भगवंत ! ते शुद्ध अने अचल वीर्यनी स्वाभाविक अनंत शक्ति प्रापमा प्रगटपणे छे एम में निसंदेह जाण्यु कारण के एक समयमां सर्व पदार्थना कालिक पर्यायने प्रगटपणे जाणो देखो छो तेथी हे भगवत ! आपज देव इंद्रादिकने पूजवा लायक देवाधिदेव छो, अनंत केवल लक्ष्मी वडे सदा देदिप्यमान छो ॥८॥ तुज ज्ञान चेतना अनुगमी, मुज वीर्य स्वरूप समायरे ॥ ॥ पंडित क्षायिकता पामशे ए पूरण सिद्धि उपायरे ।। मन० ॥ ९ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-हे भगवंत ! तमारा निरंतर शुद्ध परिणमता कवल ज्ञानादि गुणोने माहरी चेतना अनुगमे अर्थात् मारो चैतन्य उपयोग तदनुयायी वर्ते, केवल ज्ञान केवलदर्शन रूप परिणमवानो रसीयो थाय तो माहरु अ त्मवीर्य " स्वरूप समायरे " राग द्वेषादि सर्व विभाविक कार्यमा उत्सुक तथा स्फुराय. मान थतुं अटकी केवल आत्म गुणनेज सहायभूत पणे वर्ते. एम माहरु वीर्य पंडित भावे प्रबंधक 'पणे वर्त्ततां क्षायिक लब्धिने प्राप्त करशे एज पूर्णपदे सिद्ध थवानो साचो उपाय छे ।। ६ ।। ॥नायक तारक तुं धणी, सेवनथी आतम सिद्धिरे ॥ देवचंद्र पद संपजे, वर परमानंद समृद्धिरे ॥ मन० ॥ १० ॥ अर्थः हे अनंत वीर्य प्रभु ! आ जगत्त्रयमां सर्वेथी उत्कृष्ट अनंतवीय श्रापर्नु होवाथी प्रापज नायक छो, वली भवससुद्रमा दूपता भव्य प्राणीयोने श्रापे निर्माण करेला चरण जहाजे बेसाडी भवसमुद्रमांधी तारवाने श्रापज समर्थ होवाथी तारक छो, वली मोहादि शत्रुउंथी रक्षा करवामां प्रापज समर्थ होवाथी धणी छो, सथी हे भगवंत ! Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ . प्रापनेज क्षेषवाथी मारी सिद्धि थशे तथा देवमां चंद्रमा समान अरिहंत पदनी प्राप्ति, थशे तथा परमानंदरूप उत्तम समृद्धिनी संपासि थशे. ॥१०॥ ॥संपूर्ण ॥ . ॥अथ नवम श्री सूरप्रभ जिन स्तवनम् ॥ ॥ देशी कडखानी॥ सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शूरता, तेणे चिरकालनो मोह जीत्यो ॥ भाव स्यादवादता शुद्ध परंगास करी, नीपन्यो परमपद जग वदीतो ॥ स० ॥१॥ ___ अर्थ:-अनादिकालथी लागेलो मोहरूप महान्, शन्नु के जे दर्शन-मोहनीय प्रकृति वडे भास्माना सम्यक् दर्शन गुणनो, तथा क्रोध बड़े भात्माना क्षमा गुणनो, मान वडे आस्माना मार्दव गुणनो, माया वडे श्रात्माना आर्यव गुणनो,, तथा लोभः बडे भास्माना मुत्ति-निर्लोभ-निस्पृह गुणनो, एम. भनेक गुणनो घात करी भास्मानी शुद्ध सहज अपरिमित भात्मीय समाधिनो नाश करी भवरूप जेलखानामां त्रिलोकपूज्य भास्माने के करी राखे Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे. तेनो (मोहनो) जगत्त्रयना ईश्वर, जगत् शिरोमणी श्री सूर प्रभुए अत्यंत तीक्षण सम्यक्पराक्रमथी सम्यक् ज्ञान चारित्र रूप अत्यंत तीक्षण मम भेदक शस्त्रो वडे छिन्न भिन्न करी अल्पकालमां पराजय-समूल नाश कर्यो भविष्यमां कोई पण काले एवं दष्ट कत्य करवाने पुनः समुस्थित-संजीवन थाय नहि. अने जीवादि पंचास्तिनी शुद्ध स्याद्वादपणे तथा लक्ष्य लक्षण अभेदपणे शुद्ध निश्चय नये निजपर सत्ता जाणी सत्तागते रहेला अनंत धर्मात्मक शुद्धात्म द्रव्यने कर्म मलथी रहित अत्यंत शुद्ध प्रगट करो जगत् त्रयमा पूज्य, प्रशंसनीय, श्राह्लादकारी, आदरणीय परमात्म (मोक्ष) पद निपजाव्यु-संप्राप्त कयु-ययुक्तं-शार्दुल विक्री डितम् ॥ " त्यक्त्वाऽशुद्धि विधायि तत्किल पर द्रव्यं समग्र स्वयं, स्वद्रव्ये रति मेति यः सनियतं सर्वापराधच्युतः; बन्धध्वंस मुपेत्य नित्य मुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-चैतन्यामुंतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते " ॥१॥ प्रथम मिथ्यात्व हणि शुद्ध देसण निपुणे, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रगट करि जेणे अविरति पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कलुषता सवि विणाशी ॥ २ ॥ सू०॥ ... अर्थः-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद जे रीते सिद्ध कर्यु ते साधना क्रम सहित बखाणे छे. ___प्रथम तो, जेना उद्य बडे भात्मा शुद्ध देवने भदेव, अदेवने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने अजीव, मजीवने जीव, मोक्षने प्रमोक्ष, अमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करें छे तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति __ तथा मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश करी चिंतामणि रस्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्पदर्शन संप्राप्त कर्यु के जे इंद्रत्व, चक्रि - स्व, चिंतामणि तथा कल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि कप्पदुमस्स कोडीण।लाभो सुलहो दुलहो, दंसणोतीथ्यनाहस्स ॥" तथा जे विना नषपूर्व Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १०८ सुधीनुं ज्ञानपण अज्ञान कहेवाय छे त जे विना दशमा पूर्वतुं ज्ञान तो थतुंज नथी, चली जे विना संसार परिभ्रमणनी सीमा प्रावती नधी, जे विना सम्यक्चारित्र-संयमनी प्राप्ति थई शकती नथी, जे विना द्रव्यचारित्र पालनार प्रथम गुणस्थाने वर्ते छे माटे श्री जिनेश्वर, सर्व धर्मनुं मूल तथा मोक्षनुं प्रथम पगथीउ कहे है. ययुक्तं-श्रा मदभयदेव आचार्येण-" दसण मूलो धम्मो, उबइठो जिणवरेहिं सीसाणं । तं सोउण सकन्नं, दसण हीणो न वदिवो ॥ ” लोकालोक प्रकाशक श्री जिनेश्वर देव पोताना शिष्यो प्रत्ये सर्वे धर्मनु मूल सम्यकदर्शनने बतावे छे माटे दर्शन हीण पुरुषने वंदना करवी नहि. उक्तंच-"सम्मत्त रयण भठा, जाणता बहु विहावि सछाई । सुद्धाराहण रहिआ, भमंति तछेव तछेव ॥", सम्यक्दनथी भ्रष्ट पुरुष बहु प्रकारना शास्त्र जाणता छतां पण शुद्ध श्राराधना रहित होवाथी संसार चक्र वा मां ज्यां स्यां भ्रमण कर्या करे छे कारणके सम्यक्दर्शन विना शुद्ध पाराधनानी प्राप्ति होय नहि. "शुद्ध किया तो संपजे, पुग्गल Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ आवर्तने अधरे”. “जह मूलंमि विणठे, दुमस्त परिवार नच्छि परिवुढी । तह जिण दसण भठा, मूल विणठा ण सिझति ॥" . जेम मूल विनष्ट, वृक्ष शाखा परिशाखानी परिवृद्धि पामे नहि, तेमधर्मनुं मूल सम्यक्दर्शन नष्ट थत्तां मोक्ष प्राप्ति थाय नहि. ___ “जिण पणत्त धम्म, सद्दहमाणस्त होइ रयणमिणं । सारं गुण रयणाणय, सोवाणं पढम मोरकस्त ॥” . ____ गुण रत्नाकरमा सारभूत जे सम्यक्दर्शन ते श्री जिन प्ररुपित धर्मनी श्रद्धा राखनारने होय छे अर्थात् नयनिक्षेप पक्ष प्रमाण युक्त जिन प्ररुपित तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यक्दर्शन छे जे मोक्षनु प्रथम सोपान ( पगथी उं) छे. "संजम रहिअंलिंगं, दंसण भठं न संजम भाणयं । आणा होणं धम्म, निरत्थय होइ सव्वंपि ॥” . . साधुनो लिंग-वेश, संजम विना शोभा पामे Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० नहि तथा फल पामे नहि. अने सम्यक्दर्शन भ्रष्ट ने संजम का नथी एम जिनेश्वरनी प्राण' रहित सर्वे धर्मक्रिया निरर्थक अर्थात् मोक्ष फल प्रापी शके नहि. तथा योगनी वीशीमा कां छे के "णाण गुणेहिं विहिणा, किरिया संसार बढणी भाणिया” ज्ञान गुण बगरनी क्रिया संसार वधारनारी कही छे. कारण के सम्यकज्ञान वगर संवर थाय नहि. अने संवर विना सर्वे समये कर्मबंध थाय अने कर्मबंधथी संसार वृद्धि थाय ए स्पष्ट छे. तथा सम्यकदर्शन रहितने व्रत पालता छतां पण तत्त्वार्थस्सूत्रमा भव्रती कहे छे " निशल्यो व्रती" मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य, अनिदानशल्य रहित व्रतधारी होय ते ब्रती छे. तथा वली श्रीमान् यशोविजयजी कहे छे के “रागमल्हार-भावीजेरे समकीत जेहथी रुअडु, ते भावनारे भावो मन करी परवडुं । जो समकीतरे ताजू साजु मूलरे, तो व्रत तरुरे दीये शिवपद अनुकूलरे। चूटक-अनुकून मूल रसाल समकीत, तेह विण मति अधरे । जे करे किरिया गर्व भरिया, हते जूठो धंबरे ॥” मा टे Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १११ जो समकीतमूल ताजूं होय तो व्रततरु शिव फल प्रापी शके माटे मोक्षफलना इच्छुक पुरुषे सवधी पहेलां समकीत रत्न प्राप्त करवानों उद्यम करबो ए सार छे. माटे समकीत शी वस्तु ठे ते जाणवुं जोइये.. " जिय अजय पुणपावा-सव संवर बंध मुस्क निझरणा । जेणं सद्दहइ तयं, सम्मं खइंगाइ बहु भेअं ॥ " t 1 जीवा जीवादिक नव तत्त्वनुं स्वरूप श्री जिनेश्वरना आगम प्रमाणे नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणे यथार्थ ज णी सद्दह तथा हेय तत्त्वने छांडवानी रूची तथा उपादेय तत्त्वने प्रदरवानी रूची ते समकीत जावं, तथा च तत्त्वार्थ सूत्रे - " तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् - " " जीवाजीवास्रव बंध संवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्- तेमां जीवतत्ष, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, भने मोक्षतत्त्व ए चार तत्त्व उपादेय में था अजीव आस्रव बंध ए श्रय तत्त्व आत्म गुणना रोधक होवाथी हेय ऐ. माटे उपादेयने आदरवानी रुची तथा हेय तत्त्व Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ के. तेनो (मोहनो) जगत्त्रयना ईश्वर, जगत् शिरोमणी श्री सूर प्रभुए अत्यंत तीक्षण सम्यक्पराक्रमथी सम्यक् ज्ञान चारित्र रूप अत्यंत तीक्षण मम भेदक शस्त्रो वडे छिन्न भिन्न करी अल्पकालमा पराजय-समूल नाश कर्यो भविष्यमां कोई पण काले एबुं दुष्ट कृत्य करवाने पुनः समुस्थित-संजीवन थाय नहि. अने जीयादि पंचास्तिनी शुद्ध स्याद्वादपणे तथा लक्ष्य लक्षण अभेदपणे शुद्ध निश्चय नये निजपर सत्ता जाणी सत्तागते रहेला अनंत धर्मात्मक शुद्धात्म द्रव्यने कर्म मलथी रहित अंत्यंत शुद्ध प्रगट करो जगत् त्रयमां पूज्य, प्रशंस. नीय, प्राह्लादकारी, अादरणीय परमात्म (मोक्ष) पद निपजाव्यु-संप्राप्त कयु-यद्युक्तं-शार्दुल विक्री डितम् ॥ " त्यक्त्वाऽशुद्धि विधायि तत्किल पर द्रव्यं समय स्वयं, स्वद्रव्ये रति मेति यः संनियतं सर्वापराधच्युतः, बन्धध्वंस मुपेत्य नित्य मुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-चैतन्यामृतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते " ॥१॥ प्रथम मिथ्यात्व हणि शुद्ध दसण निपुण, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ प्रगट करि जेणे अविराति पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कल्लुषता सवि विणाशी ॥ २॥ सू०॥ .. अर्थः-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद् जे रीते सिद्ध कर्यु ते साधना क्रम सहित बखाणे छे. प्रथम तो, जेना उद्य घडे भात्मा शुद्ध देवने भदेव, प्रदेधने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने श्रजीव, मजीवने जीव, मोक्षने अमोक्ष, भमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करे छ तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति तथा मिअमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश करी चिंतामणि रत्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्यक्दर्शन संप्राप्त कयु के जे इंद्रत्व, चक्रि. स्व,चिंतामणि तथाकल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि कप्पदुमस्स कोडीण। लाभो सुलहो दुल्हो, दैसणोतीच्यनाहस्त ॥" तथा जे विना नयपूर्व Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ छोडवानी रूची होय तेनेज समकीती जाणवो पण मात्र जीव्हाने बोलवाथी समकीत नथी. कारण के श्री जिनेश्वर समकीतनां पांच लक्षण कहे छे. भने लक्षण विना लक्ष्यनो भसद्भाव होय ए न्याय छ माटे " उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने आस्तिक्यता" ए पांच लक्षणो जे जीवमां न होय ते जीवने समकीत छे एम केम मनाय.१ , उपशम-क्रोधादि कषायोने उपशांत करे.. , संवेग-सहज निरूपाधिक परमात्म पद प्रगट करवानी रूची. निर्वेद-संसारने तधा पौद्गलीक विषयोने हालाहल विष समान जाणी तेथी निवृत्ति थवानी रूची. . . .. ___ अनुकंपा-स्वपर जीवनां द्रव्य भाव प्राण घात करवानो परिणाम नहि.... ., मास्तिक्यता-अनंतज्ञानी अने वीतरागी प्राप्त श्री जिनेश्वरनुं एक’ पण वचन अन्यथा न होय एवी श्रद्धा. " Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापनेज सेघवाथी मारी सिद्धि थशे तथा देवी चंद्रमा समान अरिहंत पदनी प्राप्ति थशे तथा परमानंदरूप उत्तम समृद्धिनी संप्राप्ति थशे. ॥१०॥ ॥संपूर्ण ॥ ॥अथ नवम श्री सूरप्रभ जिन स्तवनम् ॥ ॥ देशी कडखानी॥ सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शूरता, तेणे चिरकालनो मोह जीत्यो ॥ भाव स्यादवादता शुद्ध परगास करी, नीपन्योः परमपद जग वदीतो ॥ सू० ॥१॥ __ अर्थ:-अनादिकालथी लागेलो मोहरूप महान् शन्नु के जे दर्शन-मोहनीय प्रकृति वडे भास्माना, सम्यक् दर्शन गुणनो, तथा क्रोध बडे प्रात्माना क्षमा गुणनो, मान वडे प्रात्माना मादव गुणनो, माया वडे श्रात्माना आर्यव गुणनो, तथा लोभ घडे भास्माना मुत्ति-निर्लोभ-निस्पृह गुणनो, एम भनेक गुणनो घात करी आस्मानी शुद्ध सहज अपरिमित प्रात्मीय समाधिनो नाश करी भवरूप जेलखानामां त्रिलोकपूज्य भास्माने केद करी राखे Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ के. तेनो (मोहनो) जगत्त्रयना ईश्वर, जगत् शिरोमणी श्री सूर प्रभुए अत्यंत तीक्षण सम्यक्पराक्रमथी सम्यक् ज्ञान चारित्र रूप अत्यंत तीक्षण मम भेदक शस्त्रो वडे छिन्न भिन्न करी अल्पकालमां पराजय-समूल नाश कर्यो भविष्यमां कोई पण काले एबुं दुष्ट कृत्य करवाने पुनः समुस्थित-संजीवन थाय नहि. अने जीयादि पंचास्तिनी शुद्ध स्याद्वादपणे तथा लक्ष्य लक्षण अभेदपणे शुद्ध निश्चय नये निजपर सत्ता जाणी सत्तागते रहेला अनंत धर्मात्मक शुद्धात्म द्रव्यने कर्म मलथी रहित अंत्यंत शुद्ध प्रगट करी जगत् अयमां पूज्य, प्रशंसनीय, श्राह्लादकारी, श्रादरणीय परमात्म (मोक्ष) पद निपजाव्यु-संप्राप्त कयु यद्युक्तं-शार्दुल विक्री डितम् ॥" त्यक्त्वाऽशुद्धि विधायि तत्किल पर द्रव्यं समग्र स्वयं, स्वद्रव्ये रति मेति यः सनियतं सर्वापराधच्युतः; बन्धध्वंस मुपेत्य नित्य मुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-चैतन्यामृतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते " ॥१॥ प्रथम मिथ्यात्व हणि शुद्ध देसण निपुण, Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ प्रगट करि जेणे अविरत पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कलुषता सवि विणाशी ॥ २ ॥ सू०॥ अर्थः-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद जे रीते सिद्ध कर्यु ते साधना क्रम सहित बखाणे छे. __प्रथम तो, जेना उद्य घडे प्रात्मा शुद्ध देवने भदेव, प्रदेवने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने अजीव, मजीवने जीव, मोक्षने अमोक्ष, प्रमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करे छे तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति तथा मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश करी चिंतामणि रस्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्यक्दर्शन संप्राप्त कयु के जे इंद्रत्व, चक्रि स्व, चिंतामणि तथा कल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि । कप्पददुमस्स कोडीणं लाभो सुलहो दुलहो, दंसणो तीथ्यनाहस्स ॥" तथा जे विना नवपूर्व Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ सुधीनुं ज्ञानपण अज्ञान कहेवाय छे त पा जे विना दशमा पूर्वनुं ज्ञान तो थतुज नधी, वली जे विना संसार परिभ्रमणनी सीमा प्रावती नथी, जे विना सम्यक्चारित्र-संयमनी पासि थई शकली नथी, जे विना द्रव्यचारित्र पालनार प्रथम गुणस्थाने पत्ते छे माटे श्री जिनेश्वर, सर्व धर्मनुं मूल तथा मोक्षy प्रथम पगथीउ कहे छे. ययुक्तं-श्रा मदभयदेव आचार्येण-" दंसण मूलो धम्मो, उवइठो जिणवरेहिं सीसाणं । तं सोउण सकन्नं, दंसण हीणो न वंदिव्वो ॥” लोकालोक प्रकाशक श्री जिनेश्वर देव पोताना शिष्यो प्रत्ये सर्वे धर्मनु मूल सम्यक्दर्शनने यतावे छे माटे दर्शन हीण पुरुषने वंदना करवी नहि. उक्तंच-"सम्मत्त रयण भठा, जाणंता बहु विहावि सछाई। सुद्धाराहण रहिआ, भमंति तछेव तछेव ॥” सम्यक्दर्शनथी भ्रष्ट पुरुष बहु प्रकारना शास्त्र जाणता छतां पण शुद्ध पाराधना रहित होवार्थी संसार चक्र वा मां ज्यां स्यां भ्रमण कर्या कर छे कारणके सम्यक्दर्शन विना शुद्ध आराधनानी प्राप्ति होय नहि. “शुद्ध क्रिया तो संपजे, पुग्गल Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०१ आवर्तने अधरे” “जह मूलंमि विणठे, दुमस्त परिवार नच्छि परिवुढी । तह जिण दसण भठा, मूल विणठा ण सिझति ॥” जेम मूल विनष्ट, वृक्ष शाखा परिशाखानी परिवृद्धि पामे नहि, तेम धर्मनुं मूल सम्यक्दर्शन नष्ट थतां मोक्ष प्राप्ति धाय नहि. “जिण पणत्त धम, सद्दहमाणस्त होइ रयणमिणं । सारं गुण रयणाणय, सोवाणं । पढम मोरकस्स ॥” गुण रत्नाकरमा सारभूत जे संभ्यदर्शन ते श्री जिन प्ररुपितधर्मनी श्रद्धा राखनारले होय छे अर्थात् नयनिक्षेप पक्ष प्रमाण युक्त, जिन प्रापित तत्त्वनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यक्दर्शन छ जे मोक्षनु प्रथम सोपान ( पगथी उं) छे. " संजम रहि लिंगं, दसण भठं न संजम भाणयं । आणा होणं धम्म, निरस्थय होइ - सव्वंपि ॥” • साधुनों लिंग-पेश, संजम विना शोभा पामे Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० नहि तथा फल पाये नहि. श्रने सम्यकदर्शन भ्रष्ट ने संजम कयं नथी एम जिनेश्वरनी आण' रहित सर्वे धर्मक्रिया निरर्थक अर्थात् मोक्ष फल प्रापी शके नहि. ___ तथा योगनी वीशीमां का छे के "णाण गुणेहिं विहिणा, किरिया संसार बढणी भाणिया" ज्ञान गुण वगरनी क्रिया संसार वधारनारी कही छे. कारण के सम्यकज्ञान वगर संवर थाय नहि. अने संवर विना सर्वे समये कर्मबंध थाय अने कर्मबंधयी सप्तार वृद्धि थाय ए स्पष्ट छे. तथा सम्यकदर्शन रहितने व्रत पालता छतां पण तत्त्वार्थसूत्रमा भबती कहे छे " निशल्यो व्रती" मिथ्यात्वशल्य,मायाशल्य, अनेनिदानशल्य रहित व्रतधारी होय ते ब्रती छे. तथा वली श्रीमान् यशोविजयजी कहे छे के " रागमल्हार-भावीजेरे समकीत जेहथी रुडु, ते भावनारे भावो मन करी परवडं । जो समकीतरे ताजूं साजु मूलरे, तो व्रत तरुरे दीये शिवपद् अनुकूलरें।Qटक-अनुकून मूल रसाल समकीत, तेह विण मति अधरे । जे करे किरिया गर्व भरिया, हते जूठो धयरे ॥" मा टे Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो समकीतमूल ताजू होय तो व्रततरु शिव फल मापी शके माटे मोक्षफलना इच्छक पुरुषे सर्वधी पहेलां समकीत रस्न प्राप्त करवानो उद्यम करवो ए सार छे. माटे समकीत शी वस्तु के ते जाणवू जोइये. "जिय अजिय पुणपावा-सव संवर बंध मुस्क निझरणा । जेणं सद्दहइ तयं, सम्म खइगाइ वह भेअं॥" जीवा जीवादिक नव तत्त्वतुं स्वरूप श्री. जिनेश्वरना आगम प्रमाणे नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणे यथार्थ ज पी सद्दहवं तथा हेय तत्त्वने छांडवानी रूची तथा उपादेय तत्त्यने भादरवानी रूपी ते समकीत जाणवू. तथा च तत्त्वार्थ सूत्रे-" तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्-" "जीवाजीवास्त्रव पंध संवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्- तेमां जीवतत्त्व, संवरतत्त्व, निर्जरातत्त्व, भने मोक्षतत्त्व ए चार तत्त्व उपादेय मे था अजीव प्रास्त्रव पंध एत्रण तत्त्व मास्म गुणना रोधक होवाथी हेय के. माटे उपादेयने भादवानी रूची तथा हेय तत्त्वने Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोडवानी रूची होय तेनेज समकीती आणवो पण मात्र जीव्हाये बोलवाथी समकीत नथी. कारण के श्री जिनेश्वर समकीतनां पांच लक्षण कहे छे. भने लक्षण विना लक्ष्यनो प्रसद्भाव होय ए न्याय छे माटे " उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने आस्तिक्यता " ए पांच लक्षणो जे जीवमां न होय ते जीवने समकीत छे एम केम मनाय ? उपशम-क्रोधादि कषायोने उपशांत करे. ' संवेग-सहज निरूपाधिफ परमात्म पद प्रगट करवानी रूची. निर्वेद-संसारने तथा पौद्गलीक विषयोने हालाहल विष समान जाणी तेथी निवृत्ति थवानी रूची. अनुकंपा-स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्राण घात करवानो परिणाम नहि. . . मास्तिक्यता-अनंतज्ञानी अने वीतरागी प्राप्त श्री जिनेश्वरनुं एक पण बचन अन्यथा न होय एवी श्रद्धा. Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मापनेज सेववाथी मारी सिद्धि थशे तथा देवमां चंद्रमा समान अरिहंत पदनी प्राप्ति थशे तथा परमानंदरूप उत्तम समृद्धिनी संप्राप्ति थशे. ॥१०॥ ॥संपूर्ण ॥ ॥ अथ नवम श्री सूरप्रभ जिन स्तवनम् ॥ . . देशी कडखानी॥ .. सूर जगदीशनी तीक्ष्ण अति शुरता, तेणे चिरकालनो मोह जीत्यो ॥ भाव स्यादवादता शुद्ध परगास करी, नीपन्यो परमपद जग वदीतो ॥ स० ॥१॥ अर्थः-अनादिकालथी लागेलो मोहरूप महान् शत्रु के जे दर्शन-मोहनीय प्रकृति वडे भास्माना सम्यक् दर्शन गुणनो, तथा क्रोध बडे भात्माना क्षमा गुणनो, मान वडे आस्माना मादव गुणनो, माया वडे आत्माना आर्यव गुणनो, तथा लोभ वडे भास्माना मुत्ति-निर्लोभ-निस्पृह गुणनो, एम भनेक गुणनो घात करी आस्मानी शुद्ध सहज अपरिमित भात्मीय समाधिनो नाश करी भवरूप जेलखानामां त्रिलोकपूज्य भास्माने के करी राखे Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ छे. तेनो (मोहनो) जगत्त्रयना ईश्वर, जगत् शिरोमणी श्री सूर प्रभुए अत्यंत तीक्षण सम्यक्पराक्रमथी सम्यक् ज्ञान चारित्र रूप अत्यंत तीक्षण मम भेदक शस्त्रो वडे छिन्न भिन्न करी अल्पकालमां पराजय-समूल नाश कर्यो भविष्यमां कोई पण काले एईं दुष्ट कृत्य करवाने पुनः समुस्थित-संजीधन थाय नहि. अने जीवादि पंचास्तिनी शुद्ध स्याद्वादपणे तथा लक्ष्य लक्षण अभेदपणे शुद्ध निश्चय नये निजपर सत्ता जाणी सत्तागते रहेला अनंत धर्मात्मक शुद्धात्म द्रव्यने कर्म मलथी रहित अत्यंत शुद्ध प्रगट करी जगत् अयमां पूज्य, प्रशंस. नीय, आह्लादकारी, प्रांदरणीय परमात्म (मोक्ष) पद निपजाव्यु-संप्राप्त कर्यु ययुक्तं-शार्दुल विक्री डितम् ॥ " त्यक्त्वाऽशुद्धि विधायि तत्किल पर द्रव्यं समग्र स्वयं, स्वद्रव्ये रति मेति यः सनियतं सर्वापराधच्युतः, बन्धध्वंस मुपेत्य नित्य मुदितः स्वज्योतिरच्छोच्छल-च्चैतन्यामृतपूरपूर्ण महिमा शुद्धो भवन्मुच्यते" ॥१॥ प्रथम मिथ्यात्व हणि शुद्ध देसण निपुण, " Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रगट करि जेणे अविरत पणाशी; शुद्ध चारित्रगत वीर्य एकत्वथी, परिणति कलुषता सवि विणाशी ॥ २॥ सू०॥ . अर्थ:-हवे श्री सूर स्वामीए परमपूज्य परमात्म पद जे रीते सिद्ध कयु, ते साधना क्रम सहित बखाणे छे. प्रथम तो, जेना उदय बडे श्रात्मा शुद्ध देवने भदेव, अदेवने शुद्ध देव, सुगुरुने कुगुरु, कुगुरुने सुगुरु, धर्मने अधर्म, अधर्मने धर्म, जीवने अजीव, अजीवने जीव, मोक्षने भमोक्ष, प्रमोक्षने मोक्ष मानेछे, जीवादि तत्त्वमा विपरित श्रद्धान करे छे तथा उत्कृष्ट सीत्तेर कोडाकोडी सागरोपमनी स्थितिनो बंध करे छे एवी मिथ्यात्वमोहनीय प्रकृति तथा मिश्रमोहनीय तथा सम्यक्तमोहनीयनो नाश करी चिंतामणि रस्न समान अत्यंत दुर्लभ शुद्ध निर्मल सम्यक्दर्शन संप्राप्त कर्यु के जे इंद्रत्व, चक्रि. स्व, चिंतामणि तथाकल्पवृक्षथी पण अधिक दुष्प्राप्य छे. उक्तंच- " इंदत्तं चक्कित्त, सुरमणि कप्पद्रुमस्स कोडीणं। लाभो सुलहो दुलहो,दसणो तीच्यनाहस्स ॥" तथा जे विना नवपूर्व Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सुधीनुं ज्ञानपण अज्ञान कहेवाय छ तपा जे विना दशमा पूर्वतुं ज्ञान तो थतुज नथी, वली जे विना संसार परिभ्रमणनी सीमा प्रावती नथी, जे विना सम्यक्चारित्र-संयमनी प्राप्ति थई शकती नथी, जे विना द्रव्यचारित्र पालनार प्रथम गुणस्थाने वर्ते छे माटे श्री जिनेश्वर, सर्व धर्मनु मूल तथा मोक्षनुं प्रथम पगथीउ कहे छै. यद्युक्तं-श्रा मभयदेव आचार्येण-" देसण मूलो धम्मो, उवइठो जिणवरेहिं सीसाणं । तं सोउण सकन्नं, दंसण हीणो न वंदिवो ॥ ” लोकालोक प्रकाशक श्री जिनेश्वर देव पोताना शिष्यो प्रत्ये सर्वे धर्मनु मूल सम्यदर्शनने घतावे छे माटे दर्शन हीण पुरुषने वंदना करवी नहि. उक्तंच-"सम्मत्त रयण भठा, जाणंता बहु विहावि सछाई । सुद्धाराहण रहिआ, भमंति तछेव तछेव ॥” सम्यक्दर्शनथी भ्रष्ट पुरुष बहु प्रकारना शास्त्र जाणता छतां पण शुद्ध अाराधना रहित होवाथी संसार चक्र व मां ज्यां स्यां भ्रमण कर्या करे छे कारणके सम्यक्दर्शन विना शुद्ध आराधनानी प्राप्ति होय नहि “शुद्ध क्रिया तो संपजे, पुरगल, Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०॥ आवर्तने अधरे” "जह मूलंमि विणठे, दुमस्त परिवार नच्छि परिवुढी । तह जिण दसण भठा, मूल विणठा ण सिझात ॥” . जेम मूल विनष्ट, वृक्ष शाखा परिशाखानी परिवृद्धि पामे नहि, तेम धर्मनुं मूल सम्यक्दर्शन नष्ट थतां मोक्ष प्राप्ति थाय नहि. "जिण पणत धम्म, सद्दहमाणस्त होइ रयणमिणं । सारं गुण रयणाणय, सोवाणं पढम मोरकस्त ॥" - 'गुण रत्नाकरमा सारभूत जे सम्यक्दर्शन ते श्री जिन प्ररुपित धर्मनी श्रद्धा राखनारने होय छे अर्थात् नयनिक्षेप पक्ष प्रमाण युक्त जिन प्ररुपित तत्वनी यथार्थ श्रद्धा ते सम्यक्दर्शन छे जे मोक्षनु प्रथम सोपान ( पगथी ऊं) छे. "संजम रहिअंलिंगं, देसण भठं न संजम भाणयं । आणा होणं धम्म, निरत्थय होइ सव्वपि ॥” । • साधुनो लिंग-धेश, संजम विना शोभा पामे Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० नहि तथा फल पामे नहि. अने सम्यक्दर्शन भ्रष्ट ने संजम कडं नथी एम जिनेश्वरनी आण' रहित सर्वे धर्मक्रिया निरर्थक अर्थात् मोक्ष फल प्रापी शके नहि. तथा योगनी वीशीमां कां छे के "णाण गुणेहिं विहिणा, किरिया संसार बढणी भाणिया" ज्ञान गुण वगरनी क्रिया संसार वधारनारी कही छे. कारण के सम्यकज्ञान वगर संवर थाय नहि. अने संवर विना सर्वे समये कर्मबंध थाय अने कर्मबंधथी संसार वृद्धि थाय ए स्पष्ट छे. तथा सम्यकदर्शन रहितने व्रत पालता छतां पण तत्त्वार्थसूत्रमा भबती कहे छे " निशल्यों व्रती" मिथ्यात्वशल्य, मायाशल्य, अनेनिदानशल्य रहित व्रतधारी होय ते व्रती छे. तथा वली श्रीमान् यशो. विजयजी कहे छ के “रागमल्हार-भावीजेरे सम. कीत जेहथी रुडु, ते भावनारे भावो मन करी परवडं। जो समकीतरे ताजू साजूं मूलरे, तो व्रत सरुरे दीये शिवपद् अनुकूलरें। त्रूटक-अनुकून मूल रसाल समकीत, तेह विण मति अधरे । जे करे किरिया गर्व भरिया, हते जूठो धवरे ॥" मा Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११. जो समकीतमूल ताजूं होय तो प्रततरु शिष फल भापी शके माटे मोक्षफलना इच्छक पुरुषे सर्वथी पहेला समकीत रस्न प्राप्त करवानो उद्यम करवो ए सार छे. माटे समकीत शी वस्तु छे ते जाणवू जोइये.. . "जिय अजिय पुणपावा-सव संवर बंध मुस्क निझरणा । जेणं सद्दहइ तयं, सम्म खइगाइ बहु भेअं॥" ' जीवा जीवादिक नव तत्त्वतुं स्वरूप श्री जिनेश्वरना आगम प्रमाणे नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणे यथार्थ ज णी सदहवं तथा हेय तत्वने छांडवानी रूची तथा उपादेय तत्त्वंने भादरवानी रूपी ते समकीत जाणवू. तथा च तत्त्वार्थ सूत्रे-" तत्त्वार्थ श्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्-" "जीवाजीवात्रव पंध संवर निर्जरा मोक्षास्तत्त्वम्- तेमां जीवतत्त्व, संवरतत्त्व, निर्जरातत्व, भने मोक्षतत्त्व 'ए पार तत्त्व उपादेय के था भजीव मानव बंध रत्रण तत्त्व प्रास्म गुणना रोधक होवाथी हेय के. नाटे उपादेयने भादरवानी रूची तथा हेय तत्त्वने Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ छोडवानी रूची होय तेनेज समकीती जाणवो पण मात्र जीव्हाग्रे बोलवाथी समकीत नथी. कारण के श्री जिनेश्वर समकीतनां पांच लक्षण कहे छे. भने लक्षण विना लक्ष्यनो भसद्भाव होय ए न्याय छ माटे " उपशम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा अने आस्तिक्यता” ए पांच लक्षणो जे जीवमां न होय ते जीवने समकीत छे एम केम मनाय ? उपशम-क्रोधादि कषायोने उपशांत करे.. . संवेग-सहज निरूपाधिक परमात्म पद प्रगट करवानी रूची. , निर्वेद-संसारने तथा पौद्गलीक विषयोने हालाहल विष समान जाणी तेथी निवृत्ति थवानी रूची... ' अनुकंपा-स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्राण घात करवानो परिणाम नहि. , . । मास्तिक्यता-अनंतज्ञानी भने वीतरागी प्राप्त श्री जिनेश्वर, एक पण बचन. अन्यथा न होय एवी श्रद्धा. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - एम सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्रन मूलकारण सम्यक्दर्शन के एम जाणी श्री सूर प्रभुजीए दर्शनमोहनीय प्रकृतिनो नाश करी अत्यंत शुद्ध निपुण क्षायिक समकीत प्रगट करी “ अविरति पणाशी? पांच इंद्रिउ तथा.. मननो निग्रह नहि तथा षट्काय जीवना द्रव्य भाव प्राणनी हिंसानो स्याग नहि एवं बार प्रकारनी अविरति तेनो, नाश कर्यो. पंच इंद्रिांना वीश विषयोमा तथा मनना शुभाशुभ संकल्पोमा प्रास्म परिणामने विक्षिप्त करवाथी तथा स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्राणनी हिंसाथी ज्ञानावरणादि कर्मनो बंध थाय छे अने कर्मबंध वडे सहज प्रात्म समाधिनो घात थई अत्यंत दुःखदायक श्रा संसार समुद्रमा परिभ्रमण करवूपडे छे.एम क्षायिकसमकीत वडे जेणे श्रद्धापूर्वक जाण्युं तेनो परिणाम अविरतिमा केम प्रवेश करे ? एम अविरतिनो नांश थवाथी परभाव राग द्वेष विभावादिकनो त्यांग तथा ज्ञान दर्शन चारित्रादि स्वगुणमा रमण रूपं शुद्ध चारित्रथी पोताना आत्म वीर्यनी एकता करी अर्थात् सकल आस्म वीर्यने स्वभावाचरणमांज वर्तावी परिणाति कल्लुषता Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवि विणाशी” आत्म परिणाममां कषायनो प्रवेश थवा दीधो नहि एम कलुषता परिणतिनो नाश कर्यो. ॥२॥ वारि परभावनी कर्तृता मूलथी, आत्म परिणाम कर्तत्व धारी । श्रेणी आरोहतां वेद हास्यादिनी, संगमी चेतना प्रभु निवारी ॥ . सूर०॥३॥ . अर्थः-प्रात्म स्वरूपना अज्ञान वडे जीव, परभाषनो कर्ता बने छ अर्थात् अमुक पदार्थ में में सुवणे करयो, अमुकने में कुवर्ण कर्यो, अमुकने में मनोज्ञ रमवालो कर्यो, अमुकने में अमनोज रसवालो कर्यो, अमुकने में सुगंधी कर्यो; अमुकने में दुगंधी कर्यो, अमुकने मे मनोज्ञ स्पर्शवालो तथा अमुकने में अमनोज्ञ स्पर्शवालो कर्यो, तथा में सुंदर मसुंदर शन्दादिक कर्या पण रूप रस गंध स्पर्शादि जे; पुद्गल द्रव्यनो परिणाम तने आस्मा कदापी काले करीशके नहि छतां पर द्रव्यना परिणामने अज्ञान बडे पातांनी क्रिया मानी ले छे. तथा अमुक जीवने में सुखी को अमुकने में दुःखी कय, ५. परजीवना कर्मफलने पोतानी क्रिया मानी ले के मन make 111 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बचन कायाना योगनी क्रियान ममत्व की ते क्रियानो कर्ता पोताने माने छे. था परजीचे मने सुखी वा दुःखी कर्यो एम पोताना कर्मफलने परजीवनी क्रिया मानी ले छे. एवा मिथ्याभिमान बडे ज्ञानावरणादि कर्मनो बंध करे छे पण श्री सूरस्वामीए सम्यक्ज्ञानवडे एवा मिथ्याभिमाननी नाश करी पोनानी सहज प्रात्मीय ज्ञानादि क्रियामो पोतानुं कर्तापणु पादयु, यदयुक्तं-" आत्मा ज्ञानं स्वयं ज्ञानं, ज्ञानादन्यत् करोति किम ? परभावस्य कर्ताऽन्मा, मोहोव्यं व्यवहारिणाम्।' माटे वस्तुतः परद्रव्यनो कोइपण कर्ता थइ शके नहि ए न्याय छे-" यःपरिणमति स कर्ता, यःपरिणामो भवेत् तु सत् कमै । या परिणतिः क्रिया सा, प्रयमाप भिन्नं न वस्तुतया” अधः-जे परिणमे ते कर्त्ता छ भने परीणाम ते तेनुं कर्म छ भने परिणति ते तेनी क्रिया के एम ए प्रणे भाव वस्तुतः अभेद छे.तथापि-"आ संसारत एव धावति परं, कुह मित्युच्चकै-दुवा न तु मोहिनामिह महाहंकार रूपं तमः । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ तद्भूतार्थ परिग्रहेण विलयं यद्येकवारं व्रजेत् तरिक ज्ञान घनस्य बन्धन महोभूयो भवेदा I त्मनः مي دهي 35 अर्थ:-: -श्रा - जगत्मां मोही ज्ञानी जीवो जागो छे के " हुं पर द्रव्यने करुं हुं " एवो पर द्रव्यनां कर्त्तृत्वना अहंकाररूप अतिशय दुर्वार अज्ञान अध कार अनादिकालथी चाल्यो आवे छे पण जो तेनो शुद्ध निश्चय ज्ञानवडे एकवार पण समूल नाश करी नोखे तो शुद्ध केवलज्ञानली प्राप्ति थाय अने पछीथी कदापि एवा अज्ञान अंधकारने न करे- कर्मबंध करे नहि तथा " श्रेणी आरोहतां " क्षपक श्रेणीए चढतां हास्य रति अरति शोक भय जुगुप्सा ए हास्यादि षट्क तथा स्त्रीवेद, पुरुषवेद, अने नपुंसक - वेद, एम नव नोकषायमांथी पोतानी ग्राम्म परिणतिने वारी अकषाय भावमां- शुद्ध स्वरूपमा तल्लीन करी ॥ ३ ॥ , F भेदज्ञाने यथा वस्तुता उलखी द्रव्य पर्याय में: थइ अभेदी | भाव सविकल्पता छदि केवल सकल, ज्ञान अनंतता स्वामी वेदी ॥ सूर० /18/ Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. अर्थ:-"द्रव्यना सर्वे धर्मो तेना परमगुणना अनुयायी रणेज वर्ते" ए न्यायानुसारे आत्मानो परमगुण जे चेतनता तदनुयायीपणे वर्तता ज्ञान दर्शन चारित्र तप वीर्यादि परिणामोने पोताना परिणाम जाण्या सद्दह्या अने एधी विपरित, चेतनतान अनुयायीपणे नहि वर्तता, रूप रसगंध स्पर्शादि तथा चलन सहायादिक परिणामोने, पर द्रव्यना परिणाम जाण्या सद्दह्या. एम भेदविज्ञानना प्रबल पराक्रम घडे पोताना गुण पर्याय तथा पर द्रव्यना गुण पर्यायने यथार्थ भिन्न भिन्न जाणी पर द्रव्यना. गुण पर्यायमाथी अहंममत्व उठावो राग द्वेषादि विभाव परिणामने दुःखदायक तथा कर्मबंधना हेतु जाणी, पोतानी आत्म भूमिमाथी तेनो तदन अभाव करी, पोताना गुण पर्यायने पोताथी अभेद स्वरूप जाणी-तेमांज अभेदपणे 'तल्लीन थया. संकल्प विकल्प रूप समल परिणामने तजी निर्विकल्प-अचल परिणामरूप यथाख्यात् चारित्र-द्वादशम गुणस्थान पामी अंत्तर मुहूत्तमा घातीकमनो नाश करी श्री सूरस्वामी अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत चारित्र, अनंतं वीर्यना स्वामी तथा भोक्ता थया. ययुक्त मालिनी छंद-निज माहिमरतानां भेदाविज्ञान, Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ११८ • शक्त्या; भवति नियतमेषां, शुद्ध तत्त्वोपलम्भः । अचलित मखिलान्य द्रव्यं दूरे स्थिताना, 'भवति सात च तस्मिन्न क्षयः कर्म मोक्षः॥ अर्थ:-जे पुरुष भेद विज्ञाननी शक्तिवडे प्रात्म स्वरूपना महिमामां लीन थाय छे तेने निश्चय शुद्ध तत्त्वनी प्राक्षि थाय छ; अने शुद्ध तत्त्वनी प्राप्ति थवाथी सर्व परद्रव्य तथा परद्रव्यना परिणामथी दूर वर्त्त छ, अक्षय मोक्ष अवस्थाने प्राप्त थाय छे. माटे ज्यांसुधी भेद विज्ञाननी प्राप्ति थई नथी त्यांसुधी अवश्य मर्वे समय कर्मबंध थाय छे भने भेद विज्ञानवडे कर्मबंधथी मुक्त थवाय छे. " भेद विज्ञान तः सिद्धाः, सिद्धा ये किल केच न । तस्यैवा भाक्तो नद्धा, बद्धा ये किल केच न" अर्थ:-जे कोइ सिद्ध थया ते भेद विज्ञान बडेज सिद्ध थया के अने जे कर्मथी बंधाय छे ते भेद विज्ञानना अभावधीज बंधाय घे माटे जो कर्म Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पंधनो अभाव करवानी रुची होय तो भेद विज्ञानसम्यक् ज्ञाननी प्राप्ति करवी ए सार छे. ४॥ वीर्य क्षायिकबले चपलता योगनी, रोधि चेतन को शुचि अलेशी; भाव शैलेशीमें परम अक्रिय थइ, क्षय करी चार तनु कर्म शेषी ॥ सूर० ॥ ५ , अर्थः-एम श्री सूरस्वामी अनंत चतुष्टयने प्राप्त करी तेरमा गुणस्थाने तीर्थंकर नामकर्मना उदये भव्य जीवोने मा दुःखदायक भव समुद्रमांथी तारनार स्याद्वाद नय युक्त जीवाजीवादि तत्त्वनो उपदेश भापी-पछी प्राप्त करेला क्षायिकवीर्यना पल बडे, करण वीर्य वडे थती चपलता दूर करी मेरू पर्वतनी पेठे निःप्रकंप-शैलेशी करण करी, मन 'वचन अने कायानी क्रियानो त्याग करी पोताना मात्म द्रव्यने पवित्र-पुद्गल परिणामना. संश्लेष रहित-भलेशी की परम अक्रिय भवस्था धारण करी, पाकी रहेला घेदनीय, नाम, गोत्र, भने प्रायु ऐ चार प्रघातीया कर्मनो सर्वथा नाश करी "पूर्व प्रयोगादसंगत्वादन्पच्छेदात्तथा गति परिणामांच” पूर्व प्रयोगना हेतुए अंसंग होवाथी P Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्मपंधनो. सर्वथा नाश होबाथी तथा गति, परिणामवडे तुंषींना द्रष्टांते अाठमी इशिप्रभारा पृथ्वी अर्थात् सिद्ध अवस्थामा विराजमान,थया ॥ ५ ॥ वर्ण रस · गंध : विनु फरस संस्थान विनु, योग तनु संग विनु जिन अरूपी । परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्त्व तन्मय • सदा चित्स्वरूपी ॥ सूर० ॥६॥ । अर्थ:-श्री सूरस्वामी सिद्ध अवस्थाने प्राप्त थया. ते सिद्ध स्वरूप केवु छे-पांच प्रकारना वर्ण, पांच प्रकारना रस, बे प्रकारनी गंध, पाठ प्रकारना स्पर्श, छ प्रकारनां संस्थान, व्रण प्रकारना योग, पांच प्रकारनां शरीर तथा अंतरंगे अने बाह्य ए बे प्रकारना परिग्रहथी रहित तथा राग द्वेषादि विभावधी पण रहित होवाथी सर्वे नये अरूपी अवस्थाने संप्राप्त छ । कारण के जीवन शुद्ध स्वरूप वर्णादि तथा रागादि भावथी रहित छे. यदयुक्तं-"तत्थ भवे जावाणं, संसारस्थाण होति वणाइ । संसार पमुक्काणं, णयिहु वणादओ केइ ॥ जीवस्स णच्छि वणो, णवि गंधो गवि रसो Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ ___णविय फासो । णवि रूवं ण सरीरं, णकि संठाणं ण संहाणं ॥" पण संसार- अवस्थामां जीव कर्मबंधयुक्त होवाथी शरीरादिमा अहंममस्य करी वने छे तेथी व्यवहार नये रूपी कहेवाय छे. जेम जे घडामां घृत भरेलु होय ते घीनो घडो कहेवाय पण वास्तविक रीते जोतां घडो काई घीनो नथी माटीनोज छ. यदयुक्तं "पझतापझतय,जे सुहुमा बायराय जे चेव । देहस्स जीव सणा, सुत्ते व्यवहारदो उत्ता ॥” पर्यास, अपर्याप्त, सूक्ष्म, पादर, एकेंद्रिय बेइंद्रिय विगेरे शरीरने जे जीव संज्ञा कही छे ते व्यवहार नयनी अपेक्षा जाणवी. कारण के चौदे जीचस्थान ते पुद्गल संगे छे, जीवनो मूल स्वभाव नथी. पण श्री सरस्वामी तो कर्मबंधधी-संसार अवस्थाथी सर्वथा मुक्त होवार्थी व्यवहार तथा निश्चय बने नये श्ररूपी अवस्था भोगवे छे तथा " परम आनंद अत्यंत सुख अनुभवी, तत्व तन्मय सदा चित्स्वरूपी" परम आनंद-सर्वोत्कृष्ट प्रानंद जेनुं आ ग्रिलोकमा कोई उपमान नथी एवा परमानंदने तथा जे सुखनो कोईकाले अंत नथी एवा सहज अकृत्रिम अनुप Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ चरित सुखने संप्राप्त-ते सुखने सदा निष्कंटक पणे अनुभवे छे-तेमांज निमग्न छे तथा पोताना शुद्धास्म तत्त्वथी तन्मय तथा चित्स्वरूपी अथात् अखंड अनंत ज्ञान स्वरूपमां सदा सादिअनंत भांगे अवस्थित थया छे. ॥६॥ । ताहरी शूरता धीरता तीक्ष्णता, देखी सेवक "तणो चित्त राच्यो । राग सुप्रशस्तथी गुणी आश्चर्यता, गुणी अद्भुतपणे जीव मा च्यो ॥ सूर० ॥ ७॥ " अर्थः-उपसर्ग परिसहादि तथा अनेक प्रकारका शुभाशुभ कर्म उदय आवता छतां पण अत्यंत धैर्य श्रादरी प्रास्म सत्ताभूमिमां निर्भय निष्कंपपणे अडोल रही अतिशय शौर्य पूर्वक ज्ञान बाणना प्रहार वडे तथा अपरिमित अात्म वीर्यनी तीक्ष्णता वडे मोहादि कर्म शत्रुश्रोने निर्वश कर्या. ते आपनी शूरता, धीरता अने तीक्ष्णता जोई हुँ सेवकनुं चित्त तेसा गराच्यु-रत थयु. . ' १६ तथा आपना सर्वोपरी कल्याणकारी अद्भुत ज्ञानादिः प्रास्मगुणो जोई अत्यंत आश्चयता पामी सुप्रशस्त राग वडे आपना गुणमां माहरो आत्मा . Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२३ माच्यो, कारणके आलोक परलोकना विषयसुखनी आकांक्षा रहित अरिहंतादि पंच परमेष्टी तथा पागम, साधर्मीक उपर पक्षपात विना गुणीपणा माटे जे राग ते प्रशस्तराग जाणवो, ते जोके पुण्यवंधनो हेतु छ तथापि छता अान्मगुणने स्थिर थवानो तथा नवागुण प्रगट करवानो हेतु छे. यद्युक्तं " नाणाइसु गुणसु, अरिहंताइसु धम्म संवेसु । धम्मोवगरण साहम्मीएसु धम्मच्छं जोय गुण रागो ॥ सो सुपसथ्यो रागो, धम्म संयोग कारणो. गुणदो । पढम कायव्वो सो पत्तगुणे खवइ त सव्वं” ॥७॥ आत्मगुण रुचि थये तत्त्व साधन रसी, तत्त्व निष्पत्ति निर्वाण थावे । देवचंद्र शुद्ध परमात्म सेवन थकी, परम आत्मीक आनंद पावे ॥ सूर० ॥८॥ ___ अर्थः-ज्ञानादि अनंत आत्म गुणोने शुद्ध संपूर्णपणे प्रगट करवानी रुथी थाय तोज ते पुरुष तत्त्व साधनानो रसीउ थइ संपूर्ण भात्मतत्त्वनी सिद्धि-निर्वाण पद पामे. देवचंद्र मुनि कहे के के Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ शुद्ध परमात्मपदना सेवन थकी अत्यंत उत्कृष्ट सहज अनुपचारित अव्याबाध श्रास्मीक परमानंदनी प्राप्ति थाय.॥८॥ ॥संपूर्ण ॥ अथ दशम श्री विशालजिन स्तवनम् ॥ ॥ प्राणी वाणी जिन तणी ॥ ए देशी॥ देव विशाल जिणंदनी, तमे ध्यावो तत्त्व समाधि रे चिदानंद रस अनुभवी, सहज अकृत निरूपाधि रे ॥ १ ॥ स० ॥ अरिहंत पद वदीये गुणवंत रे ॥ गुणवंत अनंत महंत स्तवो भवतारणो भगवंत रे।ए आंकणी। अर्थः-साधु, प्राचार्य, गणधरो विगेरेमा प्रधान शिरोमणि अनंत दषण रहित तथा अनंत प्रात्मीय गुणवडे देदिप्यमान महाविदेहमा विचरता श्री विशाल स्वामीए पोताना आत्म तत्त्वने एवर्भूत नये सिद्ध-प्रगट करी जे शुद्धात्म तत्त्व जन्य समाधि-निवृत्ति प्राप्त करी छे अद्वीतिय अनुपम समाधिने हे भव्यात्माश्रो ! तमे एकाग्र चित्ते Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ । ध्यायो-राग द्वेषादि सकल विभावथी भास्म परिणामने वारी तदनुगत करो. " चिदानंद रस अनुभवी " केवल ज्ञान वडे त्रैकालिक पर्यायो सहित सर्व द्रव्यना युगपत् प्रत्यक्ष ज्ञाता होवाथी पोताना भास्म द्रव्यने सर्वदा अखंड भव्यायाध ज्ञानदर्शनादि गुणे सदा परिपूर्ण, कोइपण द्रव्य जेने कोइपण काले बाधा करी शके नहि माटे भषाधिन जुए छे; तेथी तज्जन्य निर्भयता-निराकुलता स्वाधीनतामय ज्ञानानंद रसना अनुभवीभास्वादन भोग लेनार श्री विशाल देवनी तत्त्व समाधि सहज अर्थात् स्वाभाविक सर्व पर द्रव्यनी अपेक्षा वगर मात्र पोतानाज द्रव्यथी उत्पन्न, तथा प्रकृत-पर द्रव्ये जेने उत्पन्न करी नथी एवी, तथा निरूपाधि अर्थात् पौदुगलीक विषयो भोगवतां अनेक प्रकारनो शारीरिक तथा मानसिक व्याधि उपजे छे, पर रमणरूप मिथ्या चारित्र होवाथी आत्मगुंण घातक अनेक प्रकारनां दुष्ट कर्म बंधाय छे पणं श्री विशाल देवनी समाधिमां कोइपण प्रकारनी -उपाधिनो सदभाव तथा उपजवानो संभव नथी तेथी निरुपाधि छे माटे हे गुणानुरागी भव्य जीवो ! निरुपचरित, निस्संग, निःप्रयासिक, Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • १६ १ । निबंध, एकांतिक; भास्यंतिक अने स्वतंत्र समाधिमय श्री विशालस्वामीना' अरिहंत पदने आपको मात्मा निर्मल करी भव भ्रमणथी मुक्त थवा निमित्त वंदी ये-तेमां लीन थइए, वली श्री विशाल स्वामी के जे-ज्ञानादि अनंत लक्ष्मीना स्वामी तथा जन्म जरा मरण तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति,, भय, शोक, जुगुप्सा विगेरे कषाय, अज्ञान जलथी भरपूर था अपार पारावार भयंकर भव समुद्रथी उद्धारी अचल. अव्याबाध अरुज प्रास्मीय अनंत, सुखना स्थानक मोक्ष महेलमां धरनार, सर्व प्राणीउना अघातक, करुणा सागर, तथा अनंतगुणना पात्र महान् धर्मात्मा छे तेमने स्तवो-स्तुति करो तेमना गुणोनुं गान, स्मरण, चिंतन, अनुभव करो. ॥१॥ भव उपाधि गद टालवा, प्रभुजी छो वैद्य अमोघरे ॥ रत्नत्रयी औषध करी, तुम्हें तार्या भविजन उपरे ॥तुम्हें० ॥अरि०॥२॥ अर्थः-महान् दुष्ट शत्रुरूप कर्मराजाना भवख्य कारागृहमां वसतां अज्ञान कषाय भने मिथ्यात्व. रूप मिथ्याभाहार विहारना सेवनथी, भास्म Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ द्रव्यना ज्ञानदर्शनादि, परिणामो दृषित, थवाथी श्रात्माने तीक्षण शल्य तुल्य असह्य दुःख क्लेश आपनारा क्रोध-मान माया लोभ शोक वियोग मिथ्यात्व अज्ञान विगेरे महान् दुर्निवार सन्निपातिक रोगो उपजे छे जे रोगोना प्रभाव वडे वली ज्वर, अतिसार, जलोदर, कठोदर, भगंदर, क्षय, कुष्ट, प्रमेह, उपदंश, नेत्ररोग, कर्णरोग, मुखरोग, विगेरे अनेक शारीरिक रोग जन्य वेदनाउं भोगचवी पडे छे. पण हे विशाल प्रभुजी ! श्रापेज सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्रनी.ऐक्यतारूप अमृत औषधीन दान करी ते सर्वे सन्निपातिक रीगोथी भव्य जीवोना समूहने मुक्त करी अनंत श्रास्म वीर्ये भरपूर तुष्ट पुष्ट करी अागामि कोइ पण काले ते रोग पुनः उत्पन्न न थाय एवा अत्यंत निरोगी कर्या. माटे हे प्रभुजी ! श्रा भुवनत्रयसां निःसंदेहपणे अमोघ-साचा-सफल (जेनो उपाय निष्फल जाय नहि.एवा) वैद्य आपज छो. १२१ भवसमुद्र जल तारवा, नियमक सम जिनराजरे ॥ चरण जहाजें पामीए, अक्षय · शिवनगरनुं राजरै ।। अक्षय०॥ अरि० ॥३॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अर्थः-राग रूप जले परिपूर्ण दुस्तर ा भयानक भवसमुद्र के जेमा हुं अनादिकालथी निराधारपणे ज्यां त्यां भ्रमण करी दुःसह भय क्लेश रोग शोक वियोग तृष्णा आनंद विगेरे अनेक दुःखो सहन करुं छु, अत्यंत सहज समाधिप्रद माहरी शुद्भात्म भूमिरूप शिवनगरथी अत्यंत दूरवर्ती-वियोगी थइ रह्यो छु. ते भव ससुद्रधी पारंगत करी निर्विघ्नपणे शिवनगरे पहोंचाडवा माटे हे विशालप्रभु जिनेश्वर ! श्राप निर्यामक अर्थात् जहाजना सौथी अग्रेसर चलावनार छो माटे जो बीजा सर्वनी आकांक्षा छोडी आपना स्वभावाचरणरूप पंचमहाव्रतरूप जहाजनो श्राश्रय लइए-तेमां अमारा आत्माने स्थापन करीए तो सहजे लीलामात्रमा निःप्रयासे प्रा भयंकर भव. समुद्रथी पारंगत थइ कोइपण रीते जेनो नाश न थाय-सदा शाश्वत रहेनार एवं शिवनगरनुं नि. कंटक राज्य पामी एकांतिक शाश्वत सहज परमानंदना स्वामी थइए.॥३॥ भव अटवी अति गहनथी, पारग प्रभुजी सच्छवाहरे ॥ शुद्ध मार्ग देशक पणे, योग Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्षमंकर नाहरे ॥ योग० ॥ अरि० ॥ ४॥ ___ अर्थ:-श्रा भवरूप अटवी-जंगल के जेमां अमारो आक्रंद परिताप जोइ करुणा रसवडे जेर्नु हृदय भिंजे तथा श्रमारी दया करे एवा सदगुरुरूप सजननो समागम अत्यंत दुःप्राप्य छे तेथी निर्जन, तथा जेथी पारंगत धवानो साचो-सुगम मागे पामवो अतिशय मुश्केल होवाथी अत्यंत गहन-घोर, तथा जेमां अमारी ज्ञानदर्शनादि अमूल्य प्रात्म संपदाने लुटा लेवावाला तीव्र अज्ञान मिथ्यास्वादि दुष्ट स्वभावना धारक कुगुरु रूप लुटाराश्रो वसे छे, तथा श्रमारा ज्ञानदर्शनादि आत्मप्राणनो घात करनार क्रोध मान माया लोभ विगेरे निर्दय श्वापदो वसे छे एवा घोर जंगलमां भूलो पडेलो हुं मारा आत्मीय कुटुंब तथा लक्ष्मीना वियोग वडे दयामणी अवस्थामां भय, त्रास, रोग, शोक, वियोग, तृष्णा, आताप विगेरे परितापो सहन करूं छु, शांतिप्रद सवर रूप जलना प्रभाव वडे अत्यंत तृष्णा क्लेश सहुँ छु तेथी (भवाटवीथी) पारंगत थइ अात्म लक्ष्मी वडे परिपूर्ण शिवनगरे दोरी लइ जनार आपज समर्थ सार्थवाह छो. कारण के श्रापज शुद्ध-अविसंवाद मार्गना बताववावाला Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० कल्याणकारी सिद्धिपदं योगना नाथ- मालीकप्रणेता यथार्थपणे प्रगट करनार छो. तथा हे नाथ ! आपना मन वचन छाने काथ ए त्रणे योग क्षेमंकर, कल्याणकारी, पाप क्लेशथी मुक्त करनार छे. अने संसारी जीवोए मन वचन काया स्त्री पुत्र धन कुटुंबादि अनेक योग कर्या ते योग बहु वार विनाश धया-क्षेम कुशल न रह्या. पण प्रभुजी शुद्धात्म अनुभव योग करावी शाश्वती केवलज्ञानादि लक्ष्मीनो शिवयोग कराबो छो माटे योगक्षेमंकर छो ||४|| रक्षक जिन छ कायना, वली मोह निवारक स्वामी रे || श्रमण सघ रक्षक सदा, तेणे गोप ईश अभिरामरे | तेणे० अरि० ॥ ५ ॥ "" अर्थ:- जे भज्ञान विषय अने कषायादि दोषोधी निवृत्त थया नधी एवा कुदेवादि " अहिंसक पदन योग्य नथी कारण के ते सर्वे जीवस्थान तथा सर्वे जीवोना द्रव्यभाव प्राणने तथा द्रव्य भाव प्राणनी हिंसाना हेतुने तथा ते हेतुना प्रतिकारने यथार्थ जाणता नथी तथा विषय कषायादि सहित होषाथी प्रमाद अवस्थामा अनेक जीवना द्रव्यभाव प्राणने हणी परने तथा पोताना श्रात्माने दुःखदायक Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ थाय छे. पण हे विशालप्रभु ! आप तो अज्ञान विषय ने कषायादिदोषाथी सर्वथा निवृत्त होवाथी पृथ्व काय, अप्काय, तेजःकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय तथा सकाय ए छ कायना जीवोना द्रव्यभाव प्राणना यथार्थ ज्ञाता हो तथा विषय कषायादि दोषोए रहित होवाथी निरंतर अप्रमाद अवस्थामा अवस्थित रही कोइपण जीवना द्रव्यभाव प्राणाने रंच मात्र पण दुषवता नथी माटे मत्य न्याये या त्रिभुवनमां " जीव रक्षकनुं " विरुद आपनेज लायक छे. तथा स्थितिबंध अने रसबंधनो हेतु सर्वे कर्मनो राजा तथा संसारी जीवोनो अजीत शत्रु एवा मोहरूप महान् शत्रुधी ससारी जीवोंने बचावचा माटे तथा ते मोहने नाश करवानो साचो उपाय बतावनार तथा ते उपायमां प्रवृत्त थवाने प्रेरणा करनार एक आपज समर्थ शुभट को तेथी साचा 'मोहनिवारक पण आपज को. तथा अत्यंत दुःखदायक भवाटवीमांथी नीकली अत्यंत कल्याणकारी मोक्ष नगरे जवाना जिज्ञासु, मोक्ष सन्मुख साचा माग गमन करनार, क्रोध मान माया लोभ श्रादिने दूर करी सम परिणामे Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ वर्तनार जे श्रमण समूह तेनी आप रक्षा करनार छो; कारण के मोक्ष मार्गमां विघ्न करनार मिथ्यात्व कषाय आदि चोर लुंटाराउने बरोवर उलखावनार तथा तेउं विघ्न नहि करी शके एवा उपायो बताबनार तथा आगेवान थइ पोताना अत्यंत बल वीर्य वडे ते उंने निर्विघ्नपणे मोक्ष नगरे पहोंचाडनार होवाथी हे परमेश्वर ! आपज अद्वितीय गोप तथा ईश्वर छो. ॥५॥ भाव अहिंसक पूर्णता, माहणता उपदेश, रे ॥ धर्म अहिंसक नीपन्यो, माहण जगदीश विशेषरे ॥ माहण० ॥ अरि०॥६॥ ___अर्थ:-हे जगदीश्वर ! आपना सर्वे ज्ञानदर्शनादि भावो पूर्ण अहिंसकपणे वतै छे तथा संसारी जीवोने पण स्वपर जीवना द्रव्य भाव प्राण न हणवा एवो उपदेश आपो छो तथा कोइपण जीवना द्रव्य भाव प्राणनी हिंसाना कर्ता न धाय एवा - केवलज्ञान केवलदर्शनादि अनंत धर्मो संपूर्ण शुद्ध प्रगट-व्यक्त थया छे. तेथी अाप अद्वितीय माहणअहिसक पदवीना धारक छो. ॥ ६॥ पुष्ट कारण अरिहंतजी, तारक ज्ञायक मुनि Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ १३३ · चंदरे ॥ मोचक सर्व विभावथी, झीपावे. मोह अरींदरे ॥ झी० ॥ अरि० ॥ ७॥ __ अर्थः-सत्तागते रहेला अनंत अात्मधर्मोने संपूर्ण शुद्ध प्रगट करवामां 'अर्थात् श्रा ससार समुद्रथी पारंगत थइ मोक्ष अवस्था प्राप्त करवामां हे विशालप्रभु अरिहंत ! आप पुष्टकारण-अनंतर कारण छो. उक्तंच-सिद्धसेन पूज्यैः " पुष्ट हेतुजिनेंद्रोयं मोक्ष सद्भाव साधने ” तेथी सर्वे मुनिउं-ज्ञानीउमां चंद्रमा समान प्रधान लोकालोकना ज्ञायक आपज श्रा भयंकर भवसमुद्रमांथी तारनार छो; नथा राग द्वेष मोह विगेरे सर्वे विभा. वथी मुक्त करवावाला तथा सर्वे शत्रुउंमा श्रेष्ठ अत्यंत बलवान् मोह शत्री जीताववावाला छो. ॥ ७॥ • कामकुंभ सुरमणि परे, सहजे उपगारी थाय रे । देवचंद्र सुखकर प्रभु, गुण गेह अमोह अमायरे ॥ गुण ॥ अरि० ॥ ८ ॥ . अथे:-जेम कामकुंभ तथा चिंतामणी रत्न, बिनास्वार्थे अन्य जीवोने वांछित फलना दातार Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पाय छे, तेमज हे प्रभु ! आपपण संसार जन्य सकल क्लेशथी भव्य जीवोने मुक्त करवामां वि. नास्वार्थे सहजे मददकारी थाउ छो ए आपनी परम सजनला सुचवे के. देवचंद्रमुनि कहे छे के हे प्रभु! श्राप नि:प्रयासिक अन निरुपचरित सुखना करवा. वाला तथा ज्ञानादि अनंत गुणना गेह-निधान छो; तथा परिवार सहित मोहगजानो समूल ध्वंस करी नांख्यो छे तेथी अमोही, तथा अमाय कहेतां कपट रहित शुद्ध स्वरूपना प्रकाशक छो. ॥८॥ ॥संपूर्ण ॥ . Rococcoove ॥ अथ एकादशम श्री वजंधर जिन स्तवन ॥ ॥ नदी यमुना के तोर ॥ ए देशी ॥ विहरमान भगवान् सुणो मुज विनती, जगतारक जगनाथ अछो त्रिभुवन पति; भासक लोकालोक तिणे जाणो छती, तो पण वीतक बात कहुं छु तुज प्रात ॥ १ ॥ अर्थः-महा विदेहमां विधाता, भव्यसमूहने भवाब्धिथी उद्धारनार, सर्वे प्राणीमोना हितचिंतक Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ तथा रक्षा करनार, त्रिलोक पूज्य, त्रिलोक स्वामी हे श्री वज्रधर भगवंत ! अापने जीवाजीवादिक कोई पण पदार्थ उपर रंचमात्र पण राग, द्वेष, मोह वा ममस्व परिणाम नथी, तेथी कोईपण द्रव्य मापना सहजे परिणमता ज्ञान प्रकाशने व्याघात करी शके तेम नथी, तेथी भाप कीईपण द्रव्य, कोईपण क्षेत्र, कोई पण काल वा कोईपण भावमा स्खलना नहि पामतां स्वक्षेत्रे स्थिर रही सकल लोकालोकना त्रैकालिक भावने हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष समकाले जाणो छो. यद्युक्तं-महा भाष्ये, " सर्व द्रव्य गतान् सर्वानपि पर्यायान् केवलंज्ञानं जानाति" तथा तत्वार्थ सूत्रे,-" सर्व द्रव्य पर्यायेषु केवलस्य” तोपण हुँ मोहवशे अजाण होवाथी अविवेकी तथा अधीर थई में चार गतिरूप घोर भवाटवीमा भमता जे जे दुराचरण तथा दुःख क्लेशादि सेव्या ते सर्वे अापने अशरण शरण विलोकी आप प्रति सनमृता निवेदन करुंछु ते करुणा पूर्वक सांभलशो, लक्षमा लेशो. ॥ १ ॥ हुं स्वरूप निज छोडी रम्यो पर पुद्गले, लील्यो ऊलट आणी विषय तृष्णा जले; Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ आस्रव बंध विभाव करूं रुचि आपणी, भूल्यो मिथ्यावास दोष यूं परभणी ॥ २॥ अर्थः-अचल, अबाधित, निरुपाधि, स्वतंत्र अने सहज परमानंदमय मारा श्रात्मस्वरूपने अनादि अज्ञानवशे नहि जाणतां सहज प्रास्मीय परमानंदलो वियोगी रही मारा आत्म द्रव्यथी पर, क्षणभंगुर, तथा अचेतन , जे पुद्गल द्रव्य तेषां सदा श्रासक्त-लीन रह्यो तथा जे पौद्गलीक विषयोशार्दूल विक्रीडित वृत्तम्-" भुजंतामहरा विवाग विरला, किंवाग तुल्ला इमे । कच्छकडु अगंव दुःख जणया, दाविति बुद्धिं सुहे ।। मष्भण्हे मय तिारोहअव्य सययं, मिच्छाभिसंधिप्पया भुत्ता दिति कुजम्म जोणे गहणं, भोगा महा वेरिणो” अज्ञानवशे भोगवतां मधुर-प्रिय लागे छे पण विपाक काले किंपाकफलनी पेठे विरस, प्राणघातक छे, तथा जेम खसने खणतां शांति थती नथी पण उलटी चेल वधे छे, तेम विषयो भोगवतां शांति-तृप्ति थती नथी पण उलटी तृष्णा वधे छे तेथी परिणामे दुःखवर्धक छे, तथा ते विषयो Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० मां लीन थतां मृगतृष्णानी पेठे निरंतर दुष्ट अभिप्रायो उपजे छे तथा ते भोगव्याथी अनेक प्रकारे कर्मबंध थवाथी नरकादि दुःखदायक कुगति, कुयो। निनी प्राप्ति थाथ छे तथा गाथा-विषय रसासव मत्तौ, जुत्ताजुत्तं न जाणई जीवो ।। झूरइ कलुणं पच्छा, पत्तो नरय महाघोरं ॥ जह निंब दुम्म पत्तो, कीडो कडुअंपि मन्नहे महुरं। तह सिद्धि सुह परूरका, संसार दुहं सुहं बिंति ॥" विषय रस रूप मदिरामा मदोन्मत्त थतां योग्य अयोग्यनु-हेयादेयन भान नष्ट थाय छे. अने तेथी ज्यारे महा दुःखमय घोर भयंकर नरकादि गतिनी प्राप्ति थाय छे स्यारे अतिशय पश्चाताप भोगवंधो पडे छे. जेम लींबडामां वसतो कीडो लीबडाना कटुक रसने पण मधुर मानी से। छे, तेमज मिथ्यादृष्टी वडे मोक्ष सुखथी परोक्ष-विपरीत जे विषय भोग वास्तविक रीते दुःख के तेने सुख मानी सेवे छे तथा जे जलना प्रवाह तथा विजलीना चमत्कारनी पेठे क्षणीक छे तेथी अवश्य - जेनो वियोग थवानो छे एवा महान् शत्रुरूप पुदगल विषयोनी तृष्णारूप जलमां हुं सदा हर्षे पूर्वक Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९५८ कोडाकरतो निमग्न रह्यो तेथी अात्म स्वरूपने भुली शुद्धात्म स्वरूपथी परांङ्गमुख थई अत्यंत दुःखदायक भवसमुद्रमा भ्रमण करावनार ज्ञानावरणीयादि कर्मना आस्रव (पांच प्रकारना मिथ्यात्व, बार प्रकारनी अविरती, पचीस कषाय तथा पंदर योग) तथा प्रकृति, स्थिती, अनुभाग अने प्रदेशबंधना हेतु राग वेष मोहादि विभाव तरफ में रुचि करी तथा मिथ्यावासमां अर्थात् मिथ्यास्व गुणस्थाने वसतां मिथ्यात्वना आवेशमां सम्यक्दर्शन, सम्यक्. ज्ञान, सम्यक्चारित्रमय प्रास्म स्वरूपने भूली अ. नेक प्रकारनां कम वांधी तेना दुष्ट फलनो भागी थयो अने ते दुष्ट विपाकना अवसरे माहरा पूर्वकृत कर्मनो दोष न विचार्यो, अने “ सव्वे पुव कयाणं, कम्माणं पावए फल विवागं । अवराहेसु गुणेसु अ, निमित्त मित्तं परो होइ” आ अमूल्य जिनवचननुं विस्मरण करी अमुके मने क्रोध उपजाव्यो, मानमां पाड्यो, माया तथा लोभमां प्रवृत्त कर्यो तथा शोक, भय, अरति, जुगुप्सा -विगेरे कषायो उपजाव्या एम कही परने दोष दीधो. श्वान जेम लाकडी मारनारने नहीं पण लाकडीने करडवा तथा भसवा मांडे छे तेम में पण मारा Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पूर्वकृत दुष्ट कर्म तरफ लक्षा नहि देतां निमित्तमात्र जे परद्रव्य तेने दोष दीधो भने हाल पण तेमज धत्तुर्छ "जो कत्ता सो भोत्ता,” एवा जगजाहेर तथा सर्वमान्य जिनेश्वरना वचननो निरादर कर्यो, ॥२॥ अवगुण ढांकण काज करूं जिन मत क्रिया, न तर्जु अवगुण चाल अनादिनी जे प्रियाः दृष्टि रागनो पोष तेह समकीत गणुं, स्यादवादनी रीत न देखुं निजपणुं ॥ ३ ॥ अर्थः-अनादिथी अज्ञान वशे प्रिय थइ पडेली, कुदेव, कुगुरु अने कुधर्मने सन्मानवा श्रादरवा रूप मिथ्यात्व अज्ञाननी तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा तथा घेदराग विगेरेनी दुष्ट चाल प्रकृतिनो तो त्याग करयो नहि अने कदाच श्री जिनेश्वरे बतावेली सामायिक, पोसह, प्रतिक्रमण, वंदन, स्तवन, पूजा विगेरे क्रियानो, अपमान निंदा तथा दुराचरण ढांकवा माटे, आलोक परलोकना विषयभोगनी प्राकांक्षा, सहिन, तथा माया मिथ्यात्व अने निदानशल्य सहित आदी. "वैराग्यं रंगो पर वंच Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ १४० नाय, धर्मोपदेशो जन रंजनाय” एम विष गरल अने अन्योन्यानुष्टान सेवतां संसारीक दुःख थी मारी निवृत्ति थइ नहि. कारण के “निच्चुन्नो "तंबोलो, पालेण विणा न होइ. जह रंगो; तह दाण सील तब भावणाओ अहलाओ भाव 'विणा जेम चुना विना तांबुल, अने पास विना वस्त्र रंग पामे नहीं तथा जेम अंक विना मीडा निष्फल थाय तेम शुद्धात्म भाव राहत दान, शील, तप अने भावना संसारथी मुक्त करी शके नहीं. जल विना जेम सरोवर, सुगंधी विना जेम कमल, चंद्रमा बिना जेम रात्री, सूर्य विना जेम दिवस, तथा जीव विना जेम शरीर शोभा पामतां नथी; तेम भाव वगर साध्य निरपेक्ष क्रियाअो शोभा पा मती नथी. पण जो ते आवश्यक आदि करणीश्रो __ भावपूर्वक करवामां श्रावे तो ते मोक्षनुं कारण __ थाय. जेम अंक सहितनां मींडां दशगुणी सख्या वधारनार थाय छे. माटे भानुं स्वरूप जाणवू .. जोईए. " उवओगो भाव इति ” अर्थात् सूत्रनी - साखे वीतरागनी आज्ञाए ज्ञान पूर्वक हेय उपादे___ यनी परीक्षा करी अजीव तत्व तथा प्रास्रव तत्त्व Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तथा बंध तत्त्वं ऊपर त्याग भाव अने जीवना गुण जे सवर, निर्जरा, मोक्ष तत्त्व ऊपर उपादेय परिणाम ते भाव छे. माटे शुद्धात्म भाव सन्मुख -अर्थात् श्रापणा श्रास्माने राग, द्वेष, मोह थी मात्र निवृत्त करवाना परिणाम सहित जो आवश्यज्ञादि करणीयोकरवामां श्रादेतो ते अवश्य मोक्षतुं कारण थाय. वली " सम्मत्तेणं सुद्धो, सञ्चसु किच्चो हवइ सिव हेऊ, संवर वुढी तह निजराय धम्म मूलं च सम्मत्त ॥” तथा “ मूलं दारं पइठाणं, आहारो भायणं निहि; दुसुकं सावि. धम्मस्ल सम्मत्तं परिकि य॥” शुद्ध समकिता तेज शिवनो हेतु, तथा संवरनी वृद्धि करनार, निर्जरानुं कारण होवाथी सर्वे धर्मनुं मूल, तथा मोक्ष महेलमा प्रवेश करवा माटे द्वार समान, चारित्र महेलनी पीठिका, तथा रत्नत्रयना भाजन रूप छे. एहवां अापनां पवित्र वचनो वांची सांभली में समकितने अमूल्य रत्न समान तो जाण्यु पण हे भगवंत ! श्राप तो " नय भंग पमाणोहिं, जो . अप्पा सायवाय भावेण, जाणइ, मोरक सरूवं, सम्मदिठिउ सो नेओ" नय भंग पक्ष प्रमाण Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सहित स्याद्वादनये जीवादि तत्त्वने यथार्थ जाणे तेमज श्रद्धा करे छे तथा हेयने स्याग करवानी तथा उपादेय भावने अादरवानी रुचि होय तेने समकीती कहो छो. पण ते प्रमाणे तो में स्थाबादनये आत्म तत्त्वनुं स्वरूप यथार्थ जाण्यु, सद्दद्यु नहि तथा समकितना जे सडसठ ( चार सद्दहणा, नण लिंग, दश प्रकारे विनय, व्रण शुद्धि, पांच दूषणनो नाश, भाठ प्रकारे प्रभाविक पणुं, पांच भूषण, पांच लक्षण, छ यतना, छ प्रागार, छ भावना तथासमकितना छ स्थानक) बोल. आपे कहा छे ते जाण्या शिवाय तथा जे होवा जोइए तेनी मारामां प्रगटता थइ छे के नहि, तेनो विचार करन्या विना, समकीतना लक्षणोनी प्राप्ति विना, मात्र दृष्टीरागना पोषने अर्थात् नय, निक्षेप, पक्ष, प्रमाण वडे परीक्षा कर्या शिवाय कुलक्रमानुगत देव गुरु धर्मनी द्रव्यपरंपराय श्रद्धाने समकित गणी क्रियानुष्टान सेव्यां पण निश्चय समकीत विना मने मोक्ष फलनी प्राप्ति थइ नहि. ॥३॥ मन तनु चपल स्वभाव वचन एकांतता, . वस्तु अनंत स्वभाव न भासे जे छता । जे ठोकोत्तर देव नमुं लोकीकथी, दुर्लभ सिद्ध Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४३ स्वभाव प्रभो तहकीकथी ॥ ४ ॥ अर्थ:-जेम पुगीना स्वरमां लीन थइ नाग पोताना मस्तकने पुंगी प्रमाणे डोलावे छे. तेम हुँ पण पांच इंद्रियोना विषयोमा लीन थइ माहरा आत्म परिणामने चपल करी कर्मजालमा फसायो "चलइ फंदइ” तथा मिथ्यात्वना आवेशमा अनंत धर्मात्मक वस्तुमांथी कोइक धर्मने मुख्यतया बखाणतां पाकीना धर्मोनी गौणपणे पण अपेक्षा नहि राखवा रूप एकांत वचन अर्थात् दुनयने ग्रहण कर्यो, ते प्रमाणे में वस्तु स्वरूप सहा तथा बीजाने पण तेमज एकांते उपदेश प्राप्यो “ दोहिंवि णयेहि णीय सत्थं मूलण तहवि मिच्छत्त; जस्सविसयप्पहाणं, तणेणं अणुण्णा निरवेरक” इति विशेषावश्यके-पण अनंत धर्मात्मक वस्तु स्वरूपने में यथार्थ जाण्यु नहि " अभिलाप्ये भावेभ्यः अनभिलाप्या अनंत गुणा” एम अनंत गुण पर्यायनो भाजन ते द्रव्य-वस्तु छे माटे दरेक वस्तुमा अनंत भाव छताछे-मालिनिछंद"बहु विह नय भंग, वच्छु णिचं अणिञ्च । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सद सदनाभलप्पं, लप्पमेगं अगं" ते में एकांत-मिथ्यात्व वशे न जाण्या-एम मिथ्यात्व भावमा फसी रह्यो अने तेथी इंद्रगणे वंदित, त्रि. लोक पूज्य जे लोकोत्तर अरिहंत देव तेश्रोने लौकीक रीते अर्थात् अज्ञान अने राग सहित, परभावना कर्ता हर्ता जाणी आलोक परलोक संबंधी विषयोनी प्राप्ति अर्थे, तथा मान पूजा अादि अर्थ नमु छु-चंदन स्तवन पूजा प्रमुख करूं छं पण तेथी जिनेश्वरे वतावेलो जे अत्यंत दुर्लभ सिद्ध स्वभाव तेनी प्राप्ति केम थाय १ ॥ ४ ॥ महाविदेह मझार के तारक जिनेवरु, श्री वज्रधर अरिहंत अनंत गुणाकरू । ते नियामक श्रेष्ट सही मुज तारशे, महा वैद्य गुणयोग रोग भव वारशे ॥ ५॥ अर्थः-महाविदेह क्षेत्रमा विचरता श्रा भीम भवार्णवमाथी भव्य समूहनो उद्धार करनार, सर्वे केवलीअोमां इंद्र समान, शिरोमणी, ज्ञानादि अनंत गुणना आकर-निधान हे वज्रधर अरिहंत ! श्राप, चरण जहाजने चलावनाराअोमा अग्रेसर-प्रधान सर्वोत्तम निर्यामक होवाथी आ भयंकर भवाब्धि Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ माथी निःसंदेह अति स्वराए माहगे उद्धार करशो तथा महविद्यरूप थइ माहरा भास्म परिणाममां सम्यक्दर्शन ज्ञान चारित्रनो योग करी मिथ्या भाचरण वडे उपजेला भवरोगनो वेगे समूल विनाश करशो एवी माहरा चित्तने दृढ प्रतित छे. ॥५॥ प्रभु मुख भव्य स्वभाव सुगुं जो माहगे, तो पामे प्रमोद एह चेतन खरो । थाये शिवपद आश राशि सुख वृंदनी, सहज स्वतंत्र स्वरूप खाण आणंदनी ॥ ६ ॥ अर्थः-" भवन व्यय विणु कार्य न निपजे हो, जिम दृशदे न घटत्व " तेमज जेमा भव्य अर्थात् पलटन स्वभाव नथी एटले जे जीवमां मिथ्यात्वथी पलटी समकीत भावे परिणमवानुं । सामथ्ये नथी तेने अभव्य कहीए तथा अविरतीथी पलटी विरतीभावे परिणमवातुं सामथ्र्य नथी तथा प्रमाद भावथी पलटी अप्रमाद भावे पलटवार्नु सामर्थ्य नथी, तथा कषाय भावथी पलटी भकषाय (शम) भावे परिणमवानु सामर्थ्य नथी (एटले पूर्व अहितकारी) पर्यायनो व्यय, नवा प्रशस्त Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पर्यायन भवन करवानुं सामर्थ्य जेमा नथी तेनु __ कार्य थाय नही. ए विगेरे विभावथी पटली स्व भाव रूपे परिणमवानुं सामर्थ्य नथी एवा अभव्य जीवो अनंत कालसुधी अनंन उपाय करता छतां पण " कोटी जतन करी निशदिन धोवत उजरी न होवत कामर कारी" ए प्रमाणे श्रा संसार चक्रवालमांथी मुक्त भई मिद्धि सुख पामी शके नहीं. कारण तेश्रो व्रत, समिति, गुप्ति आदि पालता छत्तां पण मिथ्यात्व, अज्ञान अने पराचरण (मिथ्याचरण ) ना सेवक छे उक्तंच वद समिदी गुत्तीऊ, सील तवं जिणवरहि पणत्तः कुव्वंतोवि अभव्वो, अणाणी मिच्छदिठीऊ" कारण के अभव्य जीवोनो स्वभावज एवो छे के श्रुत अभ्यास करे, द्रव्यथी पंचमहाव्रत आदरे पण आत्मतत्त्वनी यथार्थ श्रद्धाविना कोई, पण काले प्रथम गुणस्थानने मूकी शके नहि माटे तेश्रो सिद्धिपद पामवाने योग्य नथी. पण हे जिनेश्वर ! अापना अाज्ञा प्रमाणे श्रा संसारथी निवृत्त थइ क्ष स्व. रूप साधवानी मने रुचि छे, भवभ्रमणथी भयभीत छ. तथा सस्य न्यायने स्विकारूं छु, ए आदिकेटलाक Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ भाववडे " हुं भव्य छु" एवु अनुमान थायछे तो पण हे सर्वज्ञ देव ! आपना मुखारविंदही " तुं भव्य छु” एवं वचन सांभलं, तो माहा नव्यत्वनी मने संपूर्ण पणे प्रतीत थाय अने सहज स्वतंत्र सचिदानंद्भय अनंत सुख समूहरूप शिवपद प्राप्तिनो भरोसो थाय ॥ ६॥ वलग्या जे प्रभु नाम धाम ते गुण तणा, धारों चेतन राम एह थिन वासना ॥ देवचंद्र जिनचंद्र हृदय स्थिर थापजो, जिन आणा युत भक्ति शक्ति मुज आपजा ॥ ७॥ अथ:-हे भगवंत ! जे पुरुषो आपना स्मरण, कीर्तन,भक्ति विगेरेमां लीन छे तेज पुरुषो गुणना धाम कहेतां भाजन छे. माटे हे चेतनराम ! निरंतर प्रभुना स्मरणमां चिर वासकर, एक पण समय प्रभुपदने विसार नहि. देवचंद्र मुनि कहे छे हे जिनेश्वर देव ! मने लब्धि वीर्यनुं दान करी आपनी श्राज्ञा प्रमाणे श्रापनी भक्ति करवानी मने शक्ति श्रापो कारण के श्रापनी आज्ञाथी विपरीतपणे करेलां सर्वे क्रिया अनुष्टान निष्फल छे. "जो कोइ आणा रहिओ, पूआ पमुहं करेइ तिकालं । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | १४० तस्तवि सव्वम सुद्धं, आणाबज्जं अणुठाणं॥” जे कोइ पुरुष प्राज्ञा रहित पणे त्रणे काल पूजा प्रमुख करणी करे तो पण प्राणा रहित होवाथी तेनुं सर्वे अनुष्टान अशुद्ध जाणवू. " जहतुस खंडण मय मंडणाइ रूण्णाइ सुन्न रन्नंमि ॥ विहलाइ तह जाणसु, आणा रहियं अणुटठाणं” जेम तुस-कुसकानुं खांडवु, मुडदाने शणगार तथा सुना वगडामां विलाप करवो निष्फल तेम जिन आज्ञा गरनुं अनुष्टान पण निष्फल जाणवु. "जह भोयण मविहिकयं,विणासए विहिकयं जियावेई; तह अविहिकओ धम्मो, देइ भवं विहिकओ मुरकं” जेम प्रविधिए करेलुं भोजन विनाश करे तथा विधिए करेलुं भोजन जीवन मापे तेमज अविधिए भादरेलो धर्म भवभ्रमण श्रापे अने विधिए श्रादरेलो धर्म मोक्ष सुख भापे; माटे मापनी आज्ञानुं ज्ञान तथा ते श्राज्ञामां वसवा रूप सदाचरण ए बनेनु हे करुणानिधान ! मने दान आपो.॥८॥ ॥ संपूर्ण ॥ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अथ श्री द्वादशम श्री चंद्रानन जिन स्तवनम् ॥ ॥ चीराचांदला ए देशी ॥ चंद्रानन जिन सांभलिये अरदासरे, मुज सेवक भणी. छे प्रभुनो विश्वासरे चंद्रानन जिन ॥१॥ ___ अर्थ:-हे भगवंत ! आप पी तेमज अरूपी निकटवर्ती तेमज दूरवर्ती, सूक्ष्म तेमज स्थूल, सर्वे पदार्थोने तेना त्रैकालिक गुण पर्याय सहित एक समयमा हस्तामलक्वत् प्रत्यक्ष जाणनार होवाथी सर्वज्ञ, तथा अनंत आनंदमा पोताना गुणपर्यायोमा निरंतर तल्लोन-स्थिर होवाथी अन्य कोइपण द्रव्य पर्यायमां आपनो राग द्वेषरूप परिणाम थतो नथी तेथी वीतराग छो, भने सर्वज्ञ तथा वीतराग होवाथी मापनी दिव्य वाणीमा प्रत्यक्ष परोक्षादि कोईपण प्रमाणवडे विसंवाद श्रावी शकतो नथी, कोईपण प्रकारना रंचमात्रपण दूषणने अवकाश मलतो नथी; माटे हे प्रभु ! आपज था भीषण भवससुद्रमाथी भव्य समूहने उद्धारवा समर्थ छो. पण आपथी विमुख बुध कपिलादि अन्य तीर्थीश्रो के जे तेभोनां प्राचरण तथा वाणीवडे अज्ञान तथा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ तस्सवि सव्वम सुद्धं, आणावज्जं अणुठाणं ॥” जे कोइ पुरुष प्राज्ञा रहित पणे त्रणे काल पूजा प्रमुख करणी करे तो पण प्राणा रहित होवाथी तेर्नु सर्वे अनुष्टान अशुद्ध जाण. " जहतुस खंडण मय मंडणाइ रूण्णाइ सुन्न रन्नंमि ॥ विहलाइ तह जाणसु, आणा रहियं अणुटठाणं " जेम तुस-कुसकानुं खांडवु, मुडदाने शणगार, तथा सुना वगडामा विलाप करवो निष्फल छे तेम जिन आज्ञा पगरनुं अनुष्टान पण निष्फल जाणवु. "जह भोयण मविहिकयं, विणासए विहिकयं जियावेई; तह अविहिकओ धम्मो, देइ भवं विहिकओ मुरकं” जेम अविधिए करेलुं भोजन विनाश करे तथा विधिए करेलुं भोजन जीवन मापे तेमज अविधिए भादरेलो धर्म भवभ्रमण श्रापे अने विधिए श्रादरेलो धर्म मोक्ष सुख भापे; माटे मापनी श्राज्ञानुं ज्ञान तथा ते प्राज्ञामां वसवा रूप सदाचरण ए बनेनु हे करुणानिधान ! मने दान प्रापो.॥८॥ ॥ संपूर्ण ॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ॥ अथ श्री द्वादशम श्री चंद्रानन जिन स्तवनम् ॥ ॥ वीराचांदला ए देशी ॥ चंद्रानन जिन सांभलिये अरदासरे, मुज सेवक भणी. छे प्रभुनो विश्वासरे चंद्रानन जिन ॥ १॥ ___ अर्थ:-हे भगवंत ! आप पी तेमज अरूपी निकटवर्ती तेमज दूरवर्ती, सूक्ष्म तेमज स्थूल, सर्वे पदार्थोने तेना त्रैकालिक गुण पर्याय सहित एक समयमा हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष जाणनार होवाथी सर्वज्ञ, तथा अनंत आनंदमा पोताना गुणपर्यायोमा निरंतर तल्लोन-स्थिर होवाथी अन्य कोइपण द्रव्य पर्यायमां आपनो राग द्वेषरूप परिणाम थतो नथी तेथी वीतराग छो, भने सर्वज्ञ तथा वीतराग होवाथी मापनी दिव्य वाणीमा प्रत्यक्ष परोक्षादि कोईपण प्रमाणवडे विसंवाद श्रावी शकतो नथी, कोईपण प्रकारना रंचमात्रपण दूषणने अवकाश मलतो नथी; माटे हे प्रभु ! श्रापज था भीषण भवससुद्रमांथी भव्य समूहने उद्धारवा समर्थ छो. पण आपथी विमुख बुध कपिलादि अन्य तीर्थीमो के जे तेभोनां पाचरण तथा वाणीवडे अज्ञान तथा Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० राग द्वेषादि दृषणोयुक्त भरपूर कलकित प्रतीत थाय छे, भवसमुद्रमां निमन जणाय छे, अने तेथी तेश्रोना वचनमा प्रत्यक्ष परोक्षादि प्रमाणवडे अनेक दूषणो द्रष्टिगोचर थाय छे, तेत्रो भवसमुद्रमांथी फेम उद्धारी शके १ " जे नवि भव तर्या निर्गुणी तारशे किणपरे तेहरे" माटे पोले बुडनार तथा आश्रितने वृडावनार पस्थरनी नावनो केम विश्वास रखाय ? तेथी हे त्रिलोक पूज्य !आ भवसमुद्रमांथी मुक्त थवा माटे हुँ सेवकने आफ्नोज विश्वास-श्राधार छे, माटे समतारूप अमृत लमुद्रने वृद्धिंगत करनार, तथा भव्यरूप कुमुद समूहने विकश्वर करनार, तथा कषाय तापने समाववामां, आत्मवीयनी वृद्धि करवामां समर्थ एवी तत्त्वोपदेशरूप निर्मल चांदनीने श्रा भूमंडलमा फेलावनार हे जगत् चूडामणि चंद्रानन जिनेश्वर ! अज्ञान तथा कषाय जन्य दुःखथी. भयभीत थएलो हु भवभीरु श्राप प्रति विनंती करूं छु ते कृपाकरी सांभलो-अवधारो. भरतक्षेत्र मानवपणारे,लाध्यो दुःसम काल॥ - जिन पूरवधर विरहथीरे, दुलहो साधन चा. लोरे ॥ चंद्रानन० ॥ २ ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-मेरुपर्वत जेटला राइना ढगलामां पडी गयेलो सरसवनो दाणो मली शकवा जेम अत्यंत मश्कल के तेमज मनुष्य भव पण या भवसमुद्रमा भ्रमण करतां पामवो अत्यंत दुर्लभ छे तम छता कदाच मनुष्य भवनी प्राप्ति थाय तो, आर्यक्षेत्र, लांबु आयुष्य, नीरोगता, उचकुल विगेरे उत्तरोत्तर अतिशय दुःप्राप्य छे छतां ते सर्वे सामग्रीअो कोई माहरा महत् पुण्य प्रसादे आ दुःषमकालमा (पांचमा श्रारामां) हे चंद्रानन प्रभु ! मने प्राप्त थइ पण केवलज्ञानी, चौद पूर्वधर, दश पूर्वधर, तथा प्रत्येक बुध के जेत्रो तत्त्वना यथार्थ ज्ञानों उपदेष्टा छे, जेनां वचनों प्रमाण भृत छे, निशंकपणे विश्वास पात्र छे, जेना वचनानुसारे सर्वेनी वचनो परखी शकाय छे, एवा गुण समुद्र पूज्य पुरुषोना वियोग बडे सहजा. नंदरूप मोक्षपद साधवानो साचो मार्ग अतिशय दुर्लभ थइ पडयो के. ॥२॥ द्रव्य क्रिया रुचि जीवडा रे, भाव धर्म रुचि हीन ॥ उपदेशक पण तेहवारे, शुं करे जीव नवीनरे ॥ चंद्रानन० ॥ ३॥ ___ अर्थ:-हे भव्यो! अनादिकालथी प्रापणो अात्मा जे अज्ञान, मिथ्यास्व, अने कषाय वडे मलीन होवा Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ थी आ भयानक भवसमुद्रमा भ्रमण करतां जन्म जरा मरण रोग शोक वियोग ताडन तर्जन आदि अनेक प्रकारनां शारीरिक तेमज मानसिक दुःखो सहन करे छे, पोतानी अनंत अानंदमय दशाथी दूरवर्ती थइ रह्यो छे, तेथी अज्ञान मिथ्यात्व अने कषायादि दूषणोथी मक्त करी, अनंत ज्ञान दर्शन सुख वीयमय परम निर्मल शुद्ध सिद्ध पदम विराजमान करवो अर्थात् पूर्ण शुद्धात्म भाव प्रगट करपो-प्राप्त करवो, एज भापणुं परम कत्तव्य छे तथा एज आपणुं सर्वोत्कृष्ट अनंत सुखप्रद अवि. नश्वर साध्य छे. पण मोहनिय कर्मना प्रबल उदय बडे पोताना सर्वोत्कृष्ट साध्य साधवानी रुचिथी परोङ्गमुखपणे धर्मनुं मूल जे समकीत (सम्मत्तेणं सुध्धो, सच्चसु किच्चो हवइ सिवहेउ, संवर वुट्ठी तह निजरा य धम्म मूलं च सम्मत्त) ते प्राप्त कर्या वगर पोताना दुष्कृतो ढांकवा माटे, अथवा मान पूजाने अर्थे, अथवा श्रा भव संबंधी कामभोगना पदार्थो मेलववा माटे, अथवा देवादिक गतिना मनोहर विपुल भोगो प्राप्त थवा माटे घणा जीवो सामायिक, प्रतिक्रमण, पच्चखाण, तथा समिति परिसहसहनादि अनेक द्रव्य क्रियामो चि सहित Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रादरे छे पण हे भगवंत ! ते सर्वे क्रियाओ शुद्ध साध्य निरपेक्ष अर्थात् परमार्थ विमुग्व होवाथी विष, गरल, तथा अन्यानुष्टान रूपे श्रास्त्रव हेतु थइ पडे छे. यदयुक्तं श्री आचारांग सूत्रे “जे भासवा ते परिपवा, जे परिसवा ते आसवा" माटे ते बालकनी क्रियावत् निर्वाण पद प्रापवाने असमर्थ छ, उक्तंच परमट्टह्मिदुअटिदो जो कुणइ तवं वयंच धारेइ, तं सव्वं बाल तव, बालवयं विति सव्वण्हू।। वयणियमाणि धरंता, सीलाणि तहा तवंचकुव्वंता। परमट्ट बाहिरा . जे, निव्वाणं तेण विंदति ॥ तथा उपदेश मालायाम्-संसार सागर मिणं, परिभमंतेहि सव्व जीवहिं । गहियाणि अ मुक्काणिय, अणंतसो दव्य लिंगाई-अर्थः-अरे आ संसार समुद्रमा परिभ्रमण करतां जीवोए द्रव्यलिंग अनंती. वार ग्रहण कर्या छोड्या पण ते द्रव्यलिंग, समकित रहित तथा साध्य निरपेक्ष होवाथी सिद्धिना हेतु थइ शक्या नहि. जेम घटनो ईच्छक कोइ कुंभार घट उत्पन्न करवानां साधनो जे दंड चक्रादि तेनो रात दिवम निरंतर घणो व्यापार करे पण साध्य जे घट ते सिद्ध करवा तरफ जो लक्ष प्रापे नहि Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अर्थात् माटीने चक्र ऊपर मूकी तेमांथी स्थास कुसल बुध्नादि पर्यायो निपजावे नहि तो कोइ पण काले घट सिद्ध थाय नहि. पण जो ते घट सिद्ध करवा तरफ लक्ष स्थापी स्थास कुशल वुध्नादि पर्यायो उपजाववामां दंड चक्रादिनो योग्य व्यापार करे तो अवश्य घट सिद्धि करी शके अने स्यारेज तेनो दंड चक्रादिनो सर्वे व्यापार सफल कहेवाय तेमज भवभ्रमणथी उद्विग्न थएल भव्य जीव शुद्धास्म भाव सिद्ध करवानी रुचि धरी ते तरफ पुरतो लक्ष अापी गुणस्थान प्रमाणे योग्य व्यवहार प्रादरे अर्थात् प्रथम समकीत गुण प्राप्त करवानो व्यवहार श्रादरे कारण के ते मोक्षनुं प्रथम पगथीले "जिन पणत्तं धम्म, सद्दहमाणस्स होई रयण मिण ॥ सारं गुण रयणाणय, सोवाणं पढम मोरकस्ल" पछी देश विरति सर्वविरती थवानो व्यवहार आदरे, पछी अप्रमत्तादि गुण स्थान प्राप्त थवानो योग्य (आगम प्रणीत व्यवहार प्रादरे तो केवलज्ञानादि अनुपम लक्ष्मीनो स्वामी थाय, पोतानुं भजर अमर शुद्धात्म (निर्वाण) पद् प्राप्त करे. अने तेम करता तेनो व्रत तप पञ्चखाण प्रतिक्रमणादि सर्व व्यवहार सफल कल्याणकारी कहे Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाय. पण हे चंद्रानन प्रभु ! अनादि कालथी पुद्गल द्रव्यनागुण पर्यायाने अनुभवता.तेमांज तल्लीन थएला संसारी जीवोने सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र रूप भावधर्मनी रुचि क्याथी थाय ? जो कदाच एम पोतानी मेले थवी मुश्केल तो सद्गुरुना उपदेश वडे पण थइ शके पण मा निकृष्ट पंचम भा. रामां भावधर्मनां स्थापन' करनार परमोपकारी सद्गुरुनी अतिशय विरलता भने भावधर्म एक कोरे मूकी साध्य शून्यं द्रव्यक्रियामां लगाडनार उपदेशको घणा. ए विषे न्याय विशारद श्रीमद् यशोविजयजी कहे, ले-" ज्ञान दर्शन चरण गुण चिना, जे करावे कुलाचाररे, लुटीया तेणे जन देखतां, किहां करे लोक पोकाररे ।। काम कुंभादिक मधिकर्नु, धर्मर्नु को, नवि मूलरे, दोकडे कुगुरु ते दाखवे, शुथयु एह जग शूलरे ।। अर्थनी देशना जे दिये, ओलवे धर्मना ग्रंथरे; परम पदनो प्रगट चोरथी; तेहथी केम बहे पंधरे ॥ विषय रसमां गृही माचीया, नाचीया कुगुरु मद पूररे; धूम धामे धमाधम चली. ज्ञान मारग रह्यो दूररे ॥ कलहकारी कंदाग्रह भर्या, थापता भापणा बोलरे; जिन वचन अन्यथा दाखवे, भाज तो पाजते ढोलरे ॥ केइ निज दोषने Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ __गोपवा, रोपवा केइ मत कंदरे धर्मनी देशना पालटे, सत्य भाखे नहि मंदरे ॥” प्राचार्य कहे छे "किं भणिमो किं करिमो, ताणह आसाण चिट्ठट्ठाणं । जो दंसिऊण लिंग, खिींचंति णरयम्मि मुद्धजणं ॥” तो हे भगवंत ! नवा जीवो जिन दर्शित शुद्धात्म धर्मने शीरीते पामी शके १ ॥ ३॥ तत्त्वागम जाणग तजीरे, बहु जन सम्मत जेह । मूढ हठी जन आदर्योरे, सुगुरु क- हावे तेहरे ॥ चंद्रानन०॥४॥ . अर्थ:-वली हे प्रभु ! आपना भाखेला प्रागमनुं यथार्थ रहस्य जाणनारने तो भा पंचम कालमां मूढ पुरुषो तजी देखे-उबेखे छे, अने तत्त्व ज्ञानथी विमुख, मूर्खना टोलाने संमत तथा मूढ अनेकदाग्रही पुरुषोए आदरेला सन्मानेला एहवा कुगुरुमो, सुगुरु नाम धरावे के, पण पस्थरनी नाव जेवा प्रगटपणे जिनशासनना वैरीरूप कुगुरुनो भवसमुद्रमांधी केम उद्धारी शके १ मोक्षमार्गे शी रीते दोरी शके १ उक्तंचः-जिम जिम वहुश्रुत बहुजन समत, Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहु शिष्ये परिवरियो; तिम तिम जिनशासननो वैरी; जो नवि निश्चय दरियोरे-तथा उपदेश मालायाम्ः “जह जह बहु सुअसमओ, सीम गण संपरिवुट्ठोय; अविणाच्छिओ असमए, तह तह सिद्धत पडिणीओ.” . . . .' आणा साध्य विना क्रियारे, लोके मान्यो रे धर्म । दर्शन ज्ञान चरित्तनोरे, भूल न जाण्यो ममेरे ॥ चंद्रानन० ॥ ५॥ अर्थः-दर्शन ज्ञान चारित्रनो मूल मर्म जाण्यो नहि अर्थात् सत्ताए अनंत ज्ञान दर्शन चारित्र मय सिद्ध समान सर्वे जीवो छे, पण अनादियी कर्म मल संबंधे अशुद्ध होवाधी ज्ञान दर्शन अने चारित्र रूप शुद्धात्म स्वभावथी विपरीतपणे मिथ्यात्व, अज्ञान, भने कषाय रूप परिणमे छे, पोताना भात्म. वीर्यने तेमां वापरे छे अने तेथी निरंतर सात आठ प्रकारनां कर्म वांधी भवसमुद्रमां परिभ्रमण करतां अनेक प्रकारनी शारीरिक तथा मानसिक असह्य वेदनानो भोगवे छे. पण ते मिथ्यात्व, अज्ञान, अने कषायने तीव्र दुःख दातार तथा भखूट सहजानंदने Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ लूटनार महान् शत्रुमो जाणी तेमां पोताना पास्मवीर्यने नहि वापरतां जीवादि तत्त्वोना यथार्थ अद्वानरूप सम्यक्दर्शन, तथा ते जीवादि तत्त्वोने नयनिक्षेप पक्ष प्रमाणादि सहित संशय, विभ्रम भने विमोह रहित श्रद्धान पूर्वक जाणवा रूप सम्यक्ज्ञान, तथा रागादिक कषाय अने सावध यो. गना परिहार रूप सम्यकचारित्रमा प्रयुजो संसार समुद्रथी आपणा पास्मानो उद्धार करवो. यतःगाथाः-जीवादी सहहण, सम्मत्तं तेसि मधिगमो णाणं; रागादी परिहणं, चरणं एसो दु मोरकपहो ) दश द्रष्टांते दुर्लभ, रस्न चिंतामणी समान मनुष्य भव स्यारेज सफल जाणवो. का. रण के पंचेंद्रिोना विषय भोग तो देवादि गतिमा मली शके ले पण परमात्मपद-मोक्षपद् तो आ मनुष्य भवमांज साधी शकाय छे. माटे आपणा मात्माने रत्नत्रयमां जोडवो, मोक्षमार्गमा प्रवृत्त थवं, एज श्रापणुं सर्वोत्कृष्ट कर्तव्य छ, भने तेज धर्म छे-यतः (सदृष्टीज्ञान वृत्तानि, धर्म धर्मेश्वरा विदुः, यदीय प्रत्यनीकानि, भवन्ति भव पद्धतिः) तेज जगत्वत्सल देवाधिदेव तीर्थकर भगवंतनी Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५E भाज्ञा ले- " मोरक पहे अप्पाणं, ववेहि तं चेव झाहिं तं चेय, तत्थेव विहर णिचं, मा विहरसु अण दव्वेसु” हे भव्य ! तुं मोक्षमार्गमां पोताना प्रास्माने स्थाप, तेज परमात्मपदनुं ध्यान कर, तेज परमात्म पदने अनुभवगोचर कर, अने तेज परमात्म भावमा निरंतर विहार कर, अन्य द्रव्य पर्यायमा विहार करीश नहि, तेमा इष्टानिष्ट बुद्धि वा राग द्वेष रूप परिणाम करीश नहि अर्थात् सर्वदा प्रमाद तजी परमात्मपदनी साधनामा मग्न था. . पण हे चंद्रानन प्रभु ! आ दुषमकालमा ते परमात्म पदनुं यथार्थ स्वरूप जाण्यावगर तथा तेनी साधनारूप जिनेश्वरनी श्रीज्ञानी अपेक्षा तरफ लक्ष राख्या शिवाय अनेक प्रकारनी वाह्य क्रियाओनेज धर्म मानी लीधो, तेमांज रत थया, तेज करी पोताने कृतार्थ समज्या अर्थात् बाह्य निमित्तने कार्य . मानो साचा कार्यथी विमुख थई रह्या, पण जिने: श्वरनी प्राज्ञाथी विमुखपणे वर्सतां सिद्धि थाय नहि. कारणके जिनेश्वरनी प्राज्ञानी अपेक्षा वगरनां सर्ने क्रियानुष्टान निरर्थक छे-श्रीमद् अभयदेव सूरि Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहे छे–“संजम रहियं लिंगं, दसण भट्ट न संजमं भणिय, आणा हीण धम्म, निरत्यय होइ सव्वंपि" तथा "जो पूइड्डइ देवो, तव्वयणं जे नरा विराहंति; हारंति वोहि लाभ, कुदिष्टि राएण अन्नाणी" तथा “पूत्रा पचरकाणं, पोसह उववास दाण सीलाइ; सव्वपि अणुट्ठाणं, निरस्थयं कणय कुसुमव्व" तथा श्री धर्मदास गणी उपदेशमालामा कहे छे. "प्राणाइच्चिय चरण, तम्भंगे ज्ञाण किन्न भग्गति, श्राणं च इक्कतो, कस्साएसा कुणइ सेस; निश्चये आज्ञा एज चारित्र छ अर्थात् जिना. शानुं पालवु एज चारित्र छे. तो जेणे जिनेश्वरनी भाज्ञा भांगी तेणे शु न भांग्यु ? हे प्राणी, जो तुं जिनेश्वरनी श्राज्ञाने उलंघन करे छे तो तुं कोना आदेशथी क्रियानुष्टान करे छे। तथा उपदेश सिद्धांत रस्नमालायाम्-" जगगुरु जिणस्स वय, सयलाण जियाण होइ हिय करणं; ता तस्स विराहणया, कह धम्मो कहणु जीवदया" जगत्गुरु श्री जिनेश्वरन वचन सर्वे जीवोने हित करनार छ तो ते वचनने विराधता केवो धर्म अने केवी जीव दया ? ॥५॥ • गच्छ कदाग्रह साचवेरे, माने धर्म प्रसिद्ध; Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आतम गुण अकषायतारे धर्म न जाणे शुद्धरे ॥ चंद्रानन० ॥ ६॥ ___ अर्थ:-सम्यकदर्शन सम्यक्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूप शुद्धात्म गुणनो, क्रोध, मान, माया, लोभादिक कषायो वडे घात न करवो, अकषाय भावर्मा, शुद्ध परिणामीक भावमा वर्तवु तेज साचो धर्म छे. कारणक " वत्थु सहावो धम्मों" एवं श्री जिने. श्वरतुं पवित्र वचन छे-तथा ते कषायोज कर्मबंधना हेतु . " जोग निमित्तं गहणं, जोगो मण वयण काय संभूदो; भाव निमित्तो बंधो, भावो रदि राग दोम मोह जुदो" तथा अकषायमा वर्ततो-पोताना ज्ञानादि भाव प्राणोनी रक्षा करनारो ज्ञानी अप्रमादी मुनि पोताना तथा परना द्रव्यभाव प्राणनो हिंमक केम थाय ? अने जे अशुद्ध अध्यवसायमा वत छे ते हिंमा नहि करता छतां पण हिंसक छे. यतः-"अहणतो विहु हिंसो, दुट्ठतणुओ मओ अहिमरोव्व, बाहिंतो नवि हिंसा, शुद्ध तणुओ जहा विजो” माटे अकषागमा वर्तवू तथा श्रहिंसामा वर्तg ए वेनी परमार्थे एकताज छे. अने Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अहिंसा धर्मनुं पालन करनार सर्वे धर्मर्नु पालन करनार छे, कारण के सर्वे महावतो, तथा क्षमा'दिक दश धर्मो, तथा परिसह सहन, तथा तप, संयम विगेरे सर्वे धर्मो अहिंसानाज अंग छे, तेमाज कारणो छे, माटे सर्वे धर्मोनो अहिसामां समावेश थाय छे. सव्वानोवि नइअो, जह सायरंमि निवडंति, तह भगवई अहिंसि, सब्वे धम्मा समिल्लन्ति," तथा वली "अहिंसा सर्व जीवानाम्, सर्वज्ञैः परिभाषिता, इदं हि मूलं धर्मस्थ, शेषस्तस्यास्ति वि. स्तरः” माटे अकषायमा वर्ततो मुनि, नवा कर्मबंधने अटकावतो, पूर्व बांधेला कर्मनी निर्जरा करतो, जन्म मरणादि दुःखनो क्षय करी परमानंदपदनेमोक्षपदने प्राप्त करे छे. यदयुक्तं-श्राचारांग सूत्रे जीजा अध्ययने " जे क्रोधने छोडे छे ते मानने छोडे छ जे मानने छोडे छे ते मायाने छोडे छे; जे माया ने छोडे छे ते लोभने छोडे छे; जे लोभने छोडे छे ते रागने छोडे छ; जे रागने छोडे छे ते द्वेषने छोडे छ; जे द्वेषने छोडे छे ते मोहने छोडे छे; जे मोहने छोडे छे तेगर्भधी मुक्तथाय छे; जे गर्भधी मुक्त थाय छे ते जन्मथी मुक्त थाय छे; जे जन्मथी मुक्त थाय Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छे ते मरणथी मुक्त थाय छ; जे मरणथी मुक्त थाय छे ते नरकथी भुक्त थाय छे; जे नरकथी मुक्त थाय छे ते तियेच गतिथी मुक्त थाय छे; जे तियच गतिथी मुक्त थाय छे ते दुःखथी मुक्त थाय छे" एहवा अकषायरूप शुद्ध धर्मने नहि जाण नारा, तेनी अपेक्षा नहि राखनारा, एकांते बाह्य क्रियानी हठ धरनारा पुरुषो मात्र बाह्य क्रियानेज मोक्षतुं कारण मानी, पोताना गच्छ प्रमाणे वर्ती ते बाह्य क्रियानेज परमार्थ ठराववा प्रयत्न करे अने कहे के प्रावू पात्र, वा आवी मुहपत्ती, विगेरे राखवां अने श्रावीज रीते प्रतिक्रमणादि क्रिया करवी तेज मोक्षनुं कारण छे. श्रमाराधी प्रकारांतरे जे उपकरणो तथा प्रतिक्रमणादि बाह्य क्रियाश्रो श्रादरे छे ते मोक्ष पामी शके नहि. एम पोते पारेल बाह्य लिंगने तथा बाह्य करणीने परमार्थ मोक्षद् कारण मानी अमे साचो धर्म श्राराधीए छिये, अमारो धर्म प्रशंसनीय छे, एम जे पोतानी जीव्हाग्रे जल्पे छ अने ते माटे लांबा लांबा वितंडाघादो मांडी बेसे छे, समतारूप अमृतने तजी कषायरूप हालाहल विषः ने भक्षण करे छे; एहवा एकांतवादी पुरुषोनो दुरा, ग्रह नाश करवा माटे श्री जिनेश्वर प्रणीत शुद्धा. Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ गमर्नु रहस्य प्रगट करता श्री मद्यशोविजयजी अध्यात्मसारमा कहे छे.-" अतो रत्नत्रयं मोक्षस्तभावे कृतार्थता; पाखंडीगण लिंगश्च, गृह लि. गैश्च कापिन । पाखंडी गण लिंगेषु, गृह लिंगेषु ये रताः; न ते समयसारस्य, ज्ञातारो बाल वुद्धयः । भाव लिंग रतायेषु, सर्वसार विदोहिते; लिंगस्था वा गृहस्था वा; सिध्यन्ति धूत कल्मषा | भाव. लिंगं हि मोक्षांगं, द्रव्यलिंग मकारणं ; द्रव्यं नात्यतिकं यस्मान्नाप्येक्रांतिक मिष्यते ।" श्रावोज भाव दिगम्बर आचार्य श्री कुंदकुंदाचार्य समयपाहुडमां कहे छे-गाथा " पाखंडी लिंगेषु व, गिहिलिंगसुव बहुप्पयारेसु; कुव्बंति जे ममत्तं, तेहि ण याणं समयसारं-णवि एस मोरकमग्गो, पाखंडी गिहि मयाणि लिंगाणि; दमण णाण चारत्ताणि मोरक मग्गं जिणा विति” अर्थः-पाखंडि साधुलिंगमा वा गृहस्थ लिंगमां चा बहु प्रकारना लिंगमां जे ममत्व करे छे ते समय सारने जाणता नथी, पाखंडीसाधुनो लिंग. वा गृहस्थनो लिंग विगेरे मोक्ष मागे नथी पण श्रीजिनश्वर सम्यक् Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ दर्शन ज्ञान चारित्रने मोक्षनो मार्ग कहे छ-"तमा जहित्तु लिंग, सागार अणगारएहि वा गहिए, दसणणाण चरित्ते, अप्पाणं जुज मोरकपहे" अर्थः-ते माटे सागार अने अणगारना लिंगनू ममत्व तजी, पक्षपात तजी, दर्शन ज्ञान चारित्र रूप मोक्षमार्गमा प्रास्माने लगाव-जोड. तेमज वली श्री अमृतचंद्राचार्य कहे छे." येत्वेन परिहत्य संवृति पथ, प्रस्थापि तेनात्मना लिंगे द्रव्यमये वहन्ति ममतां, तत्वावबोध च्युताः । नित्योद्योत मखंड मेक मतुला, लोकं स्वभाव प्रभा, प्रारभार समयस्य सार ममलं, नाद्यापि पश्यन्ति ते ॥" अर्थ:-जे पुरुषो परमार्थ स्वरूप मोक्षमागेने छोडी बाह्य व्यवहारमा पोताना श्रात्माने स्थापी द्रव्य लिंगनी ममता धरे छे, तेनेज मोक्षन कारण माने छे, ते पुरुषो तत्त्वज्ञानथी विमुख छे वली ते पुरुषो नित्यादित, अखंड, एक, अनुपम, अपराजित, अतुल प्रकाशवंत अने पवित्र परमात्म स्वरूपने अथवा जिनेश्वरना पवित्र समय सारने हजु सुधी पण (मनीनो वेष धारण कर्या छतां पण ) जाणता नथी, प्राप्त थता नथी. माटे एकांत याह्य क्रियानो Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ हठ छोडी, परमार्थ समजी, शुद्ध साध्य तरफ लक्ष राखी शुद्धात्म पद् जेथी सिद्ध थाय एहवो प्रशस्त व्यवहार प्रादरी, आपणा पास्माने अत्यंत परमानंदमय परमात्मपदमा स्थित करो ॥६॥ तत्वरसिक जन थोडलारे, बहुलो जन संवाद ॥ जाणो छो जिनराजजीरे, सघलो एह विवादरे ॥ चंद्रानन० ॥ ७॥ अर्थः-हे चंद्रानन प्रभु ! श्रा दुषमकालमां अमारा भरतक्षेत्रमा सद्गुरुनी विरलता बडे शुद्धात्म तत्त्व साधवाने रसिधा पुरुषोनी संख्या तो रस्न मणिनी पेठे अतिशय अल्प, अने पोतानो मत कदाग्रह स्थापन करवाने तत्पर एहवा काचना कडका जेवा पुरुषो घणा, एवी अमारी दयामणी दशानुं वर्णन हे जिनेश्वर, ! आप सर्वथा जाणो छो ॥७॥ . नाथ चरण वंदन तणोरे, मनमां घणो उमंग ॥ पुण्य विना किम पामीएरे, प्रभु सेवननो रंग रे ॥ चंद्रानन० ॥ ८ ॥ अर्थः-देवाधिदेव श्री तीर्थकरनां चरणकमल के Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ जे शुद्धास्म अनुभवरूप सुगंधे भरपूर तथा विषय कषायनी चाह दाहने शमन करनार, मोक्ष लक्ष्मीन अतिशय प्रिय निवासस्थान छे. तेने वंदन करवानोपूजवानो भ्रमरनी पेठे मां लीन थबानो, माहरा मनमा अतिशय उमेद-उमंग छे पण श्रा भवचक्रमां भ्रमण करतां अनेकवार मनुष्यभव पाम्यो, पण विषय कषायादिकमां मोहित रही रस्नचिंतामणी समान मनुष्यभव वृथा गुमावी दीधो, पुण्यानुबंधी पुण्यना वियोगे जिनेश्वरनी सेवामां रग लाग्यो नहि. तल्लीनता थई नहि. करीयातु कडवू छतां जेम मोंढानी कडवासनो नाश करे छे तेम जिनेश्वरनी लोकोत्तर सेवारूप प्रशस्त राग, ते राग नाश करवालो तथा आत्मगुण प्रोसिनो हेतु छे. यतः-गाथा:" नाणाइसु गुणेसु, अरिहंताइसु धम्म रूवेसु धम्मोवगरण साहम्मीएस्सु धम्मथ्थं जोय गुणरागो ॥ सो सुपसथ्थो रागो, धम्म संयोग कारणो गुण दो, पढम कायवो सो, पत्त गुणे खवइ तं सव्वं ॥” भावार्थ:-ज्ञानादि गुणो ऊपर, अरिहंनादि धर्मात्मा ऊपर, तथा धर्मना साधनो ऊपर, तथा साधर्मी ऊपर गुणावलंबने जे Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ राग करवो ते प्रशस्त राग, धर्म संयोगर्नु तथा गुण प्रगट थवानुं कारण छे. ॥ ८ ॥ जगतारक प्रभु वांदियेरे, महाविदेह मझार॥ वस्तु धर्म स्याद्वादतारे, सुणि करिये निरधार रे ॥ चंद्रानन०॥९॥ अर्थः-संसार समुद्रमांधी उद्धारवा माटे समर्थ, महाविदेहमां विचरता श्री चंद्रानन प्रभुनुं निर्मल भावे वंदन करिए. सूत्रमा “वंदननुं फल श्रवण" एम प्रगट वचन छे, माटे भगवंतने वंदन करतां अनंत धर्मात्मक वस्तुनु स्वरूप स्याद्वादनये सांभलवानो लाभ मले, ते सांभली वस्तु स्वरूपनो निर्धार करी शुद्ध धर्ममां प्रवृत्त थईए. ॥६॥ तुज करुणा सह ऊपरे रे, सरखी छे महाराय ॥ पण अविराधक जीवनेरे, कारण सफलु थायरे ॥ चंद्रानन० ॥ १० ॥ __ अर्थ:-हे चंद्रानन प्रभु ! भाप राग रूपी समुद्र ने उलंघो गया छो, वीतराग भूमिमां विराजमान छो तेथी आप तो शत्रुमां तेमज मित्रमां, सेवकमां तेमज असेवकमां, निंदकमा तेमज स्तुतिकारमा Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समान वृत्तिवाला छो, सर्वे जीवो ऊपर श्रापनी करुणा तो हीणाधिकता रहित एक सरखी छे, संसार सुमुद्रथी तारवा माटे सर्वेने एक सरखो उपदेश प्रापो छो. तो जे जीवो आपनी आजाना विराधक होय ते न तरी शके ते तेमनोज दोष छे. " पत्रं नैव यदा करीर विटपे, दोषो वसंतस्य किम ने लूकोप्यवलोकते, यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणं" पण श्रापनी आज्ञाना आराधक जीवो ा संसार समुद्रथी तरी शके, श्रापर्नु निमित्त तेयोनेज सफल थाय. ॥ १० ॥ एहवा पण भवि जीवनेरे, देव भक्ति आधार ॥ प्रभु समरणथी पामीएरे, देवचंद्र पद साररे ॥ चंद्रानन० ॥ ११ ॥ अर्थः-एहवा अाराधक भव्य जीवोने पण देवाधिदेव हे चंद्रानन प्रभु ! आपनी भक्तिनोज प्राधार ठे, संसार समुद्रमांथी तरवामां प्रवहण समान पुष्ट अवलंबन छे. माटे हे प्रभु ! देवमां चंद्रमा समान सर्वोत्कृष्ट परमात्मपद, आपना गुणनुं स्मरण तथा ध्यान करवाथी प्राप्त थशे ॥ ११ ॥ संपूर्ण ॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० ॥ अथ त्रयोदशम चंद्रबाहु जिन स्तवनम् ॥ ॥ श्री अरनाथ उपासना ॥ ए राग ॥ ॥ चंद्रबाहु जिन सेवना, भव नाशिनी तेह ॥ पर परिणतिना पासने, निष्कासन रेह ॥ चंद्र० ॥ १॥ अर्थः-अज्ञानादि अष्टादश दूषण रहित तथा अनंत चतुष्टय सहित तथा शुद्ध नये प्रास्मधर्मनो उपदेश प्रापी भव्य समूहने मोक्षमार्गे दोरनार, विदेह क्षेत्रमा विहरमान श्री चंद्रबाहु जिनेश्वरनी शुद्ध भावे ( आलोक परलोक संबंधी विषय भोगनी आकांक्षा रहित शुद्धात्म भाव प्रगट करवाना हेतुरूप) करेली सेवा. स्तूर्य जेम अंधकारनो शीघ्रमेव नाश करे छे लेम लीला मात्रमा भव भ्रमणनो नाश करनार छ तथा " पर परिणतिना पासने निष्कासन रेह" जेम हरण शब्दना विषयमां मोहित थइ विविध प्रकारना वाजींचना मधुर कोमल स्वरना राग वशे पारधीये नांखेली जालमा प्रावी फसे छे, पोतानी स्वतंत्रताने गुमावी पराधीन थइ जीव जोखममा भावी पडे छे. तेमज संसारी प्राणींनो Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ शन्दादिक विषयना राग वशे मोह पल्लीपतिए पाथ. रेली अतिशय विस्तीर्ण अने दृढ कर्मजालमा भावी फसे छे, पोताना सहज स्वतंत्र अव्यायाध श्रास्म भोगने गुमावी बेते छे, पराधीन दीन थाय छे, पो. ताना शुद्ध ज्ञानादिक प्राणना जोखममा प्रावी पडे छे, कषायाग्निमां (दग्धमान) पच्यमान थाय छे, बलता रहे छे, एहवा पर परिणतिना रागरूप बं.. धनने छेवा माटे चंद्रबाहु जिनेश्वरनी सेवना ती दणधारा समान छे, तेथी मुक्त करवा अत्यंत सामर्थ्यवंत छे ॥ १॥ पुद्गल भाव आशंसना, उद्घासन केतु ॥ सम्यकदर्शन वासना, भासन चरण समेत ॥ चंद्र० ॥ २॥ अर्थः-अनादिकालथी कर्म जालमा फसेलो पराधीन थएलो आत्मभोगना ज्ञान तथा प्रास्वादननो वियोगी पुद्गलना रूप रस गंध स्पर्शादि विषयभोगमा मग्न थएलो संसारीजीव निरंतर पुद्गल विषयोनी आशंसना- तृष्णाने वश बर्ते के. ते तृष्णाने छेवाने चंद्रबाहु प्रभुनी सेवा केतु समान छे तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ चारित्ररूप अात्मस्वभावमां वास कराववावाली छ, प्रास्मगुणनी सुवासमां संतुष्ट करनार छे. ॥२॥ त्रिकरण योग प्रशंसना, गुणस्तवना रंग॥ वंदन पूजन भावना, निज पावना अंग ॥ चंद्र० ॥३॥ __ अर्थ:-मन वचन अने काया ए त्रियोगनी शुद्धिए (कषायादि प्रशस्त परिणाम रहित ) देवाधिदेव श्री तीर्थंकर भगवंतनो यशवाद बोलवो, तेमना ज्ञानादिक पवित्र गुणनी स्तवना करवी, गुणानुराग करवो, वंदन पूजन विगेरे करवू. तेमना ज्ञानादि शुद्धभाव अनुगत भाषणो श्रास्म परिणाम करवो, ते सर्व प्रापणा अात्माने ज्ञानावरणादि पापथी मुक्त, पवित्र करवानां तथा शुद्धास्मपद प्राप्तिनां अंग छे ।३। 'परमातमपद कामना, काम नाशन तेह ॥ सत्ता धर्म प्रकाशना, करवा गुण गेह ॥ चंद्र० ॥ ४ ॥ अर्थ:-केवलज्ञान, केवलदर्शनादि, अनंत गुणपिंड आपणा शुद्धात्मपदनी कामना, ते साधवानी रुचि, ते पुद्गलादि अन्य द्रव्यनी कामना तृष्णाने Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७३ नाश करवानो हेतु छे, कारणके आपणो श्रात्माज परमात्मपदनुं उपादान छे, तेज परमात्म भावे परिणमनार छ माटे परमात्मपद क्षेत्रांतरे नथी अने क्षेत्रांतरे रहेली वस्तुनी कामनाज दुःखदायी छे माटे परमात्म पदनी कामना थवाथी अन्य सर्व कामनानो उच्छेद थाय छे. ते परमात्मपदनी कामनाना हेतु श्री जिनेश्वर भगवंत छ, तेथी तेमनी लेबा सत्तामा रहेली ज्ञानादि अनंत लक्ष्मीने प्रगट द्रष्टीगोचर करवाने तथा आपणा आस्माने गुणनिधान पूज्य पद प्रापवाने पुष्ट हेतु छे. ॥ ४ ॥ ॥ परमेश्वर आलंबना, राच्या जेह जीव ॥ निर्मल साध्यनी साधना, साधे तेह सदीव ॥ चंद्र० ॥ ५॥ अर्थ:-जगत् चूडामणि तरण तारण परमेश्वरनो श्राश्रय जे भव्य जीवोर रुचि बहुमान पूर्वक ग्रहण कर्यो छे तेज पुरुषो निरंतर पोताना शुद्ध साध्यने साधवावाला छे. परमात्मपद् जेमां प्रगटपणे छे एवा तीर्थकर भगवंत परमात्मपद साधनाना पुष्ट हेतु थइ. शके,पण अन्य कुदेवादिक जे पो - अशुद्ध Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ श्रात्मभावमा वर्ते छे ते मोक्षना हेतु केम बनी शके १ ॥ ५ ॥ ॥ परमानद उपायवा, प्रभु पुष्ट उपाय ।। तुजसम तारक सेवतां, पर सेवन थाय ।। चंद्र०॥६॥ अर्थः-ते कारणमाटे हे चद्रबाहु प्रभु परमानंद पद-मोक्षपद प्राप्त करवामां श्रापज पुष्ट उपाय छो. 'पुष्ट हेतु जिनेंद्रोयं, मोक्ष सद्भाव साधने" हे प्रभु ! आप जेवा पूज्य पुरुषनी सेवा करतां अन्य जीव तथा पुद्गलनी पाशा तृष्णा तथा सेवा मटी जाय, करवी न पडे ॥ ६॥ ॥शुद्धातम संपति तणा, तुम्हे कारण सार ॥ देवचद्रं अरिहंतनी, सेवा सुखकार ॥ चंद्र०॥ ७॥ अर्थः-अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतमुख तथा अनंतवीर्यरूप परमपवित्र, अविनश्वर भने स्वाधीन प्रखूट लक्ष्मी प्रगट-प्राप्त करवाना, हे भगवंत ! आपज साचा कारण छो. कारण के ते केवल ज्ञा Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७५ नादि लक्ष्मीने श्राप संपूर्ण प्रगट स्वाधीन करी निरंतर भोगवो छा, तजन्य परमानंदमां मग्न छो. एबुं प्रापर्नु स्वरूप द्रष्टि गोचर थतां मने पण एवं भान थयु के ए अनुपम विभूतिना ईश्वर माहरी स्वजाति छे, तेथी हु पण श्राप समान लक्ष्मीनो स्वामी थवाने सत्तावंत छ, एम भासन थतां श्राप समान परमात्मपद साधवानी मने रुचि थइ तेथी आप माहरी सिद्धिना साचा कारण छो. जो श्रापना परमानंदमय स्वरूपनुं मने दर्शन न थयु होत तो मने परम्गत्म पद साधवानी रुचि पण थती नहि धने रुची थयाविना कार्य साधनामा उद्यम प्रवृत्ति थाय नहि अने साधना विना कार्य सिद्धि पण थाय नहि माटे न्यायद्रष्टिए जोतां प्रापर्नु सिद्धपद माहरी सिद्धिन कारण प्रतित थाय छ । उक्तं च विशेषावश्यके ।। " सर्वेपि बुद्धो संकल्प्य कार्यं करोति इति ॥ व्यवहारस्ततो बुध्धाद्धयवसितस्य कुंभस्य चिकीर्षितो मृन्मय कुंभस्तहबुद्धयालंबन तया कारणं भवति" तथा वली ते परमात्मपद साधवानो यथार्थ मार्ग बतावनार पण आपज छो तेथी पण आप माहरी सिद्धिना कारण छो माटे Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ । सर्वे देवोमां चंद्रमा समान हे अरिहंत भगवंत ! आपनीज सेवा सर्वे क्लेशथी मुक्त करी परमानंद परम सुखनी दातार छे । १ ॥ ॥ संपूर्ण ॥ अथ चतुर्दशम श्री भुजंग स्वामी जिन स्तवनम्। ॥ देशी । लुअरनी ॥ पुष्कलावइ विजये हो, के विचरे तीर्थपती । प्रभु चरणने सेवेहो, के सुरनर असुर पती। जसु गुण प्रगट्या हो, के सर्व प्रदेशमा । आतम गुणनी हो, के विकसी अनंत रमा ॥१॥ अर्थः-पुष्कलावर्त विजयमा विचरता सम्यक्ज्ञान दर्शन चारित्र रूप तीर्थना प्रगट करनार, फेलावनार तीर्थपति श्री भुजंग स्वामी प्रभुने कषाय तथा अज्ञानथी बिलकुल रहित, परम पवित्र परमानंद स्वरूप जाणी, मोक्ष मार्गमां गमन करवा कुशल तेमना पवित्र चरण युगलने महान् रिद्धि सिद्धिना धारक सुर असुर तथा मनुष्यना इंद्रो, विषय तथा Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ कषाय जन्य भव समुद्री मुक्त थवा, बहु सन्मान सहित सेवे छे. जे भगवंतना दरेक प्रदेशे रहेला ज्ञानादि अनंत गुणो संपूर्ण पणे निर्मल प्रगट थया छे, ते गुणनो व्याघात करनार ज्ञानावरणादि घाती कर्मनो सत्ता सहित नाश कर्यो छे अने तेथी ज्ञानादि धात्म गुणनी सहज, अकृत्रिम, स्वाधीन, श्रने अविनश्वर अनंत अनुभूति (लक्ष्मी) प्रगट प्राप्त थह छे, निरंतर सेना स्वामी तथा भोक्तापणे वर्ते छे-परमानंदां निमग्न छे ॥ १ ॥ सामान्य स्वभावनी हो, के परिणति असहायी । धर्म विशेषनी हो, के गुणने अनुजायी ॥ गुण सकल प्रदेशे हो, के निज निज कार्य करे। समुदाय प्रवर्त्त हो, के कर्त्ताभाव धरे ॥ २॥ अर्थः-सामान्य स्वभाव विना वस्तुनी छती नहि अने विशेष स्वभाव विना कार्य नहि, पर्याय प्रवृत्ति नहि, माटे पंचास्तिकाय ते सदा सामान्य विशेष स्वभावमयी छे. जे स्वभावमा एकपणुं, निस्थपणुं, निरवयापणु, अक्रियपणु, अने सर्वगतपणुं होय ते सामान्य Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ स्वभाव जाणवा (गं निच्चं निरवयवमक्कियं सव्वग्गं च सामन्नं) एवा मूलंसामान्य स्वभाव छ छे-अस्तित्त्वं, वस्तुत्त्वं, द्रव्यत्त्वं, प्रमेयत्त्वं, सत्त्वं अने अगुरुलघुत्त्वं. तथा उत्तरसामान्य स्वभाव वस्तु मध्ये अनंता छे. ते सामान्य स्वभावो सर्व __ द्रव्यमां सर्वे समय निज परिणामीकताए परिणमे छे, तेथी हे भगवंत ! अापना सर्व सामान्य स्व. भावो सदाकाल असहाये परिणमे छे अने हे भगवंत ! अापना सर्व विशेष धर्म पोताना परम गुणने अनुयायीपणे परिणमे छे. ययुक्तं-भिन्न भिन्न पर्याय प्रवर्तन स्वकार्य करण सहकार भूताः पर्यायानुगत परिणाम विशेष स्वभावाः " वस्तुमा जे भिन्न भिन्न पर्याय छे तेनुं कार्य कारण पणे जे प्रवर्तन तेना सहकारभृत जे पर्यायानुगत परिणामी एवा जे स्वभाव से विशेष स्वभाव छे. जीव द्रव्यमां ज्ञायकता कता भोक्तता ग्राहकता आदि अनंत विशेष स्वभाव छ, तेमज धर्मास्तिकायमांगमन सहकारतादि,अधर्मास्तिकायमां स्थिति सहकारादि,माकाशास्तिकायमां अवगाह: दानादि, पुद्गलास्तिकायमा पूरणगलनादि, एम Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ पंचास्तिकायमा अनंत विशेष स्वभाव छे. वली हे भगवंत ! आप स्वतंत्रपणे पोताना ज्ञानादिक कार्यना हमेशां कर्त्ता छो माटे आप परमेश्वर छो कारणके जीव द्रव्य शिवाय अन्य कोई पण द्रव्यमां कापणुं नथी (कर्तत्वं जीवस्य ना न्येषाम् ) कारण के " गुण सकल प्रदेशे हो के निज निज कार्य करे, समुदाय प्रवर्स हो के कर्ता भाव धरे” अापना सकल प्रदेशे रहेला अनंत गुणो पोत पोतार्नु कार्य करेछे पण ते सर्व प्रदेशे समुदाय मलीने एकठी प्रवृत्ति करेथे माटे श्राप स्वतंत्र का छो ।। २॥ जड द्रव्य चतुष्के हो के कर्ता भाव नहि, ॥ सर्व प्रदेशे हो, के वृत्ति विभिन्न कही ॥ चेतन द्रव्यने हो, के सकल प्रदेश मील ॥ गुणवर्तना वर्ते हो, के वस्तुने सहज बले ॥ ३। अर्थः-पण हे भगवंत, ! जडद्रव्य चतुष्कमा कर्ता भाव ठरी शकतो नथी, कारणके जो के ते जड द्रव्यना धर्म प्रदेशे प्रदेशे वर्ते छे परंतु सर्वे Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० प्रदेशोनुं एक समुदायीपणे काय प्रवर्तन नथी, भिन्न भिन्न प्रदेशे भिन्न कार्य होई शके छे.जेम धर्मास्तिकाय कोई प्रदेश वडे अमुक पुद्गलने चलनसहायी थाय छे अने तेथी बीजा प्रदेशे वीजा पुद्गलने चलनसहायी थाय छे एम भिन्न प्रदेशे भिन्न वृत्ति. होवाने लीधे जड द्रव्यमां कापणुं ठरी शकतुं नथी. पण हे भगवंत ! जीव द्रव्यनो सहज स्वभाव एदो छे के तेना ज्ञान दर्शनादि सर्वे गुणोना अविभाग पर्याय दरेक प्रदेशे छे, ते सर्वे प्रदेशना गुगााविभाग एक समुदाये अावीर्भावे थई कार्य करे अर्थात् एक कार्ये परिणमवामां सर्वे प्रदेशना गुणाविभाग सामर्थ्य पणे परिणमे, कोइ पण प्रदेशना खुणाविभाग ते कार्यमा जोडाया शिवाय रहे नहीं, एम जीव द्रव्यना सर्व प्रदेश मली एक समुदायि पणे एक कार्ये परिणमे छे. ॥ ३ ॥ शंकर सहकारी हो, के सह ने गुण वरते ॥ द्रव्यादिक परिणति हो, के भाव अनुसरते ॥ दानादिक लब्धि हो, के न हुवे सहाय विना ॥ सहकार अकंपे हो, के गुणनी वृति घना ॥४॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८१ अर्थः-एम दरेक सर्वे प्रदेशना गुणाविभागो एकत्र एक बीजाने सहकारीपणे सदा परिणमे, चली द्रव्य क्षेत्र कालनी प्रवृत्ति ते द्रव्यना परमभावने अनुसारे वर्ते छे. जेम जीव द्रव्यनो भाव चैतन्यता छे माटे चैतन्य गुण पर्यायनो एक पिंड ते जीव द्रव्य छे, अने चैतन्य गुणने रहेवान श्र. संख्यात प्रदेशमय स्थानक ते जीव द्रव्यन क्षेत्र के भने चैतन्य गुण पर्यापनी प्रवृत्ति ते जीव द्रव्यनो काल छे ययुक्तं-" गुण समुदाओ दव्वं, खित्तं ओगाह वट्टणा कालो ॥ गुण पज्जाय पवात्त, भावो नियवत्थु धम्मो सो॥” दान लाभ भोगादि लब्धीनो ते वीर्य गुणनी सहाय विना वर्ती शके नहीं पण हे भगवंत ! श्रापर्नु वीर्य क्षायिकपणे होवाथी गुण वृत्तिना समूहने अकंपपणे सहकारी थई शके छे तेथी आप हमेशां प्रबंध तथा परमोत्कृष्ट अवस्थामा वर्तो छो, कारण के चलइ स फंदई" ॥ ४ ॥ ॥ पर्याय अनंता हो, के जे एक कार्यपणे ।। वरते तेहने हो, के जिनवर गुण पभणे ॥ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ज्ञानादिक गुणनी हो, के वर्तना जीव प्रते ॥ धर्मादिक द्रव्यने हो, के सहकारे करते ॥५॥ अर्थ:-त्रिलोक पूज्य श्री जिनेश्वर देव एम कहे के के एक कार्य पणे परिणमनारा अनंता छत्ती पर्यायनो समुदाय ते गुण छे. जेम जाणवारूप सामर्थ्य छे जेमां एका अविभागी पर्यायनो समुदाय ते ज्ञान गुण, देखवारूप सामर्थ्य छे जेमा एवा अविभाग पर्यायनो समुदाय ते दर्शन गुण, परिणामालंबन रूप कार्य सामर्थ्य छ जेमा एवा अत्रिभागी पर्यायनो समुदाय ते वीर्यगुण, विगेरे एम 'हरेक द्रव्यना प्रति प्रदेशे पोतपोतानु एक कार्य ' करवानुं सामर्थ्य धरनारा अनंता अविभागरूप पर्यायनो समुदाय ते गुण छे. जीवद्रव्यना ट्रेक प्रदेशे जाणवा रूप कार्य करवातुं सामर्थ्य धरनारा अनता विभाग पर्याय छे तेनो समुदाय ते ज्ञान मुण. एम ज्ञानादि अनंत गुणनी वर्तना जीव द्रव्यमां छे. ययुक्तं-नय चक्र सारे-" तत्रैकस्मिन् द्रव्ये प्रति प्रदेशे स्त्र स्व एक कार्य करण सामर्थ्य रूपा अनंता अविभाग रूप पर्याया स्तेषां समुदायो गुणः भिन्न कार्य क Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८३ रणे सामर्थ्यरूपा भिन्न गुणस्य पर्यायाः एवं गुणा अप्यनंताः प्रतिगुणं प्रतिदेशं पर्याया अविभाग रूपाः अनंता स्तुल्याः प्रायोइति ते चास्ति रूपाः प्रति वस्तुनि अनंता स्तलोनंत गुणाः सामर्थ्य पर्यायाः” अने धर्मादिक 'जड द्रव्यमा ज्ञान गुणथी अतिरिक्त चलनसहकारादि गुणो वर्ते छे ।। ५॥ ग्राहक व्यापकता हो, के प्रभु तुम धर्म रमी ॥ आतम अनुभवथी हो, के परिणति अन्य वमी ॥ तुज शक्ति अनंती हो, के गाताने ध्यातां ॥ मुज शक्ति विकासन हो, के थाये गुण रमतां । ६॥ अर्थ:-हे प्रभु ! भेदविज्ञाननी पूर्णता वडे श्राप निरंतर ज्ञानादिक शुद्धात्म गुणना ग्राहक छो. तेथी अतिरिक्त विषय कषायने ग्रहण करवाथी श्राप मुक्त थया छो, तेमज प्रापनी व्यापकता पण ज्ञानादिक शुद्धात्म गुणमांज निरंतर व्यापे छे पण विषय कषायमां कदापि काले व्यापे नहि तेथी आप सदा Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ परभावथी अव्याप्त छो तथा नित्य शाश्वत स्वाधीन अने एकांतिक सहज सुख पिंड शुद्धात्म द्रव्यनी अनुभूतिनो निरंतर प्रास्वाद लेनारा तथा मांज विलासी थइ पौद्गलीक विभूतीनुं कापणुं भोक्तापणुं तथा रमणपणुं वमननी पेठे सर्वथा प्रकारे तजी दीधुः कारणके शुद्धात्म अनुभवरूप अमृतपानमां मग्न पुरुष, पौद्गलीक विषय कषायरूप हालाहल विष पीवाने केम इच्छे ? हे प्रभु ! " अजडत्वात्मिका चितिशक्तिः, अनाकारोपयोगमयी दृशिशक्तिः; साकारोपयोगमयी ज्ञानशक्तिः, अना कुलत्व लक्षणा सुखशक्तिः, स्वरूप निर्वर्तन सामर्थ्यरूपा वीर्यशक्तिः, अखण्डित प्रताप स्वातंत्र्य शालिवलक्षणा प्रभुत्वशक्तिः, क्रमाक्रमवृत्ति वृत्तलक्षणोत्पादं व्यय ध्रुवत्वशक्तिः” तथा कर्तृत्वशक्ति, भोक्तृत्वशक्ति, परिणामशक्ति, स्वधर्म ग्राहकत्वशक्ति, स्वधर्म व्यापकत्वशक्ति, तत्त्वशक्ति, एकत्वशक्ति, अनेकत्वशक्ति, कारणशक्ति, संप्रदानशक्ति, अपादानशक्ति, अधिकरणशक्ति, संबंधशक्ति, ए श्रादि अनंतशक्ति आपमा, समवाय संबंधे रहेली छे ते शक्तिमोर्नु Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८५ स्मरण तथा ध्यान करतां तथा शुद्धास्मगुणमा रक्षण करतां सत्तागते रहे ली श्राप समान माहरी सर्वे शक्तिप्रो प्रगट थाय, सहज शिवलक्ष्मीनी प्राप्ति थाय ॥ ६ ॥ इम निजगुण भोगी हो, के स्वामी भुजंग सुदा ॥ जे नित वंदे हो, के ते नर धन्य सदा ॥ देवचंद्र प्रभुनी हो, के पुण्येभक्ति सधे ॥ आतम अनुभवनी हो, के नित लित शक्ति वये ॥ ७॥ . अर्थः-एम शुद्धात्म गुण पर्यायने निरंतर भोगवनारा परमानंद समूह हे श्री भुजंग स्वामी! पवित्र भाव वडे जे आपनुं नित्यवदन स्मरणादि करे छे तेज पुरुषो आ जगत्त्रयमां धन्य छे ! तेज पुरुषो स्तुति पात्र छे, तेज पुरुषो कृतार्थ छे, हे देवाधिदेव ! आपनी भक्ति महत्पुण्यना योगेज साधी शकाय छे वली मापनीज भक्तिना पसाये पोजना चंद्रमानी पेठे श्रात्म अनुभवनी शक्ति Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ दिन प्रतिदिन वृद्धिंगत थाय, भाखरे पूर्णानंदनी प्राप्ति थाय ॥७॥ ॥संपूर्ण ॥ ॥अथ पंचदशम श्री ईश्वरदेव जिन स्तवनम् ॥ ॥ काल अनंतानंत ए देशी ॥ । सेवो ईश्वर देव, जिणे ईश्वरता हो, निज अद्भुत वरी; तीरोभावनी शक्ति, आवीर्भावे हो, सहु प्रगट करी ॥ १॥ अर्थः-महाविदेहमा विहरमान हे श्री ईश्वरदेव ! आपे सर्व जगत् त्रयने अाश्चर्य तथा परमा' नंद पमाडे एवी इश्वरता प्रगट-संप्राप्त करी छे. ते ईश्वरता केवी छे-पोताना शुद्ध गुण पर्याय मां वरते छे तेथी पूर्ण पवित्र स्वाधीन तथा प्रविनश्वर छे. . परद्रव्यना रागथी रहित होवाथी राग द्वेष भय तथा कामनाथी रहित छे माटे अत्यंत सुख समूह रूप छे. परमानंदमय छे. अनादि विभावने लीधे आत्मा राग द्वेष रूप अशुद्ध भावे परिणमी ज्ञानावरणादि अनेक प्रकारना कर्म बंधन वडे पोतानी ज्ञानादि अनंत विशेष Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८७ शक्तिओने माच्छादित करे छे, पोताना स्वाभा विक परमानंदथी विमुख रहे छे पण हे परमेश्वर ! आपे पोताना आत्मानुं तथा पुद्गलादि परद्रव्यनुं स्वरूप यथार्थ भोलखी पोताना स्वरूपने सुखनिधान जाणी तेना रसिया थई सम्यक्पराक्रम चादरी परकता, पर भोक्तृता, परग्राहकता, परव्यापकता, पररमणता विगेरे अनंत विभावनो परित्याग करी, शुक्लध्याननी तीव्र अग्नि वडे ज्ञानावरणादि कर्ममलने भस्मीभूत करी, शुद्ध सुबर्ष समान परम प्रकाशमान् अनंत परमानंदमय पोतानी ज्ञानादि सर्व शक्तिओ " आवीर्भावे प्रगट करी " प्रगट, निरावरण स्वकार्य प्रयुक्त करी राग द्वेष मोह विगेरे नाश करी, सर्व दूषण रहित स्वसत्तामां विराजमान रहि पोताना ज्ञानादि शुद्ध अनंत गुणोनी ईश्वरता निष्कंटकपणे भोगवो छो. तेथी हे परमेश्वर ! आपमां साधी ईश्वरता जोई परमाहल्लादित थई पवित्र विनय युक्त आपनी द्रव्यभावधी सेवा करीए द्रव्य भाव सेवानुं स्वरूप" द्रव्यसेव वंदन नमनादिक, अर्चन वली गुण ग्रामोजी । भाव अभेद थवानी ईहा, परभावे निःकामीजी " ॥ • Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . १८८ . अर्थ:-सर्व परभावनी कामना रहित जिनेश्वरना पवित्र गुणोमा बहु सन्मान धरी ते समान पवित्र, गुणो प्रगट, करी बारहंत समान पोतार्नु परमात्म -पद, साधq ते भावसेवा छे. तथा ते भावसेवाला कारणरूप, भावलेवाने प्रशस्त, परमपूज्य, श्री जिनेश्वरना , पवित्र गुणोनुं स्मरण तथा गान करवू तथा ते जिनेश्वरनी परम पवित्र ज्ञान मूर्तिने वंदन नमनादि करवू ते द्रव्यसेवा छ। १ ।। ___ अस्तित्वादिक धर्म, निरमल भाव हो सहुने “सर्वदा ॥ नित्यत्वादि स्वभाव, ते परिणामी 'हो जड चेतन सदा ॥ २ ॥ , अर्थः-अस्तित्त्व, वस्तुत्त्व, द्रव्यत्त्व, प्रमेयत्त्व, श्रगुरुलघुत्त्व तथा सत्व ए छ मूल सामान्यस्वभाव सर्व द्रव्यमां सदाकाल निरावरणपणे वर्ते छे तथा सर्वे जड तथा चेतन द्रव्यो नित्यस्वादि स्वभावे । निरंतर परिणमे छे. माटे ए सामान्यस्वभावनी निरावरणता वडे तथा साधारणधर्मना परिणाम घंडे तो हे ईश्वरदेव ? आपने परमेश्वरपणानी पदवी प्राप्त थई शके नहि पण ॥ २॥ . ..' कत्ता भोक्ता भाव, कारक ग्राहक हो ज्ञान Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चारित्रता ॥ गुण पर्याय अनंत, पाम्या तुमचा हो पूर्ण पवित्रता ॥३॥ : अर्थ:-कापणु, भोक्तापणु, कारकपणुं, ग्राहकपणुं, ज्ञान, चारित्र, विगेरे अनंत गुणपर्याय ते पूर्ण पवित्र थया छ, सदाकाल पूर्ण पवित्र पणे . वर्ते थे, ए कारणमाटे प्रापमा परमेश्वर पनी प्रतीत थाय छे. अनादि अज्ञान वशे जीव, परभावनो कर्ता बने छे अर्थात् में घर बनाव्युं, में नगर बनाव्यु, में अमुक पदार्थने सुवर्ण - बनाव्यु, -, अमुक पदार्थने सुगंध बनाव्यो, अमुक- पदार्थने सरस रसवालो घनाव्यो,,अमुक पदार्थने मनोहर स्पर्शवालो बनाव्यो, विगेरे परभावना कापणाना अभिमान, वडे ज्ञानावरणादि कर्मनो कर्त्ता बने छे. एम द्रव्यकर्म, नोकर्मादिकनो कर्ता, बनी पोताना शुद्ध ज्ञानादि परिणामे परिणमवा रूप शुद्ध कापणाथी वि मुख रहे छे. पण ज्यारे सम्यक् ज्ञाननी प्राप्ति थाय, तत्वरुची थाय, त्यारे पस्भावना.. कोपणाने तजी स्वाभाविक कार्यमा पोतानी शक्तिने जोडे, शुद्धज्ञान दर्शन चारित्रनो कर्त्ता थाय, तेमज अज्ञान वो परभावनो भोक्ता बने छ अर्थात् वर्ण गंध ___ रस स्पर्श स्त्री पुरुष वस्त्र खादिम स्वादिम पदार्थने " Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में भोगव्या, हुं भोगq छु, हुं भोगवीश, एम पर. भावना भोक्तापणानुं अभिमान करे छे. पण ज्यारे सम्यक्ज्ञाननी प्राप्ति थाय स्यारे पोताना ज्ञानादि शुद्ध गुण पर्यायने पोताना भोग उपभोग जाणी ते भोगववानो कामी थइ तेना भोगमा मग्न थाय, परभादर्नु भोक्तापणुं दूर थाय. तेमज अनादि विभाव वशे अशुद्ध कारक प्रवृत्तिमां पोताना प्रात्म परिणाम ने थिर करे छे, तेमज परभावमा व्यापक अर्थात् तल्लीन-तद्गत 'थइ रहे छे, तेमज अशुद्ध ज्ञाने परिणमे के अर्थात् देहने प्रास्मतत्त्व जाणे छे, पौद्गलीक भोगने आस्म भीग जाणे,छे, पौद्गलीक विषय सुखमा सुख जाणे छे, शारीरिक वीर्यने प्रास्मवीर्य जाणे थे, तेमज पौद्गलीक परिणाममा पोनाना आस्माने स्थित करे छ, एम अज्ञान वशे संसारी भात्मा पोताना सर्वे कर्तस्वादि स्वभावने अशुद्धपणे परिणमावी अनेक प्रकारना ज्ञानावरणादि कर्म बांधि पोतानी ज्ञानादिक अनंत संपदाना ईश्वरपणाथी दर वर्ते छे. पण हे ईश्वरदेव ! आपे ते पोताना सर्वे कर्तृत्वादि स्वभावने शुद्ध भावे परिणमाव्या-पूर्ण पवित्र थया, हवे कोइपण काले अशुद्धताय परिणम नहि माटे भाप श्री एवंभूत Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६१ नये पोतानी ज्ञानादि निष्कलंक, भविनश्वर लक्ष्मी. ना स्वामी-ईश्वर थया छो माटे श्रापज साचा ईश्वर छो. ॥३॥ पूर्णानंद स्वरूप, भोगी अयोगी हो उपयोगी सदा ॥ शक्ति सकल स्वाधीन, वरते प्रभुनी हो जे न चले कदा ॥ ४॥ अर्थः-वली हे भगवंत ! श्राप पूर्णानंद स्वरूप छो. जगत्वासी जीवो धन स्त्री आदि ईष्ट पदार्थोनी अधिकतर प्राप्ति वडे पोताने पूर्णानंद माने छे; पण ते समुद्रना कल्लोलनी पेठे अवास्तविक छे, क्षणभगूर छे, तृष्णा रूपी भागने वधारनार छे, तथा स्वाभाविक संपदानो घात करनार छे. पण प्रापनी ज्ञानादिक संपदा ते श्रापथी प्रदेशांतरे नथी तेथी ते दूर थवानो कदापि भय नथी, वली एक क्षेत्राघगाही होचाथी चाह दाहथी अतीत छे, वली ते ज्ञानादि संपदा सहज स्वाभाविक छे माटे ते राखवानो अथवा मेलववानो प्रयास करचो पडे तेम नथी, वली ते आपने सहज संबंधे छे तथा परद्रव्यथी भग्राह्य छे माटे तेने कोइ भांगी लूटी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ - - शक तेम नथी मेथी हे भगवत ! श्रापज पूर्णानंद छो. ययुक्तंश्लोकः-" पूर्णता या परापाधेः सा याचितक मंडनं । या तु स्वाभाविकी सैव जात्यरत्नविभानिभा ॥ अवास्तवी विकल्पैः स्यात् पूर्णताब्धे रिबोर्मिभिः ॥ पूर्णानंदस्तु भगबांस्तिमितादधिसन्निभः ॥” तथा हे भगवंत ! श्राप स्वरूप भोगी छो; मात्र ज्ञानदर्शन चारित्रादि पोताना शुद्ध निरूपाधिक गुण पर्यायने भोगववा बाला छो तेथी श्राप सदा निष्कंटक छो, तथा हे भगवंत ! आप मन वचन तथा कायानी क्रियाना श्रकर्ता थया छो, योगर्नु ममत्व सपेदा दूर की, छे तेथी आप अयोगी छो, वली आप सदा उपयोगी छो, ज्ञानोपयोगनो घात करनार ज्ञानावरणीय कर्म तथा दर्शनोपयोगनो घात करनार दर्शनावरणीय कर्म ए नेनो श्रापे सत्ता सहित सर्वथा नाश कर्यो छे माटे हवे श्रापना उपयोगने कोइ पण स्खलना पमाडनार नथी तेथी आप सदा उपयोगी छो, सर्वे समय शुद्ध ज्ञानदर्शनोपयोगमां निरंतर वर्तो छो; एम हे भगवंत ! Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६३ ज्ञानादि सर्वे शक्तिउं श्राप पोताने स्वाधीन बतायो छो वली सर्वे कर्मनो अभाव करी श्रापे ते शक्ति पोताने स्वाधीन करी छे माटे ते हवे आपथी कोई पण काले क्षणमात्र पण प्रदेशांतरे थनार नथी, सदा काल श्रापमा अचल पणे रहेशे तेथी तजन्य अानंदमां आप सदा मग्न छो ॥ ४॥ दास विभाव अनंत, नासे प्रभुजी हो तुज अवलंबने ॥ ज्ञानानंद महंत, तुज सेवाथी हो सेवकने बने ॥ ५॥ अर्थ:-ज्यांसुधी आत्मा सचेत थयो नथी स्पांसुधी अनादि विभाव स्वभाव होवाने लीधे श्रात्मा सम्यक्ज्ञाने नहि परिणमतां अज्ञानपणे परिणमे छे, सम्यक्दर्शनपणे नहि परिणमतां मिथ्यादर्शनपणे परिणमे छ, स्वस्वरूपमा रमण नहि करतां विषय कषायमा रमण करे छ पंडितभावे वीर्य नहि फोरवतां बाल बाधक भावे फोरके छे, सूक्ष्म तथा स्थूल क्रियानो रागी थई कर्म बंधन करे छे शुद्ध स्वभावनो कर्त्ता नहि बनतां परभावनो कर्ता बने छ, शुद्ध स्वभावनो भोक्ता नहि बनता परभाधनो भोक्ता बने छ, शुद्ध ज्ञानादि गुणनो Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ ग्राहक नहि थतां परगुण पर्यायनो ग्राहक थाय छे, शुद्ध स्वभावमां नहि व्यापतां परभावमां व्यापे छे, एम ज्ञानादि अनंत गुणोने श्रशुद्धपणे परिणमाववारूप जे अनंत विभाव हुं सेवकने वलगेलो छे ते सैव विभाव हे परमेश्वर ! आपना अवलंबनवडे समूल नाश थशे. वली हे परमेश्वर ? श्रापनी पवित्र आज्ञामां विचरवारूप साची सेवाथीं हुं सेवकने अखूड अचल अविनश्वर ज्ञानानंद प्राप्त थशे. ज्ञानानंद तेज साचो आनंद छे. विषय कषाय वडे मनायेलो आनंद ते अवास्तिविक कल्पित तथा दुःख निदान छे || ५ ॥ ॥ धन्य ! धन्य ! ते जीव, प्रभु पद वंदी हो जे देशन सुणे ॥ ज्ञान क्रिया करे शुद्ध अनुभव योगे हो निज साधकपणे ॥ ६ ॥ अर्थ - धन्य छे ते जीवोने ! धन्य छे ते जीयोने ? के जे हे परमेश्वर ! आपना पवित्र चरणकमलने वंदी सर्वे जीने सुखकारी संसार समुद्रमांथी तारनार धर्मदेशना रुचि पूवर्क श्रवण करे महत्पुण्यना योगे आप श्रीनो दिव्यवाणीनो लाभ मले छे, रत्नचिंतामणी थी अत्यंत दुःप्राप्य अमूल्य Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६५ आपनी देशनानो यथार्थ रहस्य पामी पोताना शुद्धास्म पदना साधकपणे शुद्धात्म अनुभव योगे ज्ञानशुद्धि तथा क्रियाशुद्धि श्राद्रे "ज्ञानशुद्धि"संशय विभ्रम अने बिमोह रहित शुद्ध तत्त्वनुं जाणवू ते शुद्धज्ञान छे. ते शुद्धज्ञान सर्व दोषथी रहित केवलज्ञानदिवाकर श्री अरिहंतादिना सदुपदेशद्वारा तथा तेउनीप्ररुपेला सदागमद्वारा वाचना, प्रिच्छना, पर्यटना, अनुपेक्षा तथा धर्मकथा विगेरे साचा निमित्तथी शुद्धज्ञाननी प्राप्ति थाय छे माटे तेउनु अतिचार रहित निरंतर सेवन करवू जेथी ज्ञानशुद्धि थाय. " क्रियाशुद्धि”-क्रिया बे प्रकारेछे. बाह्यक्रिया अने अंतरंग क्रिया-शुद्धा हारादिकनुं ग्रहण करवु तथा तथा इयो भाषादि समितिनुं पालन करवु विगेरे बाह्य क्रियाशुद्धि छे. तथा स्वसमय परसमय, स्वद्रव्यं परद्रव्यने भिन्न भिन्न यथार्थ जाणवामां वर्तवु तथा शुद्धात्म स्वरुपनो घात करनार क्रोधादिक कषायोनो भेद विज्ञान रूप तीक्षण बाणवडे नाश करवो, तेश्रोनो भात्म सत्ताभृमिमां प्रवेश थवा देवो नहि, एम शुद्धास्म स्वरुपनु रक्षण करवू, शुद्धास्म अनुभवमा विचरवू ते अंतरंग क्रियाशुद्धि छे. ययुक्त-द्रव्यानुयोग Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ तर्कणायाम् "बाह्य क्रिया आवस्यकादि रूपा बाहियांगोस्ति च पुनः अंतरंग क्रिया च स्वसमय परसमय परिज्ञानरूपा ज्ञानक्रिया अपरो द्रव्यानुयोगोस्ति” अंतरंगक्रियाशुद्धिनी प्राप्ति माटेज बाह्यक्रियाशुद्धि आदरणीय, प्रशसनीय छे. संवर हेतु छे, पण अंतरंगक्रियाशद्धिनी अपेक्षा वगरनी बाह्य क्रियाशुद्धि ते बंध हेतु छ.-" शुद्धात्म अनुभव विना बंध हेतु शुभ चाल ॥ आतम परिणामे रम्या, एहज आस्रव पाल ।” माटे बाह्यक्रियाशुद्धिमां प्रवृत्त थतां अतंरंगक्रियाशुद्धिथी चूक नहि अने अंतरंग क्रियाशुद्धिनी कारणरूप बाह्यक्रियाशुद्धिनी उपेक्षा करवी नहि माटे क्रियाशुद्धि तथा ज्ञानशुद्धि ए बनेनुं जिनाज्ञा प्रमाणे, पालन करतो स्याद्वादमा कुशल एवो ज्ञानी शुद्ध निरामय निर्वाणपदने प्राप्त थाय छे. यद्यक्तः-वसंततिलका " स्यादवाद कौशल सुनिश्चल संयमाभ्यां, यो भाव यत्य हरदः 'स्वामिहोपयुक्तः । ज्ञान क्रिया नय परस्पर Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ तीव्र मैत्री, पात्री कृतः श्रयति भूमि मिमां स एकः ।” अर्थ:-जे पुरुष स्याद्वादमा कुशल अर्थात् जीवादि तत्त्वना शुद्ध ज्ञानपूर्वक समिति गुप्तिरूप संयम अादरतो शुद्धात्म स्वरूपे निरंतर भावे छे ते ज्ञानी पुरुष ज्ञाननय श्रने क्रियानयनी तीव्रमैत्रीन पात्र थतो शुद्धात्मभूमि-निरवाण पदने प्राप्त थाय छे. ॥ ६॥ वारवार जिनराज तुज पद सेवा हो होजो निरमली ॥ तुज शासन अनुजाइ, वासन भासन हो तत्त्व रमण वली ॥ ७॥ . अर्थ:-माटे स्याहाद वाणीना उपदेष्टा हे परमेश्वर ! अा भीषण भवसमुद्रमाथी तारवाने समर्थ एवी आपना चरण युग्मनी सेवानो निरंतर मने लाभ मलजो, वली हे परमेश्वर ! आपना ज्ञान न्याय अने दया युक्त पवित्र शासननी रुची, ज्ञान तथा शुद्धात्म तत्त्वमा रमण ए सर्वे सदाकाल माहरा मात्म परिणाममा वास करजो ॥ ७ ॥ शुद्धातम निज धर्म, सचि अनुभवथी हो Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधन सत्यता ॥ देवचन्द्र जिनचन्द्र, भक्ति पसाये हो होशे व्यक्तता ॥ ८॥ अर्थः-शुद्धात्म धर्म (सम्यक्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यकचारित्रादि) नी रुची तथा अनुभव जे वडे थाय ते सर्व साधनो सत्य छ, तथा हितकारी छे. शुद्धात्म धर्मना अनुभवना हेतुरुपे आदरेला सर्वे बाह्य योगरूप साधनो सत्य तथा हितकारी छे. श्री देवचन्द्र मुनि कहे छे के हे जिनचन्द्र ! श्रापनी भक्ति पसाये अर्थात् श्रापनी अाज्ञानुं सेवन कर. वाथी (प्राणाकारी भत्तो, प्राणा छेइनो सो अभ. तोत्ती ) मारी सर्व शुद्धास्म संपदा प्रगट थशे. ॥८॥ ( संपूर्ण.) -=0ccoooooo ॥ अथ श्री षोड़शम नमिप्रभ जिन स्तवनम् ॥ अरज अरज सुणोने रूड़ा राजोया हो जी ॥ ए देशी ।। नमिप्रभ नमिप्रभ प्रभुजी विनवू होजी, पामी पामी वर प्रस्ताव ॥ जाणोछो जाणाछो विण विनवे हो जी, तोपण दास स्वभाव ॥ नमिप्रभ० ॥१॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अर्थ:-हे नमिप्रभ ! अापने श्रा जगत्त्रयमां प्रभु अर्थात् मालिक जाणी अति दुःप्राप्य आ मनुष्य भवरूप उत्तम अवसर पामी श्राप प्रति विनंती करुं छं. हे देवाधिदेव! श्राप अनंत ज्ञानयुक्त हुवाथी अमारा विनव्या वगर पण अमारी त्रणे कालनी सर्वे हकीकत प्रत्यक्ष पणे जाणो छो तोपण सेवकनो स्वभाव छ के स्वामी श्रागल पोतार्नु दुःख दूर थवा __ माटे विनंति करे ॥१॥ हुं करता हूं करता परभावनो हो जी, भोक्ता पुद्गल रूप ॥ ग्राहक ग्राहक व्यापक एहनो हो जी, रच्यो जड भवभूप ॥ नमिप्रभ०॥ २॥ . अर्थ:-हे परमेश्वर ! अनादि विभाव योग हुँ माहरा शुद्धात्म स्वरूपथी विमुख रही, स्वाभाविक कत्तता, स्वाभाविक भोक्तृता, स्वाभाविक ग्राहकता, स्वाभाविक व्यापकता विगेरेथी चूकी माहराथी विपरीत, विलक्षण, रुप रस गंध स्पर्शादि गुणमय अचेतन जे पुद्गल द्रव्य तेने ग्रहण करवालो कामी तेने नवा नवा अनेक रूपे बनाववालो अभिमानी तेने भोगववानो इच्छक विगेरे थइ तेमांज निरंतर Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० व्यापी रह्यो, एम माहरा स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल, स्वभावथी, विमुखपणे वर्ती जड संगते जडवत् घनी भवसमुद्रमा भ्रमण करवाने निरंतर उद्युक्त थइ रह्यो ।॥ २ ॥ आतम आतम धर्म विसारियो हो जी, सेव्यो मिथ्यामाग॥ आस्रव आस्रव बंधपणुं कयु हो जी, संवर निर्जरा त्याग, नमिप्रभ० ॥३॥ __अर्थ:-राग द्वेषादि विभावरहित स्वरूपने यथार्थ प्रत्यक्षपणे जाणवा रूप शुद्ध केवलज्ञान, निराकारोपयोग मधी केवलदर्शन, स्वरूपरमण-स्वरूपस्थिरता मय सम्यक्चारित्र, ए आदिज्ञानानुयायी पणे वर्तता शुद्धात्म स्वभावो के जे श्रा संसार समुद्रमांथी मुक्त करी अव्याबाध स्वतंत्र प्रखुट परमानंद समूहनो निधान छ, ते शुद्धात्मधर्मने में न जाणया, न चिंतव्या, न अादों पण ते शुद्धात्मधर्मने मलीन करनार-दूषवनार, मिथ्यात्व अज्ञान, अने कषाय रूप मिथ्यामार्ग ( विपरित आचरण ) के जे घोर अनंत दुःखद् निदान छे तेनुं में रुचि सहित सेवन करयु. ए मिथ्यामार्गने सेवतां अानव तथा बंधनो कर्ता थयो. मोक्षमार्ग रुप संवर Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०१ निर्जराने आदी शक्यो नहि. ___ आस्रव-" निरास्त्रव संवित्ति विलक्षण शुभाशुभ परिणामेन शुभाशुभ कर्मागमन मात्रवः”-शुद्धात्म अनुभूतिथी विपरित जे शुभाशुभ परिणाम बडे ज्ञानावरणीयादि कर्मनु आगमन (प्रावधू) ते आस्रव है. मिथ्यात्व अविरति कषायादि जो आस्माना अशुद्ध परिणाम ते भावास्रव छे अने ते भावास्त्रवना निमित्त वडे ज्ञानावरणी यादि कर्म दलनुं श्रावq ते द्रव्यास्रव छे. बंध-बंधातीत शुद्धात्मोपलम्भ भावना च्युत जविस्य कर्म प्रदेशः सहसंश्लेषो बन्धःमिथ्यादर्शनाऽविरति प्रमाद कषाय योगा बन्ध हेतवः" मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय अने योग वडे पूर्व कर्म साथे नवा कर्मनो संबंध (दृढ मलq ) ते बंध छे. ते बंध चार प्रकारे छे-प्रकृति, स्थिति, अनुभाग अने प्रदेशबंध. तमां योग वडे प्रकृतिबंध तथा प्रदेशबंध थाय छे अने कषाय बडे स्थिति बंध तथा अनुभागबंध थाय छे. विशेष विवेचन- पिडिणीअत्तण निन्हव, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ उवघाय पउस अंतराएणां ॥ अच्चासायणयाए, भावरण दुर्ग जिउं जयइ”॥ सम्यकज्ञान सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञानी तथा सम्यक्दनीला प्रतिकुल आचरणथी, तथा सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्दर्शने अोलववाथी, गुरूने वुपाववाथी तथा तेउनो उपघात करवाथी, तथा सम्यज्ञान सम्यक्दर्शन तथा तेना स्वामी तथा तेना कारणो उपर द्वेष, मात्सर्य. ईर्षा करवाथी तथा ज्ञान दर्शनमां अंतराय करवाधी, ज्ञान दर्शन तथा तेना स्वामीनी अाशातना करवाथी ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कमेनो बंध थाय छे. उन्मार्गनी देशनाथी तथा सन्मार्गनो घात करवाथी ए विगेरे कारणोथी मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध थाय छे. क्रोधादिक कषाय तथा हास्यादि नोकषायना सेवनथी चारित्रमोहनो बंध थाय छे. महा आरंभ परिग्रहमा तल्लीनता, रौद्रध्यान तथा उनकषाय वाडे नरकायु नो बंध थाम छे. गृढ हृद्य, मूर्खता, धूर्तता तथा मिथ्यात्वादि शल्य वडे तियंच श्रायुनो बंध थाय छे. अल्प कपायता, दानरुचि तथा मध्यम गुण वडे मनुष्य प्रायुनो बंध Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ थाय छे. सम्यक् दृष्यादि अविरति गुण बडे देवायुनो बंध थाय छे. बालतप, अकामनिर्जरा, सरलता. अनागारीपणुं, विगेरे गुण वडे शुभनामकर्मनो बंध थाय छे. एथी विपरीत प्रातरण वडे अशुभ नामकर्मनो घंध थाय छे. गुणद्रष्टी, मद रहितता, तत्त्व भणवा भणाववा उपर रुचि, जिन भक्तिमा मग्नता विगेरे गुणा बडे उंचगोत्रनो बध थाय छे. एथी विपरीत पाचरण वडे नीचगोत्रनो बंध थाय छे. गुर्वादिकनी भक्ति, क्षमा, करूणा, व्रत, संयम याग, कषाय, विजय, दान, शीलादिक धर्ममा दृढता विगेरे गुणोथी शातावेदनीयनो बंध थाय छे. तेथी विपरीत आचरण वडे अशातावेदनीयनो बंध थाय छे-शंका समकीत, तप, संयम, क्षमा विगेरे थी प्रास्त्रव बंध केम संभवे ? उत्तर " रत्नत्रय मिह हेतु-निर्वाणास्यैव भवति नान्यस्य ॥ आस्त्रवति यत्त पुण्यं, शुभोपयोगऽय मपराध ॥" रत्नत्रय मात्र निर्वाण हेतु छे पण शुभाशुभ कर्मना ___ हेतु नथी, देवादिक गतिना हेतु नथी. पण ज्यांसुधी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ संपूर्ण वीतरागता प्राप्त थइ नथी, रत्नत्रयनी अपूर्णता छे त्यांसुधी सरागता वर्ते छे; ते सरागता-शुभेपयोगवडे कर्मास्त्रव थाय छे. जेम घृतमा बालवानो स्वभाव नथी परंतु घी साथे रहेली अग्निथी बलतां धीथी बल्यो एम बोलाय छे. तेम रत्नत्रयथी तो कर्मबंध थतो नथी तथापि ते रस्नत्रय साथ वर्तता शुभोपयोग (सरागता ) वडे बंध थाय छे. माटे चोथा गुणस्थानथी मांडी संपूर्ण वीतराग गुणस्थान सुधी जे जे अंशे रत्नत्रय होय छे ते ते अंशे बंध नथी जेटला अंशे राग वर्ते छे तेटला अंशे बंध थाय छ. ___ एम शुद्धोपयोगथी चूकी अशुद्धोपयोगमा वर्ततां मोक्षमार्गरूप संवर तथा निर्जरा 'तत्वनो अनादर को. संवर-" कर्मास्रव निरोध समर्थ स्व संवित्ति परिणत जीवस्य शुभाशुभकर्मागमन संवरणं संवरः” शुभाशुभ कर्मास्रवनो निरोध ते संवर छे. ते संवरना हेतु समिति, गुप्ति, परिसहजय, जतिधर्म, भावना तथा चरित्र छे. . निर्जरा-"शुद्धोपयोग भावना सामर्थ्येन Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ नीरसीभूत कर्म पुदगलानामेक देश गलन निर्जरा ॥" शुद्धोपयोग भावनाना सामर्थ्य वडे नीरसीभूत कर्म पुद्गलोर्नु एकोदेश गलवु ते निर्ज रातेनो हेतु तप . " तपसा निर्जरा च” तथा __ सर्व परद्रव्यनी इच्छानो निरोध ते तप छे "इच्छा निरोध स्तप:” ते इच्छा निरोधरूप भावयुक्त तप __ प्रकारे छे. अणसण "मूणोअरिया, वित्ती संखेवणं रसच्चाउ। काय किलेसा सलीणया य बइझो तवो होई ॥ पायच्छित्तं विणउ, वेयावच्चं तहेव सझ्झाउ। झाणं उस्सग्गोविय अभिभतगडं तवो होई ॥” एम छे प्रकारे घाद्य तथा छे प्रकारे अभ्यतर तप छ ॥ ३॥ . . . जड चल जड चल कर्म जे देहने हो जी जाण्यु आतम तत्त्व ॥ बहिरातमता बहिरातमता में ग्रही हो जी, चतुरंगे एकत्त्व ।। नमिप्रभ०॥ ४ ॥ अर्थः-जड अर्थात् अचेतन तथा चल अर्थात् क्षणभंगूर पाणीना परपोटावत् अस्थिर जे शरीर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ तेने में आत्म तत्त्व जाणयुं एटले शरीरमांज अहंबुद्धि करी शरीर तेज हुं छं एम जाण्यु-शरीर वचन अने भननी क्रियाने में आत्मक्रिया जाणी योगक्रिया, ममत्व कयु, एम में बहिरात्मभावनुं ग्रहण कयु, श्रास्माथी अन्य जे अचेतन, जड, क्षणभंगूर शरीर तेमां अहंबुद्धि तथा धन, स्वजन, परिजनादिकमां ममत्व बुद्धि करी श्रात्म स्वरूपथी अजाण रह्यो, माहरा स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावने न जाण्या, पुद्गलना द्रव्य क्षेत्र, काल, भावमा अहं ममत्व मान्यु, जे भाव माहरा अस्तिधर्ममा नथी तेने में माहरा मान्या, आस्मप्रदेशथी बाहिरला परक्षेत्री भावने माहरा मान्या, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीयथो रहित रह्यो. ॥ ४ ॥ केवल केवलज्ञान महोदधि हो जी, केवल. दंसण बुद्ध । वीरज वीरज अनंत स्वभावनो हो जी, चारित्त दायक शुद्ध । नमि०॥५॥ अर्थः-पण हे नमिप्रभ जगत्गुरु! श्राप तो बहिरास्मभावनो अत्यंत प्रभाव करी सर्वे द्रव्यने तेना त्रिकालवी पर्यायो सहित एक समये प्रत्यक्षपणे जाणवा समर्थ एवं जे केवलज्ञान तेना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ ୧ महोदधि अर्थात् महान् समुद्रनी पेठे अखूट निधान थया छो, तेमज सामान्य सत्ता अवलोकन रुप केवलदर्शनना तथा कोइ पण काले जरा पण हीय क्षीण न थाय एवं सहज आत्मीय अनंत वीये प्रगट कयु प्राप्त कयु तथा क्रोधादिक सर्वे कषायोनो अत्यंत अभाव करी दायक चरित्र प्राप्त कर्यु - प्रगट कर्यु, अनंत आत्मीय परमांनंदना भोक्ता थया ||५|| विश्रामी विश्रामी निज भावना हो जी, स्यादद्वादी अप्रमाद । परमातम परमातम प्रभु देखतां हो जी, भागी भ्रांति अनादि || नमि० ॥ ६ ॥ अर्थः तथा हे दयानिधान ! आप सर्वे परद्रच्योना गुण पर्यायोमांथी रमण तथा आराम विनामनो स्याग करी पोताना केवलज्ञानादि शुद्ध स्वभावमां रमण करनारा स्थिरतापणे बिराजमान छो वली हे भगवंत ! आप स्याद्वाद धर्मयुक्त सदा को अर्थात् स्यात्यस्ति स्वभाववंत छो, स्यात्नास्ति स्वभाववंत छो स्यात्एक स्वभाववत छो, स्यात्अनेक स्वभाववंत छो, स्यात्वक्तव्य स्वभाववंत छो, स्याद् अवक्तव्य स्वभाववंत छो, Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ स्यानित्य स्वभाववंत छो, स्यात्अनित्य स्वभाव. वंत छो, स्यात्भव्य स्वभाववंत छो, स्यात्प्रभव्य स्वभाववंत छो, विगेरे अनंत स्यावाद धर्मयुक्त श्राप सदाकाल विद्यमान छो, तथा हे भगवंत ! आप निरंतर अप्रमादभावमां वर्लो छो, क्षणमात्र पण पोताना शुद्धास्मधमथी च्युत तथी नथो, कारण के प्रमादना हेतु जे निद्रा विकथा विषय कषाय मद स्नेह विगेरे छे तेनो श्रापे सर्वथा नाश करेलो तेथी हे परमेश्वर ! आप परमात्म पदने संपूर्ण पणे प्राप्त थया छो. एवा श्राप परमात्मानुं साची रीते दर्शन थतां माहरी अनादीकालनी अनात्मामां आत्मपणानी भ्रांतिनो नाश थयो ॥६॥ जिन लम जिन सम सत्ता ओलखी हो जी, तसु प्रागभावनी ईह ॥ अंतर अंतर आतमता लही हो जी, पर परिणति निरीह ।। नमि० ॥७॥ ___अर्थ:-एम हे परमात्म प्रभु ! केवलज्ञान केवलदर्शनादि अनंत शुद्धधमयुक्त श्राप स्वजातिनुं यथार्थ रीते दर्शन थतां में माहरी सत्ताने आप समान Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ जाणी, सद्दही, श्रापना केवलज्ञानादि शुद्धात्म धर्म मने रुच्या, ते प्रगट करवानी इच्छा थई, परपरिणतिथी विरागभाव उपज्यो, अंतर बास्मतानी प्राप्ति थई. ।। ७ ॥ प्रतिछदे प्रतिछंदे जिनराजने हो जी, करता साधक भाव । देवचंद्र देवचंद्र पद अनुभवे हो जी, शुद्धातम प्रागभाव ॥ नमिप्रभ० ॥८॥ - अर्थ:-स्तुति कर्ता श्रीदेवचंद्र मुनि कहे केहे भगवंत! आप जेम मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगनो स्याग करी परमात्म अवस्थाने प्राप्त थया तेमज हुं जो आप प्रमाणे साधक भाव श्रादर तो हुँ पण निःसंदेह देवमां चंद्रमा समान परमात्म पदनो आस्वाद लेनार भोगवनार थाउं; शुद्धात्म धर्मनी संपूर्ण प्रगटता थाय. ॥ ८॥ ॥ संपूर्ण ॥ अथ सप्तदशम श्री वीरसेन जिन स्तवनम् ॥ ॥ लाचलदे मात मल्हार ॥ ए देशी ।। वीरसेन जगदीश, ताहरी परम जगीश, Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० आजहो दीसेरे वीरजता त्रिभुवनथी घणीजी ॥ १ ॥ अर्थ:- अतुल्य आत्मीय वीरप ( प्राक्रम ) स्फुरायमान करी, अत्यंत दुर्जय दुष्ट परिणामी मोह शत्रुनो लीला मात्रमा नाश करी पोताना नामने सार्थपणे या जगत् त्रयमां प्रसिद्ध कयु छे, एहवा हे त्रिलोकपूज्य देवाधिदेव श्री वीरसेन प्रभु ! तमे ज्ञानावरणादि दुष्ट कर्मनी अत्यंत अभाव करी ज्ञानादि अनंत सर्वोत्कृष्ट संपदा पोताने स्वाधीन करी क्रे, लेना भोग- श्रास्वादमां निरंतर मनपणे परमानंद भोगवो छो. एवी आपनी ज्ञानादि लक्ष्मी आपथी अभेदपणे होवाथी कोइ पण तेने नाश करी शके तेस नथी तथा मोहराजाने वश पडेला जगत्वासी जीवोमां एहवी ज्ञानादि अनंत लक्ष्मीनुं स्वामित्व नथी तेथी आपनी जगीश अर्थात् संपदा परम ( सर्वोत्कृष्ट ) पदने वास्त्विक रीते योग्य है. 1 वली जगत्वासी जीवोनुं वीर्य क्षायोपशमिक भावे होवाथी अल्प छे - अपूर्ण छे अने वीर्यनी अल्पता तथा चलपणाने लीधे कर्मबंध करी पराधिन Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२११ थाय छे, पण हे भगवंत ! अापे वीर्यातरायनो समूल क्षय करी, अखूट, अनंत, अचल्न वीर्य संपूर्ण पणे पोताने स्वाधीन-प्रगट करी लीधुं छे; तेथी आ सर्व जगत्वासी जीवोमा उत्कृष्ट वीर्यवंत आपज छो, एहवा आपना द्रढ स्थिर अने सतेज वीर्य सामे मोहराजा द्रष्टि करवाने पण समर्थ थई शकतो नथी तो नजीक प्राचवानी शी वात ? माटे आपलीज वीरजता सर्वोपरी पद धरावे छे ॥ १ ॥ आगाहारी अशरीर, अक्षय अजय अति धीर आज हो अविनाशी अलेशी ध्रुव प्रभुता वाणीजी ॥२॥ अर्थः-शरीर ते अनंत पुद्गलोना समूह रूप अचेतन पदार्थ छे, अने जीव द्रव्य पोले एक तथा सचेतन पदार्थ छे. तेथी जीव द्रव्यथी शरीर तदन विलक्षण, वस्तुतः भिन्न पदार्थ छे. तथापि अनादि अविद्या बडे. भेद विज्ञान ना अभावे संसारी श्रात्मा भनेक प्रकारनां कर्म बांधी, ते कर्मना उदय बडे प्राप्त थएला शरीरलेज अात्मपणे जाणे छे सदहे छे, तेथी मनुष्यना शरीरमा रहेला जीवने मनुष्य तथा देवना शरीरमा रहेला जीवने देव Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१२ विगेरे मनाय छे, अने तेथी संसारी आत्मा सशरीरी बने छे. पण हे भगवन ! श्राप तो ते अविद्यानो नाश करी संपूर्ण भेद विज्ञान प्राप्त करी, स्वपर द्रव्य ने तद्न भिन्न भिन्न जाणी शरीरमांथी अहं ममत्व उठावी शरीरथी सर्वथा अतीत थया छो माटे हे प्रभु ! श्राप अशरीरी छो. __ शरीर अनंत पुद्गलोना संयोगथी बनेलं होवाथी सचल तथा अस्थिर छे, तेथी तेमाथी केटलाक पुद्गलो स्थलांतरे जतां बीजा पुद्गलो आहारवानी ( लेवानी) जरूर पडे के. माटे शरीर. धारीने पाहारनी जरूर पडे; परंतु हे भगवत ! आप तो अशरीरी छो माटे अापने आहारनी जरूर नथी. प्रापर्नु अंग एकता धारी छे तेथी तेमांथी कोइ पण काले रंचमात्र पण घसावानो, क्षीण थवानो संभव नथी माटे निःसंदेह श्राप अणाहारी छो. ___ अनेक पुद्गलोना मलवाथी जे वस्तु बनेली होय, तेज घसाई. भागी शके, पण एक पुद्गल परमाणुं आदि जे जे पदार्थमा एकत्व छे, असंयोगी छे, ते ते पदार्थ घसाई, भागी अथवा विणशी शके नहि. माटे हे भगवंत ! आप असंयोगी तथा Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ एकस्व महित होवाथी आपना आत्म अंगमा कोइ पण काले पंचमात्र पण क्षय थवानो संभव नथी, श्राप अक्षय पदमा नित्य विराजमान छो. ____ सर्वे द्रव्यो पोतानी सत्ताभूमिमां पोताना गुण पर्यायोना स्वामी पणे वर्त्तवाने सदा काल सत्ताधारी छे. कोइ पण अन्य द्रव्य तेमां प्रवेश करदानेज समर्थ नथी तो श्रापने जीतवानी शं वात १ माटे हे भगवत ! श्राप सदा अपराजित ( अजय ) छो. __ वली श्रापर्नु वीर्य क्षायिकभावे होवाथी आप अत्यंत धीर वीर छो. जेम सूर्यना प्रताप सामे अंधकार अत्यंत प्रभाव पामे छे, तेम आप श्रीना क्षायिकवीर्य जन्य धीर वीरताना, प्रतापथी अापना कर्म शत्रुउं अत्यंत अभावने प्राप्त थई गया छे. ___ जो के सर्वे द्रव्यो वस्तुतः अविनश्वर छे. तथापि अनेक पुदगलोथी वनेला शरीरमांज्यांसुधी अहं ममत्व बुद्वि होय छे स्यां सुधी ते शरीरनो नाश थतां प्रास्मा पोतानो नाश मानी नाशपणाना दुःखने अनुभवे छे. पण आपे पोताना आत्म अंगमा मात्मपणु जाण्युं स्वीकायु, पोनाना एकत्व पिंडना अनुभवी थया. तेथी विनाशपणानो प्रसंग नाथ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ थयो माटे आप निरंतर अविनश्वर पदमा परमानंद , भोगयो छो. लेश्याना हेतु कषाय, योग छे पण श्राप तो कषाय तेमज योगधी सर्वथा मुक्त थया छो माटे अलेशी छो. बली हे भगवंत ! आपनी प्रभुता पण हवे ध्रुव (निश्चल ) थई छे, संसारी जीवो अज्ञान वशे पोताली सत्तासिनो मर्यादा उलंघी परक्षेत्रे परगुण पर्यायोली प्रभूता चाहे छे, एहवा अन्यायी पुरूषोनी कृत्रिम प्रभुता लाश पामे. परंतु आम न्याय शिरोमणी होवाथी पर गुण पर्याय विषे पोतानी प्रभुता स्थापन करता नथी. निरंतर पोताना शुण पर्यायां संतुष्ट छो. एम अापनी प्रभुता एक क्षेत्री, अप्रथग्भूत, नथा समवाय संबंधे होवाथी तेनो कोइ पण कारणे वियोग थवा संभव नथी माठे आफ्नी प्रभुता खरेखर ध्रुव निश्चल छे. आपनी प्रसुताने कोइ पण स्खलना करवा समर्थ थई शके तेम नथी. जे अन्यायी रूष पोताणें घर छोडी पारके वेर चोरी करवा जाय तेनुं धन वीजा चोगे वडे पहेला लूटा जाय, पण जे न्यायी पुरुष बीजाना. पदार्थनी आकांक्षा नहि राग्वतां पोताली Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ विभूतिमां संतोष पणे निरंतर सचेत रहे तेनी विभूति बीजो कोण लूटी शके १ ॥२॥ अतींद्रिय गत कोह,विगत माय मय लोह ॥ आज हो सोहेरे मोहे जग जनता भणीजी॥३॥ ____ अर्थः हे भगवंत ! आप अतींद्रिय छो. पांच इंद्रियोना स्पर्श, रम, गंध, रूप, अने शब्द ए पांच विपयो छ, माठे इंद्रियोनो विषय फक्त पुटुगल छे, परंतु आप अरूपी द्रव्य होवाथी इंद्रिय विषयथी तदन भिन्न छो मेथी आप इंद्रियो बडे अगोचर . (अतींद्रिय) छो. शरीरादि परद्रव्यमां जेने अहं ममत्व बुद्धि होय तेने क्रोद्ध उपजवानो संभव के कारण के ते शरीरादि अनित्य अने परक्षेत्री पदार्थो होवाथी कोई लेने वगाडे विणशाचे अथवा वियोग करे उपर तेने क्रोध उपजे छे. पण हे भगवंत ! आपतो ते शरीरादि परद्रव्यतुं सर्वथा ममत्व तजी पोताना नित्य, अभेद्य समवाय संबंधी ज्ञानादि गुणेमां पोतानुं स्वामित्व अनुभवो छो. तेने कोइ पण अन्य द्रव्य रंचमात्र पण हरकत करवा समर्थ नथी तो मापना परिणाममां क्रोधने अवकाश क्यांची ! Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ क्षमा सरोवरमां निरंतर क्रीडा करता श्राप भगवंतनी पासे क्रोधाग्नि केम प्रावी शके ? बली सर्प जेवी अविश्वास्य, जगत्मा फमाक्वाने अत्यंत बलवत्तर जाल समान जे गया परिणति, तेने आपे तीक्षण धारवाली प्रार्थव रूपी तरवार बडे छिन्न भिन्न करी नांखी छे. पली जाति, लाभ, कुल, विद्या, अधिकार विगेरे आठ प्रकारना मदरूप अतिशय द्रढ पर्वतने प्रापश्रीए मार्दवरूप वज्रदंडवडे चूरेचूर करी माख्यो छे. तथा परद्रव्यादिने ग्रहण संग्रह करवारूप मूर्खाजले भरेला अतिशय विस्तीर्ण लोभसमुद्रने श्राप निस्पृहरूप वहाणमां पारूढ थइ सहज लीला मात्रमा तरी संतोष भूमिमां विराजमान थया छो. __ एम आत्मगुणनो घात करनार तथा भवतरुना मूल रूप क्रोधादिक कषायांने आप भगवते समूल क्षय करी क्षमा, मार्दव, श्रायंव, निस्पृहता विगेरे अनुपम गुणालंकार बडे श्राप सर्वोत्तम शोभाय. प्रान छो, एवी आपनी निकषाय परम शांत मुद्रा अवलोकता जगदुवासी जी वो अस्यंत विस्मय थाय छे. ॥ ३ ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१७ अमर अखंड अरूप, पूर्णानंद स्वरूप । आज हो चिद्रूपे दीपे थिर समता धणीजी ॥४॥ अर्थः-इंद्रिय, बल, आयु अने श्वासोश्वास ए चार जीवनां व्यवहार प्राण के अनेते प्राणना वियोगे मरण कहेवाय छे. पण हे भगवंत ! आपे ते व्यवहार प्राणने पौद्गलीक पर द्रव्यथी निष्पन्न साक्षात्पणे जाणी ते प्राण उपरथी, ममत्व उठावी पोताना शुद्ध चेतना प्राणवडे पोतार्नु जीवन स्विकायु छे, ते चेतना प्राणनो श्रापथी कोइ पण काले वियोग थाय तेम नथी, माटे आप सदा अमर छो. जे संयोगी पदार्थ होय तेमा संधि होय, अने जेमा संधि होय ते भांगी तूटी शके. पण हे भगवंत! भाप असंयोगी शुद्ध एक तत्व छो, आपना अंगमां संधि नथी, तेथी आप सदा अखंड छो. परम स्वभावने अनुयायीपणे द्रव्यना सर्वे गुणो होय छे. जीव द्रव्यनो परम गुण चेतनत्व के माटे जीवना सर्वे गुणो चेतनानुगत होय, ए शिवायना गुणो जीव द्रव्यमा होइ शके नहिं; माटे रुप, रस, गंधादि गुणो चेतनानुगत नथी माटे रूपादिगुणोनो जीव द्रव्यमा अत्यंताभाव छ तेथी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ हे भगवत ! आप सदा अरुपी छो. । जगत्वासी जीवो इष्ट पुद्गलोनी प्राप्ति, प्रभुता, तथा भोगवडे श्रानंद माने छे, पण ते परद्रव्यना ताबे होवाथी जगत्जीवनो आनंद पराधीन, अवास्तविक, तथा क्षणभंगुर छे. पण हे भगवंत ! श्राप त मात्र पोताना गुण पर्यायोनीज प्रभुता, तथा भोगवडे अानंद मानो छो तेथी आपनो प्रानंद निरूपचरित पूर्ण तथा नित्य छे, एम हे प्रभु ! आप पूर्णानंद स्वरुप छो. तथा हे भगवंत! आपनां प्रात्मोय ज्ञान प्रकाश किरणो के जे सर्वे द्रव्यना त्रैकालिक परिणामथी अधिक छे, ते अनंत ज्ञान प्रकाश वडे आप निरंतर सर्वोपरी देदिप्यमान छो. अापना ज्ञान प्रकाशनुं या जगत्त्रयमां कोइ उपमान नथी. वली हे भगवंत ! आप सर्वज्ञ तथा वीतराग होवाथी पूर्ण समतावंत छो. इष्टानिष्ट विकल्पथी सर्वधा मुक्त छो. ते समता क्षायिक भाव जन्य होवाथी हवे कोइपण काले अापना परिणाममा विसमतानो संभव नथी तेथी श्राप पूर्ण निश्चल समताना स्वामी छो. ॥४॥ वेद रहित अकषाय, शुद्ध सिद्ध असहाय । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ आज हो ध्याय के नायकने ध्येय पदे ग्रह्योजी ॥५॥ अर्थ:-नपुंसक वेद, स्त्रीवेद, अने पुरुषवेद ए व्रणे वेदनो नवमे गुणस्थाने तथा सर्वे कषायनो दशमा गुणस्थानना अंतसुधीमा समूल क्षय करी दीधो छ, तेथी हे भगवंत ! श्राप वेद तथा कषाय रहित छो; तथा “खय परिणामे सिद्धा” ए सूत्र प्रमाणे श्रापमा क्षायिक अने परिणामिक ए बे भावज वत्त छे, सकल कर्मनो क्षय करी क्षायिकभाव पोतानु शुद्धात्म स्वरुप संपूर्ण सिद्ध प्रगट कयु छे. अनंतज्ञान, दर्शन, चारित्रना स्वामी दया छो. अने पारिणामिक भाववडे अनंतकालसुधी. आपना ज्ञानादि गुणो असहायपणे निरंतर परिणमशे. कोइपण काले कोइपण प्रापना ज्ञानादि परिणामने स्खलना करी शकशे नहि माटे हे भगवंत ! श्राप सादिअनंतकाल सुधी शुद्ध सिद्ध तथा असहाय छो. - उपर वर्णवेला गुणो सहित शुद्ध सिद्ध तथा असहाय श्राप भगवंतने अवलोकी श्राप समान सिद्धपदनो कामी हुं सेवक ध्याता, श्राप त्रिलोकपूज्य भगवंतने ध्येयपदे स्था' छु, आपना पदनु ध्यान करुं छु.॥५॥... .. ... Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . दान लाभ निज भोग, शुद्ध स्वगुण उपभोग। आज हो अजोगी कती भोक्ता प्रभु लडोजी ॥ ६॥ ___ अर्थ:-अंतराय कर्मना क्षयवडे हे भगवंत ! आपमा दानादिक लब्धिउ क्षायिक भावे वर्ते छे. वीर्यगुणनी सहायवडे सर्वे गुणो परिणमे छे. तेम ज्ञानगुणना उपयोग विना वीर्यगुण स्फुरायमान थइ शके नहि माटे वीर्यने ज्ञानगुणनी सहायता के नथा शुद्धज्ञान परिणामने चारित्रनुं सहाय छे. वजी चरित्र पराचरण रुप न परिणमे से चारित्रने ज्ञानगुणनो उपकार छे. एम एक गुणने वीजा गुणोनी सहाय छे, ते सहायरुप दानना कर्ता हे भगवंत ! प्रापज छो. वली एबु दान भाप निंरतर पाप्यां करो छो माटे आप अक्षय दाता छो. तथा ते दानना प्रभाववडे सर्वे गुणो पोतानी शुद्ध परिणतिए परिणमे छे, ते रुप लाभ लेनार पण प्रापज छो. एम भापमां दाता पात्र अने देयनी अभेदता छे. एम ज्ञानादि परिणाम हमेशा शुद्धपणे वर्ते छे. तजन्य भानंदना वेदनारा छो तेथी ज्ञानादि पर्यायना आप निःप्रयास पणे हमेशां भोक्ता को. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ जे एकवारज भोगवना योग्य होय ते भोग, भने जे भनेकवार भोगववा योग्य होय ते उपभोग कहेवाय छे माटे ज्ञानादि शुद्ध गुणो सहभावी होषाथी हमेशा आपमा कायमपणे रहेनारा छे, माटे आपमा ते गुणोनो उपभोग छे. ___वली हे भगवंत! मन, वचन, काया तथा कोइ पण पुद्गलयोग विना आप परकर्तृत्व तथा परभोक्तृत्व निवारी स्वभावना कर्ता भोक्ता वन्या छो, एहवा आप त्रिलोकपूज्य प्रभुनु मने कोइ महत् पुण्यना पसाये अाजे दर्शन मल्युं छे. इंद्रिय गोचर वस्तुनुं दर्शन तो सहजे सर्वे पामी शके.पण श्राप तो अरूपी निष्कर्म छो. पापना दर्शननी प्राप्ति तो विरलानेज थई शके के. ॥६॥ दरिसण ज्ञान चरित्र, सकल प्रदेश पवित्र आज हो निर्मल निःसंगी अरिहा वंदियेजी ॥७॥ __अर्थः-मापनुं दर्शन थतां श्रापना सर्वे प्रदेश अत्यंत निर्मल ज्ञान दर्शन अने चारित्र वडे परिपूर्ण पवित्र जोइ तथा मापनेज जगत् त्रयमा निर्मल तथा निःपरिग्रही अवलोकी कर्मशत्रनो अंत प्राणनार भाप श्री वीरसेन प्रभुने कर्म क्षय निमित्ते त्रिकरण योगे बंदु छ॥७॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ देवचंद्र जिनचंद्र, पूर्णानंदनो वृंद ॥ आज हो जिनवर सेवाथी चिर आनंदियेजी॥ ८॥ अर्थः-स्तुती कर्ता श्री देवचंद्र मुनि कहे के सर्व जिनोमां चंद्रमा समान बर प्रधान हे वीरसेन प्रभु ! स्वाभाविक, निःप्रयालिक, अनंत आनंदना समूहरूप प्राप जिनेश्वरनी श्राज्ञा सेवनरुप सेवाथी हुँ पण आप समान अनंत परमानंदने प्राप्त थइश; शिवकमलानो विलासी थइश. ॥८॥ ॥ अथ श्री अष्टादशम श्री महाभद्र जिन स्तवनम् ।। । तर यमुनानुरे अति रलीयामणुं रे ॥ ए देशी ॥ महाभद्र जिनराज, राज राज विराजे हो आज तुमारडोजी । क्षायिक वीर्य अनंत, धर्म अभंगे हो तु साहिब बडोजी ॥ हूं बलिहारीरे श्री जिनवर तणीजी ॥१॥ अर्थ:-सर्वे जिनोमां शिरोमणी परमकल्याणना निधान हे श्री महाभद्र प्रभु ! आपनुं राज्य सर्वोपरी समाधि तथा अनंत विभूति ,युक्त निर्विप्रताए भलौकिक रीते. शोभे रे, भापर्नु, राज्य, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ पराक्रम अक्षय, अजय तथा अपरिसीम छे, श्रापे सर्व कर्मशत्रुउनो सपरिवार नाश को छे, निवंश कर्या छे तेथी हवे कोइपण आपना राज्यमा विघ्न करी शके तेनं नथी तथा आपनी अनंत पर्यायरुप प्रजा, अत्यंन सरल पंडित तथा सदाचरणी छे, मापना धर्मरुप कायदानो जरा पण भंग करे तेम नथी, आपना सर्वे धर्म कायदा संपूर्ण न्याय तथा दया युक्त होवाथी सदा सर्वत्र अभग छे; एम भाप सर्वोत्तम राजापणे विराजो छो, श्रापना राज्यनी वलिहारी छे. ॥१॥ कर्ता भोक्ता भाव, कारक कारण हो तुं स्वामी छतोजी । ज्ञानानंद प्रधान, सवे वस्तुनो हो धर्म प्रकाशतोजी ॥ ९० ॥ २॥ अर्थः-वली से पर्यायरुप प्रजाना उत्पन्न कर्ता पण आपज छो तथा तेना उपादान कारणरूप पण आपज छो, तेना अधिकरणादि अन्य कारको पण भापमांज अभेदपणे शोभे छे तथा ते प्रजाने सदाचरण युक्त-न्यायानुसार गमन करनार निरखी तजन्य राज्यानंदना भोक्ता पण आपज छो. ते सर्वे प्रजामा शिरोमणी, भादरणीय तथा Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अत्यंत बल्लभ एवा ज्ञानानंद स्वदेशी शेठने मापे प्रधान पदे स्थाप्यो छे, ते ज्ञान प्रधान सर्व प्रजाथी संपूर्ण रीते माहितगार छे, जेना हृदयमां सर्वे प्रजाना भाव निरंतर प्रकाशित रहे छे वली ते ज्ञानानंद प्रधान निरंतर श्राप समीप हाजर रहे छे समयमात्र पण दूरवर्ती नहि थतां सर्वे प्रजानु सदैव निरिक्षण तथा संरक्षण करे छे तथा कोइने पण त्रास नहि आपतांअत्यन्त हर्षपूर्वकन्यायानुसार व वे छे, लेशमात्र पण न्यायातिक्रम थवा देतो नथी, एवो अद्भुत चातुर्य तथा विवेकवंत छे. ॥ २ ॥ सम्यकदर्शन मित्त, थिर, निधारे अविसंवादताजी । अव्याबधि समाधि, कोश अनश्वरे रे निज आनंदताजी ॥ हुं० ॥ ३ ॥ देश असंख्य प्रदेश, निज निज रोते रे गुण संपत्ति भोजी । चारित्र दुर्ग अभंग, आतम शक्ते हो परजय संचर्याजी ॥ १० ॥४॥ __ अर्थ:-अभिग्रहादिक पांच मिथ्यात्वने समूल नाश करी जेणे पोतानुं अंग निर्मल करेलु छे तथा जे, सम. संवेग, निवेद, प्रास्तिक्यता अने Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२५ अनुकंपादि लक्षणे युक्त, तथा कुशलता, तीर्थसेवा, . गुरुभक्ति, दृढता तथा शासननी अनुमोदना विगेरे भूषणोथी भूषित, शंका, कांक्षादि सर्वे विसंवाद दाली अविसंवादताने स्थिर दृढपणे पोताना हृदयमां धारण करतो महा विनयवंत, श्रापना शासननो प्रभावक गुणनिधान एवो " सम्यदर्शन” नामे महाधीर वीर शुभट आपनो मित्रं छे, जेनी साथे आपनो सम्यक्ज्ञान प्रधान पण एटली तिब्र मंत्री राखे के के क्षणमात्र पण तेथी छूटो पडी शकतो नथी, जेउनां अंग मात्र जूदा जणाय छे पण जीव तो जाणे. एकज छे । ___एवा सम्यक्दर्शन अने सम्क्ज्ञान छ महान् पुरुषो श्रापर्नु राज्य अत्यंत चातुर्य,न्याय अने दया पूर्वक सर्व प्रजाने श्रानंदमा राखता निष्कंटकपणे चलावे छे तथा अव्यायाध समाधिरूप अनेक प्रकारना रत्नो. वडे आपना खजानाने सदा परिपूर्ण तथा अखूट राखे छे,निरंतर तज्जन्य परमानमा आपविलसो छो; __ वली श्राप ज्यांनुं राज्य करो छो ते देश असंख्यात. प्रदेशवालो, जेन सीमामा कोइपण वधघट करी शके नहीं एवो छे तथा जेना सर्वे प्रदेश Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनंता गुणाविभागरुप संपत्तिवडे तथा पर्यायरुप प्रजावडे ? भरेला छे.. . एवा पापना अनुपम देशना, तथा तेमां वसती सरल प्रजाना रक्षण निमित्ते आपना मित्र तथा प्रधाने मली पोताना अत्यंत वल तथा चातुर्यवडे चारित्ररूप अत्यंत मजबूत तथा अभंग किल्लो बांध्यो छे. हे भगवंत ! एवा अलौकिक राज्यना श्राप स्वामी बन्या छो. एहQ अलौकिक राज्य के जे मोह राजाए अनादिथी पोताना कबजे करी राख्यु हतुं लेने पापे की रीते प्राप्त कयु ? -" आतम शक्त हो परजय संचर्याजी” अन्यनी मदद शिवाय मात्र पोतानी अात्मशक्ति स्फुरायमान करी सम्यकदर्शन मित्र, तथा स्मयक्झान प्रधानने मा राखी मोहशत्रुने पराभव करवा रणभूमिमां प्रवेश कर्यो । ३ ।। ४ ॥ धर्मक्षमादिक सैन्य, परिणति प्रभुताहो तुज बल आकरांजी। तत्त्व सकल प्रागभाव, सादि अनंतीर रीते प्रभु धरयोजा।।हुं०॥५॥ ___ अर्थः--मोहराजाला लश्करने शीघ्रमेव नाश करनारा "क्षांति, मार्दव आर्जव, मुत्ति, तब, . Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२७ संयम, सत्य, शौच, अकिंचन, अने ब्रह्मचर्य, एवा अपरिमित बलवाला सैन्य सज्ज कर्या अने ते सर्वे सैन्योनी प्रभुता ( सेनाधिपति पणु ) शुद्धोप योगरुप महा अजीत अने निडर शुभटने श्रापी एचा अत्यंत तीक्ष्ण बलवडे मोहराजानालश्करनो नाश को. क्षांति सैन्ये काध लश्कर नो, मादेवे मान लश्करनी, आर्यवे माया लश्कर नो, मुत्तिर लोभ-स्पृहा लश्कर नो, तपे पराकांक्षानी, सयमे हिमानो मत्य असत्यतानी, शोचे मलिनतानो, अकिंचने पर संग्रह बुद्धिनी अन ब्रह्मचर्ये पररमणनी एम मोहराजाना सर्व लश्करनो तथा परिवारको नाश करी मोहराजाने प्राण रहित कर्यो भने सादिननंत भांगे " तत्त्व सकल प्राग्भाव" पोतानो संपूर्ण राज्याधिकार प्रगट कर्यो ॥ ५ ॥ द्रव्य भाव अरि लेश, सकल निवारीरे साहिब अवतर्योजी । सहज स्वभाव विलास, भोगी उपभोगी रे ज्ञानगुणे भर्योजी ।।०६। अर्थः-द्रव्य तथा भाव एवंने प्रकारना शत्रुनो समूल नाश करी आपशि वक्षेत्रना राजा बन्या छो Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ तथा पोताना नैरुपा धिक सहज स्वतंत्र भोगना विलासी धया छो तथा प्राप ज्ञानानंदे परिपूण सदा उपयोगवंत अर्थात् पोताना. राज्यनी संभालमां निरंतर वर्तो छो ॥६॥ , आचारिज उवझाय, साधक मुनिवर हो देश विरत धरुजी । आतम सिद्धि अनंत, कारण रूपे रे योग क्षेमकरूजी॥ १० ॥७॥ अर्थः-ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार अने वीर्याचार, ए पंचाचारमा वर्तनार तथा शिष्यजनने तेषां वर्तावनार (जोडनार) एहवा छत्रीशं गुणवान् श्रीआचार्य, तथा सूत्रपाठना दातार श्री उपाध्याय, तथा पोताना शुद्धात्मतस्वने साधनार श्री मुनिराज, तथा पंचम गुणस्थानवी देशव्रत धारीऊ, ए सर्वे श्राप महाराजनी आज्ञामा वर्तनार, पोताना मनवचन कायायोगने सयममां वर्तावनार होवाथी अनंत अात्म सिद्धि-. रुप आप समान राज्य भोग पामवाना कारण छे अर्थात् तेऊ अल्पकालमा श्राप समान शिवभूमिर्नु राज्य प्राप्त करशे तथा ते प्राचार्यादिकोने शिवभूमिर्नु राज्य प्राप्त करवामां आप भगवंत कारणरुपे Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अर्थात् मददगार के । । ७ ॥ सम्यग्दृष्टि जीव, आणारागी हो सहु जिन-राजनाजी | आतम साधन काज, सेवे पदकज हो श्री महाराजनाजी ॥ हुं० ॥ ८ ॥ अथ: - वली चतुर्थ गुणस्थानवत उपशम क्षयोपशम वा क्षायिक सम्यकदृष्टि सर्वे जीवो हे भगवंत भवसमुद्रमां सेतु समान आपनी श्रज्ञाना रागी छे, आपनी श्राज्ञा पालवाने उत्सुक छे, ते पोतनु शुद्धात्म स्वरुप प्रगट करवा माटे आप भगवंतना द्रव्यभाव चरणकमलने सन्माने छे ॥ ८ ॥ देवचन्द्र जिनचन्द्र, भगतें राचो हो भवि आतम रुचिजी । अव्यय अक्षय शुद्ध, संपत्ति प्रगटे हो सत्तागत शुचिजी ॥ हुं० ॥ ९ अर्थः-स्तुतिकर्त्ता श्रीदेवचंद्र मुनि मित्र भावनाना आवेशमां पोताना मुखकमलमांथी परम कल्याणकारी उपदेश आपे छ के पोतानी शुद्धात्म सिद्धिना इच्छु है भन्यात्माउं ! शिवक्षेत्रना महाराजा श्री जिनेंद्र भगवाननी श्रापा सेववामां लीन थाउं जेथी Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० तमारी सत्तामा रहेली पवित्र, अविनश्वर, अखूट, अक्षय शुद्धात्म सपदा सहज प्रगट थशे ॥ ६ ॥ संपूर्ण ॥ + ॥ अथ एकोनविंशतिम श्री देवजसाजिन स्तवनम् ॥ ॥ महाविदेह क्षेत्र सोहामणु ।। ए देशी ॥ देवजसा दरिसा करो, विघटे मोह विभाव लाल रे ॥ प्रगटे शुद्ध स्वभावना, आनंद लहरी दाव लाल रे ॥ देवजला. ११ ॥ अर्थ:- सर्वेकर्म कलकथी रहित अत्यंत पवित्र तथा अनंत ज्ञान दशन आदि अंतातीत अभ्यंतर लक्षिमयुक्त विलोकी चार निकायना देव तथा इंद्रादिना समूह जेनी अनुपम यशवाद बोले छ एवा श्री देव जसा प्रभुनुं हे भव्यात्माश्रो ! दर्शन करो, ने पृज्य भगवंतना स्वरुपर्नु सम्यक् प्रकारे अचलोपन गे, जेथी अनादिथी वलगेला अज्ञान मिथ्यात्व मोह विगेरे दुग्वदायक विभाष समल Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३१ नाश पामे तथा जेमांथी निरंतर परमानदनी कल्लोलो उट्यां को एवो संवर पूरे भरेलो पवित्र रस्ननिधान शुद्धास्म म्वभाष प्रगट थाय. एवा श्रापना प्रत्यक्ष दर्शननी हे प्रभु ! मने अत्यंत अभिलाषा के परतु ॥ १॥ . स्वामी वसो पुष्करवरे जंबू भरते दास लाल रे ।। क्षेत्र विभेद घणो पड्यो, किम पोहोंचे उल्लास लाल रे देव० ॥ २ ॥ ___ अर्थः- हे भगवंत ! श्राप तो पुष्कलावत विजयमा विचगे छो अने आपना दर्शननो अभिसाषी सेवक हुँ जवुद्विपना भरतक्षेत्रमा वसु छ एम अापना तथा माहरा स्थानकने घणुं अंतर के से थी अापना प्रत्यक्ष दर्शननी मनोकामना शीरीते पूर्ण थाय प्रकारांतरे-हे भगवंत ! ज्यां कर्म कलंकनो रंच मात्र पण प्रवेश नथी एवा पवित्र ज्ञानादि लक्ष्मीना निवासरूप विदेह अर्थात् देह रहित श्रम्पो सिद्धक्षेत्र प्राप विराजमान छो श्रने हुँ सेवक कर्मकलंक वडे मलिन,अज्ञान अने मोह अंधकार पडे भरपूर संसार क्षेत्रमा परिभ्रमण करूं छु; एम Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ श्रापना तथा माहरा क्षेत्रमां अत्यंत भेद ( अंतर ) पढ्यो छे तो आपना प्रत्यक्ष दर्शननी माहरी मनोकामना शीरीते पूर्ण थाय १ ॥ २ ॥ होवत जो तनु पांखडी, आवत नाथ हजूर लालरे || जो होती चित्त आंखडी, देखत नित्य प्रभु नूर लालरे || देव० ॥ ३ ॥ अर्थ:- पण हे भगवंत ! जो माहरा शरीरे पांवो होत तो हुं ते पांखो वडे उडी पूरकलावर्त विजयमां आप प्रभुना समीप याची आपनुं दर्शन, वंदन करत अथवा जो मने चित्त श्रांखडी अर्थात् ज्ञान नेत्र अवधिदर्शन होत तो अहिंत्रां रहीने पण चोत्रीश अतिशय श्रने श्रष्ट महा प्रातिहार्यादिक विभूति सहित आपना तेजस्वी रूपने हमेशां निरख्यां करत. प्रकारांतरे - हे भगवंत। जो माहरा श्रात्म अंगे सम्यक् चारित्र रूप प्रवल पांखो होंत तो ते पंखे वडे चिदाकाशमां उडतो-विहार करतो आप ज्यां वसो छो एवा विदेह - देह रहित सिद्ध क्षेत्रमां आप समीप यावी हाजर थात अथवा जोकदाच चित्त श्रांखडी कहेतां केवलदर्शन होता तो आ क्षेत्रमां रहीने Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ पण अनंत ज्ञान दर्शन आदि अत्यंत अभ्यंतर विभूति युक्त प्रापना लोकालोक प्रकाशक अनंत प्रकाश युक्त महान् तेजस्वी स्वरूपने निरंतर निरख्यां करत पण ते बने शक्तिशोथी हुं रहित छु तो आपन दर्शन केम पासु ? ॥ ३ ॥ । शासन भक्त जे सुरवरा, विनवूशीष नमाय लालरे ॥ कृपा करो मुज ऊपरे, तो जिन्न वंदन लालरे ॥ देवजसा० ॥ ४॥ अर्थ:-ऊपर प्रमाणे माहरामां देवजसा प्रलुर्नु दर्शन पामवानी शक्ति नहि होवाथी जिनशासनना भक्त हे महान् देवो ! हुं आपनी सहाय चाहुं छु, मस्तक नमावी विनति करूं बुं के जो श्राप माहरा ऊपर कृपा करी जो अपना सामर्थ्य वडे देवजसा प्रभु पासे मने लेई जाऊं तो ते प्रभुनां दर्शन वंदननो मने लाभ मले . प्रकारांतरे-ऊपर प्रमाणे सस्यश्चारिम्ररुप पांखो अथवा केवल दर्शनरुप माखो मने नहीं होवाथी देग्जमा प्रभुन दर्शन वंदन प्राप्त करवामां जिन शासन अर्थात् जिनेश्वरन माज्ञानुं पालन करनारा तथा वीजाने तेमा जोडनारा हे सूरपरा अर्थात् महान् भाचार्यो हुं मापने मस्तक नमावी Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २३४ अंतरंग बहु मन्मान ( विनय ) युक्त आपने • विनंती करूं छं के जो आप माहरा ऊपरं कृश करो, मने सम्यक् चारित्रमां जोहो तो हुं ते चारित्र रुप पांख वडे श्री देवजसा प्रभुनी समीप जई, शकुं, ते प्रभुना प्रत्यक्ष दर्शननो मने लाभ मले ॥ ४ ॥ पूछें पूर्व विराधना, शो कीधी ईणे जीव लाल रे || अविति मोह टले : नहीं, दीठे आगम दीव लाल रे ॥ देवेजसा० ॥ ५ ॥ " ★ } अर्थ :- हे प्रभु! म माहरा जीने पूर्वे आत्म घर्मनी केवा तीव्र विराधना करो छे के श्रात्म अनात्मनुं स्वरुप यथार्थ प्रकाश करनार जिनागमरूप दीपकनी प्राप्ति थयां छता पण पंचेंद्रियना विषय जे पुद्गल परिणाम ते ऊपर रागकूप अविरति तथा स्वपर जीवना - द्रव्यभाव प्राण हणव रूप हिंसा, तथा क्रोधादिक कषाय निगेरे, आत्म भावने अत्यत प्रशस्त तथा दुःखदायक परिणाम हजुसुधी, टलना नथी ॥ ५ ॥ ॥ " f 5 ✓ • - आतंम शुद्ध स्वभावनें, बोधन शोधन कार्ज サ लॉल ॥ रत्नत्रयी प्राप्तितणो, हेतु कहो TE F महाराज लाळ र॥ देवजसा० ॥ ६ ॥ १. Z f ܐܝ 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ अर्थ:-कर्म कलंक (सर्व विभावधी ) रहित शुद्धात्म तत्त्वनु स्वरूप यथार्थ पणे जे. वडे जेणाय तथा अनादिथी वलगेला मिथ्यात्व अज्ञान कंषायादि विभावनो सर्वथा अभावथई जे वडे महरो भास्मा कर्म कलंकथी रहित परम पवित्र थाय ते सम्यज्ञान सम्यक्दर्शन सम्यकचारित्ररूप रत्नत्रयनी प्राप्ति शीरीत थाय ते. करुणा करी कहो ॥६॥ तुज सरिखो साहिब मिल्यो, भांजे भव भ्रम टेव लालरे । पुष्टालंबन प्रभू लही, कोण करे पर सेव लालरे ॥ देवजसा० ॥७॥ ___ अर्थ:-समस्त दूषणोथी रहित परम पवित्र अनंत गुणनो निधान, लोकालोक प्रकाशक, रस्ननयनी प्राप्ति करावी अनादिधी लागेली भव भ्रमपानी टेवथी मुक्त करनार, भव समुद्रथी तारवामा पुष्टालंघनरूप भाप भगवंतनुं दर्शन: पाम्या पछी अन्य कुदेवादिकनु कोण सेवन करे. ! कल्पवृक्षने, स्यागी धंतुराने कोण सेवे ॥ ७ ॥ दीनदयाल कृपालुओ. नाथ भविक आधार लालरे ॥ देवचंद्र जिन सेवना, परंमामृत सुखकार लालरे । देवजसा० ॥ ८॥ .. . Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थः-संसारमा भ्रमण करता अनेक प्रकारना दुःख सहता ज्ञानादिक लक्ष्मी रहित दीन कंगाल जीवो ऊपर अत्यंत करुणा करी मोक्ष मार्गे दोरनार होवाथी हे प्रभु! नापज दीन दयाल छो तथा कृपालुओ कहेता कृपाना श्रालय ( निधान ) छो, दोन अनाथ जीयोना नाथ छो,संसार समुद्रमांधता भव्य जीवोने उद्धारवा माटे श्राप पुष्ट अवलंघन छो, सर्वे देवोमां चंद्रमा सामन हे देवजला प्रस! आपनी सेवना सर्वोत्कृष्ट अमृत समान परमानंद दातार तथा शिव सुखनी करनार ले ॥ ८ ॥ ॥ सम्पूर्ण ॥ ॥ अथ विंशति श्री अजितवीर्यजिन स्तवनम् ।। अजितवीर्य जिन विचरतारे, मन सोहनारे लाल ॥ पुष्कर अर्द्ध विदेहरे, भवि बोहनारे लाल ॥ जंगम सुरतरु सारिखोरे, मन मोहनारे लाल ॥ सेवे धन्य धन्य तेहरे, भवि मोहनारे लाल ॥१॥ अर्थः-अतिशय दुर्जेय मोहराजानो जेणे लीला मात्रमा समूल क्षय करीनांख्योछे, तथा जेनुं वीये हणवाने कोइ पण समर्थ नथी एहवा भतिशय निश्चल Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंत वीर्यवंत, पुष्कलावत विदेहम विचरता है श्री अजितवीर्य प्रभु!जेम कमलने सुगंधर्नु श्रावास जाणी अमर तेमां मोही रहे छे, तेन शुद्धाम अनुभव वडे भरपूर मापनी अत्यंत शांत मुद्रा विलोकी प्रशस्त राग बडे भव्य जीवोतुं चित्त श्रापमां मोहित रहे छे, एवी रीते आ त्रिलोकमां श्राप मनमोहन छो, तथा अज्ञानरूप अंधकार बडे श्रावृत थएला भव्य जीवोना हृदय कमलने विकश्वर करनार छो, तथा कल्पवृक्ष तो स्थावर होवाथी हमेशां एकज ठेकाणे रही इच्छित फल प्रापी शके छे तो पण ते पौद्गलीक तथा विनश्वर छ पण आप तो अनेक स्थले विहार करी कोई पण काले नाश अथवा विरस न थाय एहवू स्वाधिन तथा सर्वे कामना जेथो पूर्ण थाय एह रत्नत्रयरूप फल भव्यजीवोने निरतर प्रदान करो छो माटे हे भगवंत! खरेखर आपज आ जगत्त्रयमा अद्वितीय कल्प धृक्ष छो. तेथी हे भगवंत! जे प्राणीउ प्रापना चरणकमलनी सेवामा लीनचे तेउने धन्य छे ! वली धन्य छे! तेउने के जे प्रा अपार भवसमुद्रने गोपदनी पेठे सहज उलंघी जनारा छे. ॥ १ ॥ जिन गुण अमृत पानी रे, मन । अमृत Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ क्रिया सुपसायरे, भवि ॥ अमृत क्रिया अनुष्टानथीगे, मन । आतम अकृत थायरे । भवि ० ॥ २॥ ___अर्थ :- जिनेश्वरना ज्ञानादि शुद्ध गुणोनुं सेवन बहुमानरूप अमृतनुं पान करवाथी अमृत क्रिया ( अमृतानुष्टान ) नी प्राप्ति थाय, अने अमृतानुष्ठान वडे सकल मोहनो क्षय थई आत्मा अजर अनर अविनश्वर शुद्ध सिद्धपदने प्राप्त थाय, श्रने अन्य जीवोने अमृत समान भव रोगथी मुक्त करवानो हेतु थाय, अनुष्टान पांच प्रकारनां छे-- विषानुष्टान, गरलानुष्टान, अनानुष्टान तद्धेतु अनुष्ठान, अने अमृतानुष्टान. विषानुष्टान-आहारोपधि पूर्छि, प्रभृत्याशंसया कृतं, शीघ्र सच्चित्तहन्तृत्वा द्विषानुष्टान मुच्यते ।। अध्यात्मसार पा. ४५६ ।। ___ अर्थः-मिष्टान्न भोजननी लालचे, वस्त्रादिक उपकरणनी लाल चे, पूजानी लालचे, रिद्धिनी लालचे जे तप जपादि क्रिया करे ते क्रिया चित्त शुद्धिनी हणनारी के मेथी ते विषानुष्टान कहेवाय छे, भा भवमा पौद्गलीक भोगोनी प्राप्ति थवानी Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ खालचे ईच्छाए जे तपादि अनुष्टान श्रादरवू ते विषानुष्ठान छे. ' गग्लानुष्टान-दिव्यभोगाभिलाषेण, कालांतर . परिक्षयात् । स्वादिष्ट फल संपूर्ते गगनुष्टान मुच्यते ॥ यथा कुद्रव्य संयोग, जनित गर संक्षितं । विषं कालांतरे हन्ति तथेदमपि तत्त्वतः ॥ अध्यात्म सार पा० ४५७ ___ अर्थः-परभवे देव इंद्रादिकना दिव्य भोग मले एवी इच्छा, लालचवडे जे तपादि अनुष्टान श्रादरई ते गरलानुष्टान छे. जेम बंगडीचूर्ण प्रमुख द्रव्यना संयोगे प्रगट थतुं विष ते गरल नामा विष कहिए, ते घणा दिवस कष्ट पमाडी मारे छे; तेम गरलानुष्टान पण अहितकारी कुगति आदिआपे छे. * अन्योन्यानुष्टान-प्रणिधानाद्यभावेन कर्मान ध्यवसायिनः संमूर्छिम प्रवृत्त्याभ मननुष्टान "मुच्यते ।। उघ संक्षात्र सामान्यं, ज्ञानरूपा नधन । लाक सज्ञा २ नपक्षणी ॥ अध्यात्मसार पा० ४५७ . Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अर्थ:--स्खून कथित निर्दोष मार्गनी अपेक्षा विना तथा शुद्ध प्रणिधानादिकने अभावे उपयोग शून्ये मूर्छिमनी पेठे वीजाना देखादेखी जे क्रिया करवी ते अन्योन्यानुष्ठान जाणवू-सूत्रनी शैली रहित पणे मतानुगतिक पणे बोघसंज्ञाए तथा लोक संज्ञाए जे कर ले अन्योन्यानुष्टान छे ते उपयोग शून्य अर्थात् ज्ञान रहित होवाथी ते बडे सकाम निर्जरा थई शके नहि, मा विषादि चणे अनुष्टानमा अशुद्ध क्रियानो अादर उपजे छे माटे श्रा व्रणे धनुष्टान त्यागवा लायक छे. ___यद्युक्तं सूत्रकृतांगे-"जे अबुद्धा महाभागा, वीरा असमत्त दंसिणो । अशुद्धं तेसि परकंतं, सफलं होई सवसो॥" . अर्थः-व्याकरणादिक लोकिक अनेक शास्त्रने जाणनारा पण जैन सिद्धांतना शुद्ध तत्वज्ञानथी अजाण अर्थात् सम्यक्त्व परिज्ञानथी रहित होवाथी अवुध, एहवा पुरुषो जो के शूरवीर होय तथा त्यागादि गुण वडे लोकमां पूज्य गणता होय सथापि तेश्रोनो दान, तप, नियम आदिकने विषे उद्यम पराक्रम ते सर्व अशुद्ध जाणवो. कारण के Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४१ तेश्रोनु तपादिक सर्वे, अनुष्ठान कर्मबंधना कारण. . विषे सफल थाय एटले नवा कर्मबंधननुं कारण थई शके नहि; कारण के सकाम निर्जरा तो सम्पज्ञानेज थाय--"जेय बुद्धा महाभागा, वीरा सम्मत्त दंसिणो, सुद्धं तेसिं परकंतं, अफलं होइ सव्वसो,॥ अर्थ:-जे सम्यक्ज्ञान सम्यक्दर्शन सहित छे तेज बुध पुरुष थे, जे पूज्य छे, जे साचा शूरवीर छे,अने तेश्रोनोज तपादिक अनुष्ठानमा उद्यम-परा: क्रम शुद्ध जाणवो, अने तेश्रोनुं अनुष्ठान नवां कर्म बंधन अटकावी शके छे तथा सकाम निजरानो हेतु छे. तहेतु अनुष्ठान-सदनुष्टान रागेण, तद्धेतुमार्गगामिनां ।ए तच चरमावत्तेऽनोभोगाव्यो दविना भवेत् ॥ धर्मयौवनकालोय, भवबालदशा परा ॥ अत्रस्यात् सक्रिया रागोऽन्यत्र चासत् क्रियादरः ।। अर्थ -चरमपुद्गल परावर्ते धर्मना यौवनकाले घालदशा 'टले थकेमार्गानुसारी पुरुष शुद्धानुष्ठानना Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ राग वडे उपयोग सहित जे कई क्रिया प्रादरे ते 'सद्धेतुअनुष्ठान जाणवू. .. अमृतानुष्ठान-सहजो भाव धर्मोहि शुद्ध श्चंदन गंधवत् ॥ एतद्गर्भमनुष्ठानममृतं संप्रचक्ष्यते ॥ जैनीमाज्ञां पुरस्कृत्य, प्रवृत्तं चित्त शुद्धितः । संवेग गर्भमत्यतममृतं तद्विदो विदुः॥ अर्थः-सहज भावधर्म ते शुद्ध चंदननी सुगंध समान छे. अने ते भावधर्म सहित जे अनुष्ठान ते अमृतानुष्ठान छे. अत्यंत संवेग गुण सहित चित्त शुद्धिए जिनेश्वरनी आज्ञामा वर्तव॒ तेने गणघरादिक अमृतानुष्ठान कहे छे तेज मोहनो संपूर्ण क्षय करवा समर्थ छे. ॥२॥ प्रीति भक्ति अनुष्ठानथी रे ॥म० ॥ वचन असंगी सेवरे ॥ भवि० ॥ कर्त्ता तन्मयता लहरे॥म०॥ प्रभु भक्ति नित्यमेवरे ॥भवि.३॥ अर्थ:-सर्वे पुद्गल भावमाथी प्रीति उठाधी मात्र एक जिनेश्वरना स्वाभाविक पवित्र ज्ञानादि गुणोमा अत्यंत प्रीति भाव करवो तेमां चित्तनी Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तल्लीनता करवी ते प्रीति अनुष्टान छे. तथा श्री जिनेश्वरने परम करुणाना निधान, भवसागरमांधी भव्य जीवोने मुक्त करनार, धर्मधुरंधर, तीर्थना प्रवर्तक जाणी तेश्रोना गुणनु बहुमान करवू, अतिशय आदर विनय पूजा सेवना विगेरे करवां ते भक्तिश्रनुष्ठान छे. बली लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञानवडे सर्वे तत्त्वना यथार्थ वेत्ता तथा उपदेशक परम वीतराग प्राप्त श्री जिनेश्वरना वचननी यथार्थ श्रद्धा करवी तदनुसार हर्षयुक्त अाचरणमा प्रवर्तवू ते वचनातुष्ठान छे. हे प्रभु ! ए त्रण अनुष्ठान जे भावयुक्त सेवन करे तेने सर्वे विभाविक क्रियाथी निवृत्ति तथा सहज प्रात्मीक परिणामीकतानी प्राप्ति क्षय असंग अनुष्ठान थाय. • एम ए चार अनुष्टाननो कर्त्ता हे भगवंत ! श्राप स्वरुपने प्राप्त थाय. माटे हे प्रभु ! धापनी भक्तिमां माहरं चित्त निरंतर लीन रहे एम भावना __ भाबु छ ॥३॥ परमेश्वर अवलंबनेरे ॥ मन० ॥ ध्याता ध्येय अभेदरे ॥भवि०॥ ध्येय समाप्ति हुवेरे॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ मन० ॥ साध्य सिद्धि अविछेदरे ।। भवि.।४। ' । अथे:-हे परमेश्वर ! अापना प्रवलंबनथी पापना अनुकरणवडे ध्याता पुरुष पोताना शुद्ध सिद्ध समान परमात्मपदथी अभेद थाय अर्थात् पोते परमात्मा थाय. एम ध्येय जे परमात्मपद तेनी समाप्ति कहेता संपूर्ण प्राप्ति थाय, निष्कंटकपणे अविनश्वर साध्यनी सिद्धि थाय. ॥४॥ जिन गुण राग परागथीरे॥मन० ॥ वासित मुझ परिणामरे॥ भवि० ।।तजशे दुष्ट विभावतारे ॥ मन० ॥ सरशे आतम कामरे भवि.१५॥ , अर्थ:-जेम मलयागिर चंदनना संसर्गवडे निंबादिक सुगंधमय थई जाय छे. तेम हे भगवंत ! थापना दिव्य स्तुति पात्र पवित्र गुणना रागरुप सुगंधीवडे जो माह हृदय संश्लेषित थाय तो अनेक प्रकारनां असह्य दुःख अापनार परकतत्व, पर मोक्तत्व, परग्राहकस्व, परव्यापकस्व विगेरे विभावनो नाश थाय अने परमात्मपद् पामवानो माहरो मनोर्थ पूर्ण थाय. ॥५॥ जिन भक्तिरत चित्तनेरे ॥ मन०॥ वेधकरस गुण प्रेमरे ॥ भवि० ।। सेवक जिनपद पाम Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪. शेरे। मना रसवेधित अय जेमरे ।भवि. ॥६॥ ___ अर्थ:-कठोर श्रने कुरुप ए, अय कहेतां लीढं ते रस वेधित थवाथी जेम सुंदर अने कोमल एहवा सुवर्णपणाने प्राप्त थई जाय छे. तेम जिनेश्वरनी भक्तिमा चित्त लीन थाय ते चित्तने ते जिनेश्वरना गुण रागरुप वेधकरसनो योग थाय तो ते चित्त पूर्ण निर्मलपणाने प्राप्त थाय. एम सेवक श्राप समान अरिहंत पद्ने प्राप्त करे. ॥ ५ ॥ नाथ भक्तिरस भावथीरे। मनः । तृण जाणु पर देवरे । भवि० । चिंतामणि सुरतरु थकीरे । मन० । अधिकी अरिहंत सेवरे । भवि० ।। अर्थ:-श्रा घोर भवाटवीमा भ्रमण करता अशरण प्राणीने हे भगवंत! मात्र एक आपज शरण छो, शिवपुरीए दोरवावाला छो माटे श्रापज नाथ छो तथी हे प्रभु! आपनीज अक्तिरूप रसमामाहरूं चित्त लीन थाग छे. विषय कषाययुक्त कुदेवो तरफ तृणनी पेटे स्याग भाव उपज . चितामणी तथा कल्पवृक्षथी पण प्रभनी सेवाने अत्यंत आदरणीय मानुं . आपनी सेवा प्रागल ते चिंतामणी तथा कल्पवृक्षादिअतिशय तुच्छ पदार्थ भासनथाय छे. ६। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર૪૬ परमातम गुण स्मृति थकीरे ॥ मन० ॥ फरश्यो आतम रामरे ॥ भवि०॥ नियमा कंचनता लहेरे ॥ मन०॥ लोह ज्यु पारस पामरे ॥ भवि० ॥ ७॥ ___अर्थ:-वली हे प्रभु ! संपूर्ण सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, अनंत निश्चल धी' विगेरे आप परमात्माना गुणोना चिंतनमां जो माहरो भास्म परिणाम स्पृष्ट थाय तो जेम पारस मणिना स्पर्श थकी लोढा जेवी कुधातु कांचन थई जाय छे; तेम विषय कषायमां परिणमतो माहरो आत्मा ते पण कांचन समान शुद्ध परमात्म पदने प्राप्त थाय ॥७॥ निर्मल तत्त्व रुची थई रे ॥ गन० ॥ करजो जिनपति भक्तिरे ॥ भवि ॥ देवचंद्र पद पामशोरे ॥ मन० ॥ परम महोदय युक्तिरे ॥ भवि०॥८॥ अर्थ:-भावदयाना आवेशे मित्रभाषना युक्त स्तवनकर्ता श्री देवचंद्र मुनि भव्यजीवो प्रति सहुपदेश मापे छ के श्राभव परभव संबंधी विषयभोग तथा मान पूजा विगेरे पौद्गलीक भावनी Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ माशंसा तजी, मात्र एक शुद्धात्म तत्वना रुचिवान घई, भोघसंज्ञा तथा लोक संज्ञा परिहरी, विधि विवेक पूर्वक सर्वे जिनमा शिरोमणि श्री अरिहंत भगवंतनी भक्तिमां प्राणा सेववामां लीन थजो तो सर्वे देवोमां चंद्रम समान अरिहंत भगवंत सदृश परमात्म पदने पामशो. एज उत्कृष्ट स्वाधीन भविनश्वर महोदय प्राप्त करवानी युक्ति छ ।॥८॥ ॥संपूर्ण ।। ॥ कलश ॥ राग धन्याश्री ॥ वंदो वंदोरे जिनवर विचरंता वंदो, कीर्तन स्तवन नमन अनुसरतां ॥ पूरव पाप निकंदोरे जिनवर विचरंता वंदो ॥१॥ अर्थः-विहरमान जिनेश्वरने हे भव्यो ! भाव सहित चंदो,तेओना सद्गुणोनु कीर्तन करो, तेश्रोनु स्तवन करो, मार्दव परिणामी थई तरण तारण जिनेश्वरने नमो, तेओनी ' माझाने अनुसरो, जेथी पूर्व बांधेला अनेक प्रकारनां कर्मों निम्ल थाय ॥ १॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ जंबु द्वीपे चार जिनेश्वर, धातकी आठ आणंदो । पुष्कर अद्ध अाठ महामुनि, सेवे चोसठ इंदोरे ॥ जिनवर० ॥ २ ॥ ___ अर्थ-जंबुद्वीपमां चार, वातकीमा आठ अने पुष्क___ रार्धमा आठ एम सर्वे मली वीश तीर्थकर विहरमान जेने महारिद्धिना धारक एवा. चोसठ इंद्रो पण सेवे छ ॥ २ ॥ केवली गणधर साधु साधवी, श्रावक श्राविका बंदो। जिन मुख धर्म अमृत अनुभवतां, पामे मन आणंदोरे ।.जिन० ॥ ३॥ अर्थ:-श्री तीर्थ करना मुख कमलमांथी वहेता अमृत समान वचनोने अनुभवतां तेनो आस्वाद लेता केवली गणधर सासु साधवी श्रावक श्राविका सम्यद्रष्टी जीवो शद्ध अानंदमां मग्न रहे छ ।। ३ ॥ सिद्धाचल चोमास रहीने, गायो जिनगुण छंदो ॥ जिनपति भक्ति मुक्तिनो मारग, अनुपम शिवसुख कंदोरे ॥ जिन० ॥४॥ अर्थ:-सिद्धाचल क्षेत्रमाँ चोमासु रहीने जिनेश्वरना पवित्र गुणोनु जेमां वखाण छ एवा छदो (स्तवनो) Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनाव्या-कारणके जिनेश्वरनी भक्ति तेज मुक्तिनो मार्ग छे तथा तेज अनुपम अव्यावाध स्वाभाविक शिवसुखनु मूल छ ॥ ४॥ खरतर गछ जिनचंद सूरिवर, पुण्यप्रधान मुर्णिदो ॥ सुमतिसागर साधुरंग सु वाचक, पीधो श्रुत मकरंदोरे ॥ जिन० ॥५॥ अर्थ:-हवे स्तवन कर्ता श्री देवचंद्र मुनि पोतानी परंपरा वखाणे छे, जेणे जिनप्रणीत सूत्रनो शुद्ध प्रास्वादन लीधो छ एवा खरतर गछमां श्री जिनचंद्र सूरि भट्टारक नामे प्रधान प्राचार्य थया, तेरो श्रीना शिष्य 'प्रधान पुण्यवान मुनिशिरोमणि श्री पुण्यप्रधान नामे महोपाध्याय थया, तेश्रोना शिष्य सुमतिना समुद्र जेवा श्री सुमतिसागर नामे उपाध्याय थया, तेउना शिष्य मुनिपणामां जेने रंग लाग्यो छे एवा साधुरंग वाचक थया ॥ ५ ॥ राजसार पाठक उपकारी, ज्ञानधर्म दिणदो ॥ दीपचंद सद्गुरु गुणवंता, पाठक धीरगयंदोरे ॥ जिन० ॥६॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ अर्थ:-ते पछी आवश्यकोद्धार प्रमुख ग्रथना कर्ता सुविहित सामाचारी धारक श्रीराजसारजी महोपाध्याय थया, ते पछी न्यायादिक ग्रथ अध्यापक सूर्य समान तपस्वी ज्ञानधर्म उपाध्याय थया, ते पछी माहरा सद्गुरु ज्ञान दर्शन चारित्र गुणना धारक, पंचाचारना पालक, उपसर्ग परिसह सामे गजेंद्रनी पेठे निश्चल रहेवावाला महाधीर वीर दीपचंद्र पाठक थया। देवचंद्र गणि आतम हैते, गाया वीश जिणंदो ॥ रिद्धि वद्धि सुख संपति प्रगटे सुजस महोदय वृदोरे ॥ जिन० ॥ ॥६॥ __ अर्म:-एमना शिष्य मैं देवचंद्र गणिए आत्म पदार्थने कर्म कलंकथी मुक्त करवाना हेतुए विहरमान वीश तीर्थकरना गुण गाया जेथी कर्म कलंक बडे आछादित थएली आत्मानी ज्ञानदश् नादि अनेक रिद्धिो प्रगटे, वृद्धिने पामे तथा तजन्य सुख संपत्ति प्रगट थाय, अखूट निर्मल यश विस्तरे, श्रात्मीय गुण समूहनो महोदय थाय, सर्वत्र कल्याण वर्ते, सर्व जीव परमानंद ने ग्राप्त थाय ॥ ६॥ ॥ संपूर्ण ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ चालावबोधकार प्रशस्ति ॥ कलश ॥ हरिगीत छंद ॥ विहरमान जिनंद मंगल, कंद ज्ञान दिनंद जे, विकसावता नय कर समूहे, भव्य उर अरविंद जे; उपशम सुधा सागर उलासन, पूर्ण अनुपम चंद जे, भवदंद फंद निकंदि पायक, शुद्ध परमानंद जे ॥१॥ मोह मदिरामा मचेला, कुमति मत मातंगना, मह गंजवा बल भंजया, बलवान ग्रभु पंचानना ते तीर्थनायक तत्त्वदायक, चीश जिनवर गुणमणी, " देवचंद्र गणि" पवित्र मतिए, स्तव्या गुणमाला भणी ॥२॥ ते स्तवन वीश विषे अतिशे, घोध अनुपम वरणव्यो, त्यां चित रमण हित मुज मनोरथ, अरथ लखवानो थयो; मधु मासमां अति मधुर स्वरथी, कोकिला जे गाय छे, ते तो खरेखर भाम्र तरुना, पुष्पनोज पसाय छे ॥ ३ ॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सद्गुरु, मनसुख " तणो आश्रय लही । संतोष " प्रेमे अर्थ आ, मैं लख्यो 'दोहदमां' तेम गुण निधि " "" रही; उगणीश छासठ साल असो, शुक्ल सातम शशि दिने, जिनराज भक्ति पसायथी, पूर्ण थयो उलसित मने ||| हे भव्य शुभ मति विनति या, मम क्षमायुत उरमां धरी, गुण क्षीर ग्रहजो हंस पेठे, नीर अवगुण परिहरी; भरपूर सुखप्रद ग्रन्थ श्र, शशि सूर सम शाश्वत रहो, वचन मनन अनुभव करी, भवि शशि रमा अनुपम लहो ॥ ५ ॥ T Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमद् देवचन्द्रजी रचित अप्रकाशित स्तवन संग्रह संग्राहक-अगरचंद नाहटी १ ऋषभ स्तवन । ढाल-मोरा आतमराम, कईयइ दरसण पास्यु ए देशी ॥ मोरा ऋषभ जिणंद, कईयइ दरसण पास्यु ।। मो० ॥ सिद्धाचलनी पाजइ चढतां, मरु देवा सुत ध्यासु । घणा दिवस नो अग छमाहो, ते पामी सुख भास्यु । १ भोगा निरमल नीरइ प्रभु नइ अगइ, कहीय(इ) न्हवण करास्यू । केसर चंदन मृगमद घसि नइ, तोरइ देह लगास्यु ।।२ मो० ॥ • पूज करी नइ प्रालि बइसी, पांचे छंग नमास्यु। भाव धरीनइ मननइ रंगइ, नाभ नंदन गुण गास्यु ॥३ मोगा पार २ तुम मुख निरखी, हीयडइ हरखति थास्यु। . तोरो ध्यान धरी अति सारो, सकल मिथ्यात विनास्यु ॥४मो॥ आठ करमनो अत करीने, दुरगति दूरि गमास्यु। चंद कहा इम मन नै रंगइ, तुमध्यांनइ मन लास्यु।५ मो इनि ( देवचंद्रजी लिखित पत्र में होने से उनका रचित संभव है। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ ध्यान चतुष्क विचार गर्भित शीतल जिन स्तवन अथ ध्यान च्यार स्तवन । दूहा प्रणमी शीतलनाथ पय, सुख संपति दातार । विघन विडारण भय हरण, धरि मनि भाव अपार ॥ १ ॥ 1 श्री सदगुरु ना पय नमी, मन सूं करीय विचार | ध्यान भेद सखेप सृ, कहिसुं मति अनुसार ॥ २ ॥ ढाल -- रामचंद्र कइ बाग, एहनी । च्यार ध्यान विसतार, सुणिन्यो भाव धरी री । कहिस्य श्रुत अनुसार, प्रहि मनि टेक खरी री ॥ १ ॥ रौद्र वलि धर्म, चउथउ शुकल कहिस्य मति इक चित्त, जिम गुरु पास संका शोक प्रमाद, कलह चित भ्रम उन्माद विशेष, धन संग्रह काम भोग नी चीत, जे जन मन श्रार्त्त ध्यान तिण माहि, लद्दीयइ इम श्रत साखइ ॥ ४ ॥ मह राखइ 1 प्रथम ध्यान ना पाय, व्यार कह्या श्रुत संगइ | अनिष्ट - संयोग, बीजउ इष्ट - वियोग || ५ ॥ रोग-निमित्त, मन महं चिंत धरइ री चउथ सुख नइ काजि, जीव नियाण करइ री ॥ ६ ॥ | प्रथम तीज ' थुण्यउ रो । सुण्यउ री ॥ २ ॥ भयकारी । अधिकारी ॥ ३ ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५५ यक्ष दैत्य विष साप, जल थल जीव सहू री। सायण सायण भूत, गाजै सींह बहू री ॥७॥ नयडइ श्राव्य दुक्ख, जे मन क्रोध करइरी । टालू दूरइ एह, मन मई - एम धरइ री ॥८॥ एहवउ दुष्ट स्वभाव, जिण र चित्त रहा री । आर्त्त अनिष्ट-संयोग, जिनवर तेथि कहइ री ॥६॥ भोग सुहाग विशेष, चित वंछित सुह दाता । वांधव मित्र कलत्र, ऋद्धि पितृ वलि माता ॥१०॥ हुयइ इष्ट-षियोग, एहष ध्यान भिलइ री । कर कोइ उपाय, जिणसु इष्ट मिलइ री ॥१॥ इष्ट मिलेवा काज, मन संकल्प वहइ री । ध्यांन ए इष्ट वियोग, बीजउ आर्त कहइ री ॥१२॥ कास स्वास जर दाह, जरा भगंदर रोगा । पित्त श्लेष्म अतिसार, कोष्टादिक ना योगा ॥१३॥ एहवइ ऊपनइ रोग, मन मइ चित करइ री । श्रोखध कर र अपार, सुख कारण विचरइ री ॥ १४ ॥ क्रोध मोह मद लुद्ध, मन मइ दुष्ट धरइ री। रोग चिंत इण नाम, तीजउ आत वहइ री ॥ १५ ॥ राज रिद्धि सुख पूर, काम भोग नित चाहइ । धन संतान निमित्त, देह कष्ट बहु साहइ ॥१६॥ वासुदेव चक्रवत्ति, सुर किन्नर पद काजइ । इह लोक नइ परलोक, सुख वांछा मन छानइ ॥ १७ ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ करड तपस्या नित्य, मन मइ जे पद चाहइ । भण्यउ नियाणो नाम, पात अंत्य अवगाहइ ।। १८ ॥ ॥ इति आतध्यान || सदा त्रिशूलउ शिर रहै, आंखे क्रोध अपार । बोलइ इम कडूआ वचन, मखइ मुकार चकार ॥१॥ दुष्ट परिणामी खल सदा, विनय हीन वाचा (ल) ( पत्रांक २ नहीं मिलने से रौद्र ध्यान का शेप वर्णन व धर्म ध्यान का प्रारंभिक वर्णन अधूरा रह गया है ) ....... नवि करड, प्रथम पायौ तिको जागा रे ॥३॥ ए० ।। एह मुझ जीव अनादिनो, कर्म जंजीर संयुक्त रे । पाडूआ कर्म कलंक थी, कीजस्यह किण दिनइ मुक्त रे ।।४ आत्मगुण परगट कदि हुसै, छोडि पर पुद्गल संग रे । एह विचार अह निशि करइ, यह बीजो ध्रम अंग रे ॥५ जोव उद्य सुभ कर्म रइ, पामइ छइ सुक्ख अपार रे। अशुभ उदय दुक्ख ऊपजइ, एह निश्चय करि धार रे ॥६ नरक मइ दुख जेतई सह्या, तेह आगे किसू एह रे । पाय तीजइ इसउ चीतवइ, इम करइ भव तणउ छेह रे ।। ७ शब्द प्राकार रस फरस सब, गध संस्थान संघयण रे । रूप ध्यावइ वली आपणउ, तजीय मोहादि वलि मयण रे ।।८।। Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ जीव जग तीन मइ छइ किना, जीव मइ तीन जग सार रे ।। जीवं बडउ जगत्रय बडउ, जीव जग तीन ' सिणगार रे ॥ एह सरूप जगत्रय तण, चीतवइ चित्त 'मइ नित्य रे।' तेथि संस्थान-विचय भलउ, पाय चउथउ ध्रम कित्त रे ॥१० धरम ध्यान ध्यायां पछी, सुख शिव पद' दातार ।' शुकल ध्यान ध्यावे 'भविक, आतम' रूप उदार ॥१॥ घ्यार पाय तिण शुक्ल ना, पृथक्क-वितर्क विचार । , बीजउ शुक्ल सुहामण उ, एक-तर्क अविचार ॥२॥ तीज़उ शुक्ल श्रुतइ कह्यौ, -सूक्ष्म-क्रिया - प्रतिपाति । चउथउ शुक्ल ध्यावइ सदा, छिन्न-क्रिया प्रतिपाति ॥३३॥ ढाल-मालीय केरे वांग मइ एह नी" एक द्रव्य परयाय सु, शुक्लई मन लावउ जो ॥ अहो? उतपति थिति इम भंग सू, तिण माहि मिलावट लो । अहो. ११ साते नय दो नय थकी, जग रूप विचारइ लो । ०। तीन योग इक योग सू', मन माहि उचारई लो ॥२॥ अ० पृथक-वितर्क विचारते, शुक्ल ध्यान कहावई लो । अहो । निश्चय मन-ध्यावइ ,सदा,, ते चढतइ दावइ लो। अहो । एक वस्तु नय-सातासु, माहो माहि मिलावइ लो। अहो? एह मिलइ दो नय थकी; ए च्यार मिलावइ'लो. । अहो018| केवल तदि पामी फरी,-ते ..ध्यान जल्यावई लोना-या +1 . Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-तर्क अविचार ते, शुक्ल बीजउ पावइ लो॥ अहो ॥५॥ अंतर्मुहुरत आयुप थकइ, ध्यान तीजइ आवइ लो । अ०॥ निज गुण मोक्ष प्रावी रह्यां, दोय योग रूधावइ लो॥१०॥६॥ "एक योग वादर अछइ, तेहिज पिण रोकइ लो । सुक्ष्म उसास नीसास सू, निज रूप विलोकइ लो ॥७॥ सूक्ष्म उछास लेतउ थकष्ठ, निश्चय पद धारइ लो । अ०। सूक्ष्म-क्रिया प्रतिपातीयउ, तीय शुक्ल संभारइ लो । अ० ॥८ शैलेशी करतां थकां, सब जोग खपाइ लो ॥ अ० ॥ पांच अक्षर परिणाम मइ, अद्भुत पद ध्यावइ जो ॥१॥ 'परबत जिम देह छोडि नइ, ते मोक्षइ जावइ लो ॥ अ० ' हस्व वरण इम पांचमइ, चरथउ शुक्ल भावइ लो ॥ १० ॥ दोय ध्यान सब जीव तउ, निश्चय करि ध्यावइ लो । अ० धर्म ध्यान भव्य जीव जे, तेहिज ध्रुव पावइ जो ॥११॥ शुकल ध्यान पंचम अरइ, निश्चय करि नावइ लो। अ० पहिलो संघयणनो धणी, शुकल ध्यान ज पावइ लो ।।१२।। श्री शीतल जिन वंदतां, दोय ध्यान राखइ लो । अ०॥ धरम भ्यान मन भावीयइ, देवचन्द्र इम भाखइ लो ॥१३॥ पास जिणंद जुहारीयइ ए ढाल ध्यान च्यार मइ वर्णव्या, श्री श्रागमनइ अनुसारइ रे ।' भात रौद्र नइ परिहरि, भविक धरम चित धारइ रे ॥१॥ श्री शीतल जिन वंदना, हुं करूं सदा वार वार रे ।। मषियण प्राणी जे हुवइ, ते तीजउ ध्यान संभारइ रे ॥२॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ शुकल ध्यान हिवरणां नहीं, इण पंचम दूसम आरइ रे । धरम शुकन दोइ ध्यान सू,तिण प्रीति घणी मन माहरइ रे ॥३॥ युग प्रधान जिणचंद ना, शिष्य पाठक गुणे सवाया रे। पुन्यप्रधान शिष्य गुण निला, श्री सुमतिसागर उवमाया रे ॥४॥ साधुरंग वाचक वरु, तसु सीस पंडित विख्याता रे। . राजसार पाठक अछ, जे जिनमत सूं अति राता रे ॥शा ज्ञानधरम शिष्य तेहना, वाचक पदना धारी रे। . तासु सीस राजहंस नउ, मुनि राजविमलासुविचारी रे॥६॥ तिण ए ध्यान तणउ रच्यउ, तवन शीतल जिन केरउरे। भणतां गुणतां संपदा, दिन २ उछव अधिकेरउ रे ॥णा इति ध्यान चतुष्क स्तवन ।। पं० देवचन्द्र कृतं ।। • लिखतं पं० दुगंदास मुनिना (पत्रांक २ नहीं मिला) पत्र ४: पंक्ति ११ अ० ३६४० ४दीपचंद्रजी का दीक्षावस्था का नाम है। 1 देवचन्द्रजी का दीक्षावस्था का नाम है । - ३ लींबडी शान्ति जिन स्थापना स्तवनम् . श्रावो सजन जन जिनवर वंदन, श्री शान्तिनाथ गुण वृंदा रे। जस गुण रागे निज गुण प्रगटे, भाजे भव भय फंदा रे ॥१॥ विश्वसेन अचिरा नो नंदन, पूरण पुन्ये लहीये रे । भ्यांन एकत्वे तत्व विबुद्ध, शुद्धातम पद ग्रहीये रे ॥२॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० संवत अढारसें सात वरसें, फागुण सुदि बीज दिवसे रे । भी शांति जिणेसर हरपें थाप्या, (अति) बहुमाने सिव सुख . . . वरसे रे ॥३।। नीबड़ी नयरी मडण मनोहर, शांति चइत प्रसिद्धो रे ।। वृद्ध शाख पोरवाई प्रगट जस, वोहरे डोसे, की(ली?)धो रे ॥४॥ जिन भगते जे धन आरोपे, धन धन तुसी मत धागे रे । गुणी राग थी तनमय चितें, पुद्गल राग उतारो रे ॥३॥ तीर्थकर गुण रांगी बुद्ध, रत्नत्रयी प्रगटावो रे । 'देवचन्द्र ' गुणरंगे रमतां, भव भय सर्व मिटावो रे ॥६॥ __इति शांति स्तवन सपूर्ण (पत्र १५७ वां) आनंदजी कल्याणजी पेढ़ी भंडार लकड़ी। ___४ पार्श्वनाथ गीत ढाल -सखी री प्यारउ २, एहनी .. सखी री वामा राणी नदा, अश्वसेन पिता ' सुखकंदा । प्रभावती राणी इदा, दीजै मुझ परम आणदा हो लाल ॥१॥ वीनती ए मुम धरिया, पातक सगला हरीयइ । मुम उपरि महिर जकरीयंह,तिम केवल कमला वरीयई होलालार सखीरी.तुझ सेवन पाई'दुहली. योनि गई सहु-अहिली' । हिव सेवा कीजइ-सहिली, मुम इच्छा पूरउ वहिली हो लाल ३! सखीरी ते सह पातक रोकइ, ते जय पामइ, इण लोकइ । रिदि नहइ. बहु थोकर,जेोतुम पदपंकज धोका हो लाल||४|| Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T श्रीफलवधिपुर राया, जब तुम दरसण मई पायां दुख दोहग दूर गमाया, हि श्राद थया सवाया हो लाल |५| मइ योनि सहू अवगाही, तुम सेवा कबहि न साही ! हिव मइ तु आण आरोही, मुझ लीजइ बाह संभारी हो जान J 7 C जब तुझ मुख दरसण दी सइ, तब मुझ मन अधिक हीसई । गणि राजहंस सु सीसइ, कहे देवचंद सुजगीसइ हो लाल ॥७॥ इति श्री पार्श्वनाथ गीत ( स्वय लिखित पत्र २ ) प्रारंभ में दीपचंद कृत लोद्रवा पार्श्व जिन स्तवन गा० १२ पार्श्वस्तवन गां०८ राजहंस ( दीपचंद ) कृत उसके बाद उपर्युक्त स्तवन फिर चंदकृतः स्तवन है जो प्रारंभ मे जा चुका है ५ श्री मौनेकादशी नमस्कार तिहुण जण आणंद कंद्र, जय जिणवर सुखकर । सुन्दर || कल्याणक तिथि मांहि, जेह एगसिर सुदी एकादशी, वसी आराधो पोसह करी, ठो पामो सुख : नाहि ॥ ६१ ॥ परमोत्तम सुगुण मेन मांही । । t ↓ श्री अरजिन दीक्षा प्रधान, "नमि, केवल भासन | } मल्लिनाथ जनम, दीक्षा शुचि वासनं IIT केवल "ना" कल्याण, पंच श्री जबू भरते । इमा दश क्षेत्र - एक काल, जिन महिमा वरते ॥ २ ॥ " नातीत वर्तमान, कल्याणक सवति । - 1 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ आराधो पंचास भहिय, इगलय शुभ परिणति । काल अनंते रीत एह, गुण गेह मनोहर । । परमात्तम सेवन, नमन, परमारथ सुखकर ॥३॥ दर्शन ज्ञान चारित्र वीर्य, तप गुण श्राराधन । अक्षय अव्यय शुद्ध सिद्धि, समता पद साधन ।। कल्याणक कल्याण कंद, सुरतरु जे भक्ते । पाराधै तमु आत्म भाव, थायै सवि व्यक्ते ॥४॥ तीथै तीर्थकर साधु संघ, आराधन निर्मन । जनम महोच्छव प्रमुख भक्ति, करता हुवै शिवफल ॥ देवचन्द्र जिनराय पाय, प्रणमो अति रीझे। . परम महोदय ऋद्धि सिद्धि, मन वंछित सीमै ॥५॥ ॥ इति मौन एकादशी नमस्कार ॥ (नित्य-मणि-जैन लायब्रेरी, कलकत्ता से प्राप्त ) : ६ श्री पद्मनाभ जिन स्तनन श्री वीरप्रभु उपगार थी रे, श्री श्रेणिक गुणधाम ।। क्षायिक श्रद्धा गुण वशे रे, नीपायो जिननामो रे ।। प्रथम. जिनेश्वर, भावि भरत मझारो रे । । मुझने ' तारशे रे, भवी आशा अवधारो रे ॥ प्रथम० ॥१॥ वस्तु स्वरूप प्रकाशता रे, ज्ञान चरण गुंण खाण । - वांदु प्रभुता ओलखी रे, तेहिन मुनि सुविहाणोरे ॥ प्रथम ॥२॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६३ पद्मनाभ प्रभु देशनारे, साधन साधक सिद्ध । . गौण' मुख्यता वचन में से ज्ञान ते सयल समृद्धो रे । प्रथम ३ वस्तु अनंत स्वभाव छेरे, अन्त कथक तसुनाम ग्राहक अवसर बोधथी रे, कहेवे अर्पित कामो रे ॥ प्रथम ४ शेष : अनर्पित धर्म ने रे, सापेक्ष श्रद्धा बोध | उभय रहित भासन हुवे रे, प्रगटे केवल बोधो रे । प्रथम । ५ छती परिणति गुण वर्तना रे, भासन भोग आनंद | सम काले प्रभु ताहरेरे, रम्य रमण गुण वृदो रे । प्रथम | ६ निज भावे सीय अस्तिता रे, परनास्ति स्वभाव | श्रस्तिपणे ते नास्तिता रे, सोयते उभय स्वभावो रे । प्रथम ॥७ अस्तित्वभावते आपणो रे, रुचि वैराग्य समेत । प्रभु सन्मुख वंदन करीरे, मागीस श्रतम हेतो रे । प्रथम । म । = करुणानिधि गुरुं तारीओ रे, दाखो शुद्ध स्वभाव | मुज भातम सुख स्वादनो रे, बीजो कवण उपावो रे । प्रथम काल अनादिनो विसर्यो रे, माहरो श्रातमानंद | ' प्रभु विरण मुज कुण सीखवेरे, त्रिभुवन करुणा कंदोरे | १० | मुजने तुज शासन तणी रे, छै मोटो उमेद | निर्मल आतम संपदा रे, थाशे प्रगट अभेदोरे । प्रथम । ११ दीपचंद गुरु सेवतां रे, पाम्यो देव अभंग | देवचंद ने नित होजोरे, जिन शासन दृढ़ रंगो रे । प्रथम । १२ 7 i ( सूचना - इस स्वन को ३ सेवीं गाथा चौवीसी के अंतगत कुंथुनाथ स्तवन के सदृश है । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ ४: 165 63 1 ७ अष्ट रुचि सज्झाय | सुरपति तदेव अमित गुणी. श्री भाव प्रकाशक दिनमणी. 1 शासनपति वीर जिनेश ना, गणधर सोहम शुचि मना ||१|| 1 1 3 शुचिमना' सोहम सीस जंबू, 'भणी सीख कही ' भली । सुणों श्रमतत्व रोचक, करी निज मंति निरमली ॥ r आठ कारण मोक्ष' साधक, "परम संवर पद तणौ । करौ आदर अतिहि उद्यम, यतनं साधनं अति घणौ ॥ - अभिनवा गुणनी वृद्धि थास्यै, 'दोष क्षय जासै "सबै । ते माटि सेवौं सूत्र रंगा, 'सुख' लहौं' जिम' भव भवै ॥२॥ ī, ' T" ० } 1 1 ' अनुभव रंगीले आमा - ए डाल 15 I 111 1 I }, १ पहिल कारण सेविये, भारखे वीर जिणंद- रे । नित नित नवु' नवु सांभलौ, शुद्ध घरम सुख कंद, रे ॥ थास्यै परम आणंद रे,ऊगे ज्ञान दिराद रे, फल के अनुभव चदरे||१९|| आरणा रंगी रे 'आतमा, तजिसु सर्व प्रमादु रे करि आर्गम आस्वाद रे, वसि निज तत्व प्रसाद रे ! आंकणी ॥ गीतारथ श्रुत-घर मिले, आणी श्रुति बहु मान रे, नय निक्षेप प्रमाण थी, अभ्यासौ श्रुत ज्ञान रे ॥ भजितुं जिन वर आणरे, पामै सुखनिरवा गरे, परममहोदय ठाणरे ||२|| बीजे थानक श्रुत तणौ, लाधो तस्त्र विचार रे । · } 1 1 + स्व पर समय निरधार थी, चउ अनुयोग प्रकार रे || ज्ञेय "पणे सर्व भाव 'रे, रहयो आत्म स्वभाव रे, तनि पर " A समय विभाव रे ॥३॥ 2 " ܀ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ श्रागम श्रर्थनी धारणा, थिर राखो भवि जीव रे । ज्ञान ते आतम धर्म छ, मोह तिमिर हर दीव रे | श्रत अमृतरस पीव रे, साधन एह अतीव रे, संवर ठाण सदीव रे ||४|| जेम रे । धरि प्रेम रे ॥ थाये पूरच सचित कर्म नी, निर्जरा तिम तम संवर सेवज्यो, साधि धर्म चिन्तवजो मनि एम रे, कर्म लहै हिव केम रे, मुझ पद निर्मल केम रे ॥५॥ पंचम थांनक आश्रयो, धर्म रुची जीव जेह रे । तेहनी करवी रक्षणा, बाधइ धर्म सनेह रे ॥ निम करसण जल नेह रे, घरमावष्टंभ देह रे, तो लहस्यो निज ध्रुव गेह रे ||६|| छट्ट चौविह संघनै, सीखावौ आचार रे । क्रिया करता रे गुण वधै, सधै क्षमादि प्रकार रे । दोष विकार रे, थायै ध्यान विसतार रे आलय शुद्ध विहार रे ॥७॥ गुणवंत रोगी ग्लान नौ, वैयावच्च करौ अनुकंपा सवि दीन नी, उत्तम वा विनय तरंग रे, शासन राज रंग रे । प्रसंग रे । भक्ति (ग?) उमंग रे, सहज सुभाव उत्तंग रे ॥८॥ t । साधर्मिक जन सर्व में, कहवी थाय कसाय रे तजि सवि दोष अनुष्ठान नो, क्षमण कर्या सम थाय रे । Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ इम जंपे जिनराय रे, समता शिव सुख दाय रे समनिधि मुनि गुण गाय रे, सुरपति से तसु पाय रे ॥६॥ तीजे अगेरे उपदिस्यो, ए उपदेश उदार रे। जिण आणा ए वर्तस्यै, ते गुणनिधि निरधार रे ।। ज्ञानसुधा (जल) दिल धार रे, वरसै श्री गणधार २, पामै तसु सुख सार रे॥१०॥ श्रा रयण सिंहासन वैसी नै, दाखे जगत दयाल रे। देवचन्द्र आणा रुचि, होइज्यो बाल गोपाल रे । आतम तत्त्व संभाल रे. करज्यो जिन पति वाल रे', थास्यो परम निहाल रे ॥१॥ ८ पद राग धन्यासिरी मेर जीउ क्या मन मई तू चीतइ । इक आवत इक जात निरंतर, इण संसार अनंतइ ११ मेर जीउ । करम कठोर करे जीउ भारी, परत्रिय धन निरखंतह । जनम मरण दुख देखे बहुले, चगइ मांहि भमंते ।२। मे० । काम भोग क्रीड़ा मत करना, जे बांधे हरखते । वेर वेर तेहिज भोगवता, नवि छूटे विलवंतइ रे ।३। मे० । क्रोध कपट माया मद भूल इ, भूरि मिथ्याति भमतइ । कहै देवचंद्र सदा सुख दाई, जिन ध्रम एक एकंतइ ।४। मे० । Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ .६ मेरे प्रीउ क्यु न आप विचारो। कइस हो, कइसे गुणधारक, क्या तुम लागत प्यारोश टेक । तजि कुसंग कुलटा ममता को, मानो वयण हमारो । जो कछु झूठ कहे इन में तो, भौकू सुस तुम्हारो।। मे। यह कुनार जगत की चेरी, याको संग निवारौ। निरमल रूप अनूप अबाधित, आतम गुण संभारौ।३। मे मेटि अज्ञान क्रोध दसम गुण, द्वादश गुण भी टारो।। अक्षय अबाध अनंत अनाश्रित, 'राजविमल'पद सारो ४ मे० । १० चरित्र सुख वर्णन द्वादश दोधक पर गुण से न्यारे रहै, निज गुण के आधीन । चक्रवत्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥१॥ इह नित इह पर वस्तु की, जिने परिख्या कीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।२। जिगहुँ निज निज ज्ञान सु, प्रहे परिख तत्व तीन । चक्रवर्ति से अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ३१ दस विध धरम धरइ सदा, शुद्ध ग्यांन परीवीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।४। समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन । आसा न धरै काहू की, न कबहूँ पराधीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर 'चारित नीन । Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ स्व संयम पावस बसै, दहै प्रमाद दुख झीन । चक्रवत्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ७ पुदगल जीद की सक्ति सब, जरत सप्त भय हीन । चक्रवर्ति से अधिक सुखी, मुनिवर चारित नीन ।। सप्तम गुण थांनक रहै, कीयो मोह मसकीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन || क्षपकोपशम पयड़ी चढ़े, आतमरस सुधीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥१०॥ तूर्य ध्यान ध्याते समं, कीयै करम सब छीन । चक्रवर्तितं ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ॥१६॥ देवचन्द्र वाचै सदा यह मुनिवर गुण वीन । चक्रवर्ति से अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।१२। (इति प्राकृत भाषया समस्या दोधक द्वादश, कृता पं० देवचंद्रेण) ११ हीयाली। - ॥ ढाल राय कुयरि वरि पाई भलो भरतार ए देशी ।। 1 ,इक नारि रूपी रूयड़ी, जनमी ज’ साते तात ॥ मलपती मानव भूलरइ, सगला चित्त 'सुहात ॥१॥ कहो रे चतुर नर ए हीयाली सार ॥ । जो तुम्हे चतुर विचार । क० ॥ आकणी ॥ भरतार पास नित रहै, बोलइ न भरता संग । भवर पुरख आवी मिल्या, वात करइ मन रंग ॥२॥ कः॥ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दोई नेत्र पति सांम्हा सदा, देखे न पतिचे अंग | वातालू जीहा विना, मोटा कान अभंग ||३|| क|| विचि विचै उज्जल नर मनोहर, भरि साख द्य हुंकार | पर कांधइ न चढे कदे, चरण विना चलें सार ||४|| क०|| इक नार सुं नासु वैर छै, वेवै न शीत न देवचंद्र भाखइ तेहनौ, मोटां सू मेलाप ||५|| क० || इति हीयाली संपूर्ण || ताप । ( हीयाली १ सुमतरंग १ दुर्गादास कृत सह । पत्र १ ) ( नं० ३-५ को छोड़ सभी रचनायें शाखा भंडार 'बीकानेर से प्राप्त हुई हैं ) उदय स्वामित्व पंचाशिका 1 'बंदिन्तु वद्धमाणं, जिणं च गुरु- राजसार - पय-कमलं । गई आइएस 'वुच्छं, समासश्रो उदय - सामितं ||१|| थीतिगं पुम इत्थी, नरतरि- सुर-निरय आउगई पुव्वी । वेडन्विदुगं जाई, चौ श्रईल्लाई सउरल-दुगं ॥२॥ श्राहार- दुगं संघयण- छक्क, आगई आइन्त पंच सुभखगई । थावर सुभग चक्कं श्रायव-उज्जोय - जिए -उच्चं ॥३॥ मीसं सम मिच्छ श्रणचंड, दुहग- इग बीय कसाय चउ-परघा । उसास एय पयडी, अवहरणिजा उदय श्रीपण मरण्य नवगं, एगिंदिय जाइमाइ दुगतीसं । बज्जित नरय मोहो, छसयरि, विणुमीस दुगमिच्छे ||५|| मे ||४|| · 1 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ इम जंपे जिनराय रे, समता शिव सुख दाय रे' समनिधि मुनि गुण गाय रे, सुरपति से तसु पाय रे ॥६॥ तीजे अंगेरे उपदिस्यो, ए उपदेश उदार रे। जिण आणा ए वतस्यै, ते गुणनिधि निरधार रे ।। ज्ञानसुधा (जल) दिल धार रे, वरसे श्री गणधार २, पामै तसु सुख सार रे ॥१०॥ श्रा रयण सिंहासन वैसी नै, दाखे जगत दयाल रे। देवचन्द्र आणा रुचि, होइज्यो बाल गोपाल रे । आतम तत्त्व संभाल रे. करज्यो जिन पति बाल रे, थास्यो परम निहाल रे ॥१॥ ८ पद राग धन्यासिरी मेरे जीउ क्या मन मई तू चीतइ । इक आवत इक जात निरंतर, इण संसार अनंतइ । मेरे जीउ । करम कठोर करे जीउ भारी, परत्रिय धन निरखंतह । जनम मरण दुख देखे बहुले, चउगइ मांहि भमंते ।२। मे० । काम भोग क्रीड़ा मत करना, जे बांधे हरखते । वेर वेर तेहिज भोगवता, नवि छटे विलवतइ रे।। मे० । क्रोध कपट माया मद भूलइ. भूरि मिथ्याति भमतइ । कहै देवचंद्र सदा सुख दाई, जिन ध्रम एक एकंतइ ।४। मे० । Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ है मेरे प्रीउ क्यु न आप विचारो। कइस हो, कइसै गुणधारक, क्या तुम लागत प्यारोश टेक । तजि कुसंग कुलटा ममता को, मानो वयण हमारो। जो कछु झूठ कहे इन में तौ, भौकू संस तुम्हारो ।२। मे। यह कुनार जगत की चेरी, याकौ संग निवारौ। निरमल रूप अनूप अवाधित, आतम गुण संभारौ।३। मे मेटि अज्ञान क्रोध दसम गुण, द्वादश गुण भी टारो। अक्षय अबाध अनंत अनाश्रित, 'राजविमल'पद सारो 181 मे० । - १० चरित्र सुख वर्णन द्वादश दोधक पर गुण सै न्यार रहै, निज गुण के आधीन । चक्रवत्ति से अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।। इह नित इह पर वस्तु की, जिने परिख्या कीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।२। जिणहुँ निज, निज ज्ञान सु, प्रहे परिख तत्व तीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित नीन । दस विध धरम धरइ सदा, शुद्ध ग्यांन परीवीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।४। समता सागर में सदा, झील रहे ज्यु मीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन । आसा न धरै काहू की, न कबहूँ पराधीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित नीन ।। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ स्व संयम पावस बसे, दहै प्रमाद दुख झीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन [७१ पुदगल जीद की सक्ति सब, जरत सप्त भय हीन । चक्रवर्ति ते अधिक सखी, मुनिवर चारित नीन । सप्तम गुण थांनक रहै, कीयो मोह मसकीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन || क्षपकोपशम पयड़ी चढ़े, आतमरस सुधीन । चक्रवर्त्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन १० तूर्य ध्यान ध्याते सम, कीये करम सब छीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।११। देवचन्द्र वाचै सदा यह मुनिवर गुण वीन । चक्रवर्ति ते अधिक सुखी, मुनिवर चारित लीन ।१२। (इति प्राकृत भाषया समस्या दोधक द्वादश, कृता पं० देवचंद्रेण) ११ हीयाली। - ॥ ढाल राय फुयरि वरि वाई भलो भरतार ए देशी । इक नारि रूपी रूयड़ी, जनमी ज साते तात ॥ मलपती मानव अलरइ, सगला चित्त 'सुहात ।। कहो रे चतुर नर ए हीयाली सार । • जो तुम्हे चतुर विचार || क० ॥ आकणी ।। भरतार पास नित रहै, बोलइ न भरता संग । भवर पुरख आवी मिल्या, वात करइ मन रंग ॥२|| का Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ दोई नेत्र पति सांम्हा सदा, देखे न पति ने अंग । कान अभंग ||३|| क॥ वातालू जीहा विना, मोटा विचि विचै उज्जल नर मनोहर, भरि साख द्ये हुंकार | पर कांधइ न चढे कदे, चरण विना चलै सार ||४|| क|| इक ना सु जासु वैर छै, वेवे न शीत न ताप । देवचंद्र भाखइ तेहनौ, मोटां सू मेलाप ||५|| क०|| इति हीयाली संपूर्ण || ( हीयाली १ सुमतरंग १ दुर्गदास कृत सह । पत्र १ ) ( न० ३-५ को छोड़ सभी रचनायें शाखा भंडार 'बीकानेर से प्राप्त हुई हैं ) 1 1 उदय स्वामित्व पंचाशिका 'मंदित्तु वद्धमाणं, निणं च गुरु- राजसार -पय- कमलं । गई आइएस वुच्छं, समासो उदय - सामित्तं ॥ १|| थीतिर्गम इत्थी, नरतरि- सुर-निरय- श्रा उगई पुब्बी । वेल्विदुगं जाई, चौ आईल्नाई सरल - दुगं ॥२॥ आहार-दुगं संघयण-छक्क, आगई आइन्स पंच सुभखगई । थावर सुभग उक श्रयव-उज्जोय-जि-उच्चं ॥३॥ मीसं सम मिच्छ श्ररणचर, दुहग-इग बीय कसाय चड़-परघा । उसास एय पयडी, अवहरणिजा उदय श्रीगणपण मणुय नवगं, एगिंदिय जाइमाइ दुगतीसं । बज्जित्तु नरय चोहो, इसयरि विणुमीस दुगमिच्छे ||५|| मज्मे ॥४॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० मिच्छ निरयाणुपुची, विणु सासाणे संमी मीस-गुणे । ' श्रणचउ विणु (दु) गहीणा, सयरी पुण सयरि सम्मत्ते ॥॥ सम्मनिरयाणु-पुत्री, सहिया विणुमीसमोह-धम्माए । वंसादिसु सम्मत्ते, निरयणु-पुचीविणा उदो ॥णा सिरतिग विणुमरनवगं, विउन्धी आहार तित्थ दुगहीणा । सगहिय सय ओहो, तिरिपण हिय मिच्छत्त सव्व बीए ॥८॥ मीसादि सुसगन्नु वय, एगिदिसो दयाइ पण गई । वियलतिय चिय अडविणु, पणंदि तिरि ओह नवनवई ॥६॥ मीस दुगहीण मिच्छे मिच्छ अपजत्त नाम विण बीए । अतिरि-पुवी-विहूणा, मिसनामीसि इगनवई ॥१०॥ सम्मतिरि पुव्वी सहिआ, अमीस सम्मे दुहग सग पुन्बी । विणु देसे पज्जते, अणिच्छि अपजत्त सगनवई ।।११।। 'पुमपन्ज नपुविण, जोणिमई सुनो हत्थनवई । अपजत्ते तिरि परघा, मीस दुचौ सुभग उज्जोयं ॥१२॥ 'सुह असुहखगई दुस्सरं, पन्नासय थीण पणग सधयणा । 'आगइ पण आदित्ता, पणिंदिमोहेसु वजे जा ॥१३|| मिच्छोहे एगत्तरि, भरे सुथावर "दुगंच साहरणं । आयव दुगतिरि पणदस, विणुदुसयं ओह मिच्छत्ते ॥१४॥ मीस आहार दुगतित्थ, विणु सासणि अपज मिच्छविणा । श्रण चउत्तर पुस्वि विरणा, समीसमीसेतु इगनवई ॥१५॥ सम्मनर पुन्चिखेवे, अमस सम्मेय दुहगसग-पुन्वी । विणुदेसे सपमाए, इगसी , पचक्ख , तीय विणु ॥१६॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७१ अपमादीये सुओ हुज्ज, पज्जनरेवी अपन्न विणुओहो । इत्थीसुय आहार दुगे, दुवेद अपज विणु ओहो ॥१॥ अपजत्तयतिरि समनर. अपज्ज नाणतण वानरतियग । उदश्रोतिरिति गुणु उदो, देवतिय थीण न पुवेश्रो ॥१८॥ नरतिरि निरयाण नवं, एगिदिय चउदस च संठाणा । पण अंतिम थावर चऊ, अपवदुहगंति दुस्सरय ॥१६॥ कुखगई वजिहु, सगसयरी ओहमास दुगहीण । मिच्छे मिच्छं वाए, उणुसुर पुव्वी विणा तइए ॥२०॥ मोस जुआ संमत्ते, सुर पुव्वी सम्मजू अमीस विणा । देवात्थी विणुदेवी, पुरिस विणा सेसओ उच्च ॥२१।। एगिदिएसु पुपुण, सुर पगिदिहिण चौजाई । उरलोवंगय पणदस, सुभगति जिण चौग दुस्सरयं ॥२२॥ तसजखगई विणुओहे, मिच्छे अस्सीइ थाण सुहमतिगं । परघायव दुगमिच्छ, वज्जिय गुणसयरि सासाणे ॥२३॥ विणुसाहरणं पुढ़वी, साहरणायव विहिण आऊसु । आयव विणुवण आयव, दुग साहरणं विणातेर ॥२४॥ वाउ तसेयवन्न, एगिदिसोदयाइपण पगई। सगलिंदिये सुचिवलं, वजियं ओहोइ अोहुन्च ॥२५॥ एगिदिय ओहेपिव, ओराल उवग फुगइ छेवठ्ठ। तस्सदुस्सरय - वजहु, थावर आयाव साहरण ॥२६ सुहुम वियलस्सेहो, मणवय जोगेसु नव सयं ओहो । पुची चउ अपज, पणिंदिओहे. सुजिका ॥२७॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ भवणे वियलं, खविज्ज सुर तिरि नरय विउव्वि श्राहारे । मुरलंगे ॥२८॥ दुगचौ पु०वी अपज्जा, वकिय सामन्न उरलोहें थोण तिग्गं, सुस्सर दुस्सर पसत्थ गई आयव पणदुग, सीसं विणु अपज देवोहे नाययुग, दुहग तिग कित्ति सदनीय खेबहु, सुर पुव्वी ही ही परधादुगसर दुस्सर, यगई सगई पमीस विणुमीसे । संघयण छक्क संठारण, पंच अंतिम ओराल दुग पमत्तोहे ॥ ३१ ॥ आहारे न पुमित्थि थीणनिय कुगई दुसरयं । वज्जहु तम्मीसे पुण, सुसर सुगई अपरधा दुगं ॥३२॥ थावर चउजाइ आयम, नारय तियं च तित्थं च । श्रयवपुंथोवेओ, विणु पुरसे प्रोह सत्तसयं ॥३३॥ इत्थिसु इत्थि खेवो, सढे सुरतियहारग, पुं दुगतित्थ अपसत्था । जुश्रमीसे ॥२ ॥ कुखगईहुड | वेव्वे ||३०|| हारगदुगपुर सवेअविच्छेओ । विणा अन्ना दुगे आहे, मिच्छेपगईय मिच्छ विभंगे चउजाई, श्रहो ॥ ३४ ॥ ॥ पचइया | थावर पुव्विहार दुग ॥ ३५ ॥ 1 मीस दुगायवतित्थं, विणुमिच्छोहे पि मिच्छ सासखि । ताप तिगे समदिट्ठी, पच्चइया आहार दुग सहिश्रा ॥ ३६ ॥ कोदादिसु परबारस, कसायतित्थं विमुत्तु उहब बेयकसाय तिएनव, लोभे दश गुणि सुगुणठाणा ॥ ७ ॥ समई एत्थे पुण, पम्मत्त जुग्गा इवंति इसीई । संदित्थी हाण दुग, विणुमण नाणेय परिहारे ॥ ३८ ॥ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७३ सुइमेदेसेमिच्छे, सासाणमिसे सुनीय गुण ओहो । समजिण जुग्गा ज़िणजुत्त, सट्टिपगइ श्रहक्खाए: ।। ३६ ॥ अविरय किरहानीला, काउसु आहारतित्थ विणु ओहो ।' तेजपम्हासु नारय, तियथावर- जाइ चउतित्थ · ॥ ४ ॥ तिरि पुव्वी आयविणु, ओडुट्ट संयस जिण सुक्कोहे। केवल दुग जोमीस, समोहदं सोहनाणव्व ॥ ४१ ॥ जिणविणु अवरकुदसण, थावर दुग आयवं चजाईतिग । साहरण विण चक्खु, अवरकुसमा जावखीण जिणं ॥ ५६ ।। चउसय अविरय जुग्गा, हारग दुग जत्तवेअगे ओहो । सजिणासम्म कोहा, खायगे ओह पगईओ ॥ ४३ ।। सुरविणु पुव्वीतियग, आहार दुगं च सम्म मोहविणा । उवसमओहो सयगं, भव्वे पोहुव्व उवयगई ।। ४४ ॥ मिच्छुच्चय भवियरो, सन्नीसु अतित्थजाइ चउभावं । यावर दुग साहरणं, विणुतेरसयं ओह पुनिव्व ।। ४५ ॥ नरतियगं देव, आहार दुगंसुभगतिग सुगई । संघयणागिइदसगं, आइल्लाणं जिणघउकं ॥ ४६॥ वज्जितुससन्नीसुअ, ओहे मिच्छे असुहमथीणतिगं । आयवपरधा दुगमिच्छा, दुस्सरकुगई विणावीए ॥ ४७ ॥ पुवी विणु आहारे, ओहुन्वय थीण तिगविउव्विदुगं । ओरालिय सत्तरसं, आयव परघादुगं मीसं ॥४॥ सुरसर दुस्सरपत्त य, साहारण खगइ दुगं विणाओहो । मणहारे कम्मणए निय निय गुण संभवं भणह ॥ ४६॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ दयन्वु दीरणापर, मयमत्ताइ गुरपेसु मणु-भाऊ । परिणय दुग छेओ, अजोगि श्रणुदीरणो निच्चं ॥ ५० ॥ सिरि "राजसार" पाया, वायगवर "नाणधम्म" सीसस्स । "रायहंसस्स" सीसेण, "देवचंदेण' भणियमिणं ॥ ५१ । ॥ इति श्री उदय स्वामित्त्व पंचाशिका समाप्ता ।। जयनगरीय भएडारस्थ पुस्तिकायाः प्रतिलिपिकृता मुनिविनय सागरेण विक्रमाव्दे २००२ अश्विन शुक्ला पूर्णिमा । Page #345 -------------------------------------------------------------------------- _