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रादिकने प्रशस्त-हितकारी कुटुम्बी जनो मित्रवर्ग नोकर चाकर तथा धन धान्य मणि औषधी श्राधास आदि अनेक पुद्गल पर्यायोमा तथा पंचेंद्रिना अनेक मनोज्ञ विषयमा राग वशे तल्लील थइ रह्यो छ, तेने मेलववा राखवा माटे अनेक प्रयास करूं छु, अनेक विकल्प जाल रचु छु. तेनी तृष्णारूपी भागमा निरंतर प्रज्वलित थाऊं छु, लेनो वियोग थाय ते माटे भय भोगबु छं, तेना वियोगे शोक संताप श्रानंद विगेरेनो भोक्ता बर्नु छ, भने पोतानी सहज अनंत स्वतंत्र, अप्रथम् भूत स्वक्षेत्रवर्ती अधिनश्वर मुख निदान श्रात्म परिणतिथी वियोगी रहुं धुं माटे हे भक्त वत्सल प्रलु ! एची दुष्ट परपरिणतिना रंगथी मुजने हवे शीघ्रमेव उगारो॥१॥
कारक ग्राहक भोग्यतारे, में कीधी महारायरे, दयालराय ॥ पण तुज सरीखो प्रभु लहीरे, साची वात कहायरे, दया० ॥२॥ .
अर्थ-सर्वे द्रव्यो अस्तित्व, घस्तुस्थ, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व भगुरुलघुत्व भने सत्त्व स्वभाषवंत होवापी पोताना गुणपर्यायोना कर्ता, ग्राहक, व्यापक