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श्रादिपणे पोतानी सत्ताभूमिमां सर्वदा वर्ते है, तथा वली "क्षेत्र काल भावानाम् एक समुदायित्वं द्रव्यत्वम्” क्षेत्र काल भावनुं एक समुदायिपणुं ते द्रव्यत्व छे माटे द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाष परस्पर अभेद छे प्रथग भूत के सैंथी कोह द्रव्य बीजा द्रव्यना क्षेत्र काल भावमां प्रवेश करवा सर्वथा असमर्थ के माटे मिश्वव नये कोह द्रव्य अन्य द्रव्यनो कारक कर्त्ता, भोक्ता, ग्राहक, व्यापक, आधार, प्राधेय विगेरे थइ. शके नहि, तथापि जीवमां अनादि विभाव स्वभाव होषाथी हुं मिथ्यात अज्ञान वशे पर परिणति - पुद्गल पर्यायो विषे फत भोक्ता, ग्राहक, व्यापक श्रादि बुद्धि करी मारी प्रात्मीक स्वतंत्र रिद्विधी वियोगी रह्यो पण हे युगमंधर स्वामी ! आपने संपूर्ण नये पोताना परिणामना कर्ता, ज्ञाता तथा तेमांज रमण करनार तथा सेनोज आस्वादन- अनुभव लेनार होथाथी साधा प्रभु जागी आप प्रति हुं मारी साधी कथा निवेदन करुं हुं ॥ २ ॥ 11
यद्यपि मूल स्वभावमेरे, पर कर्तत्त्व