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विभावरे ॥ दयालराय ॥ अस्ति धर्मजे माहरोरे, एहनो तथ्य अभावरे ॥ दयालराय ॥ श्री० ॥ ३॥
अर्थ-अनादि कालथी जो के माहरा ज्ञान दर्शन चारित्ररूप प्रास्म गुणमा परकर्तृत्वादि विभाचनो सश्लेष थयेलो के तेथी हु अनादिकालथी परतवादि विभाव रूप परिण, छं तो पण सत्ता. गते रहेला माहरा अस्तिधमां-सामान्य स्वभावमां खरखर ते विभावनो अभाव के कारण के सामान्य स्वभाव सदा लिगवरण छे; माटे जो हुँ माहरा अस्तिधर्म तरफ लक्ष आपु तेने प्रगट करवा रूचि धरूं तो निश्चय कर्मजन्य उपाधि रूप विभावनो समूल नाश करी संपूर्ण शुद्ध सुखनिधान अस्लिधर्मनो भोगी था, सादिअनंतकाल सुधी ए. अवस्थामा अवस्थित रहुं ॥ ३ ॥ ___पर परिणामिकता दशारे, लहि पर कारण योगरे, दयालराय ।। चेतनता परगत थईरे, राची पुद्गल भोग, दयालराय ॥श्री॥४॥