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________________ अर्थ-ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म तथा भावकर्मना उदय वशे पर परिणामिक दशाने प्राप्त थयो छु, अर्थात् पर द्रव्यना परिणामने पोतानो परिणाम मान छु एटले मन वचन अने कायानी क्रियाने श्रात्म क्रिया मानु छ तेथो मारी चेतनता पर परिणाममां व्यापी-परगत थई-पुद्गल पर्यायोने भोगववामां राची-अामक्त थई-लीन थई-त्यांज स्थित थई तेथी आत्म परिणामलो भोग लेवा अघकाश मल्यो • नहीं ॥४॥ ___ अशुद्ध निमित्त तो जड अरे, वीर्य शक्ति विहानरे ।। द० ॥ तुं तो वारज ज्ञानयारे, सुख अनंते लीनरे ॥ द०॥ श्री० ॥५॥ ___ अर्थ-पास्माने अशुद्ध परिणामे अर्थात् अज्ञान, मिथ्यात अने कषाय रूप परिणमवामां शुभाशुभ कर्मोदय वडे पुद्गल द्रव्य गुण पर्यायनो संबंध ते निमित्त छे पण ते शुभाशुभ कर्मोदय, जड-चेतनता रहित तेमज वीर्य शक्ति रहित होवाथी ते ' आत्माने अशुद्ध परिणाने परिणमाववामां पोतानी मेले कारण बनवाने असमर्थ छे, तथा कारण पद तो
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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