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२३१ नाश पामे तथा जेमांथी निरंतर परमानदनी कल्लोलो उट्यां को एवो संवर पूरे भरेलो पवित्र रस्ननिधान शुद्धास्म म्वभाष प्रगट थाय. एवा श्रापना प्रत्यक्ष दर्शननी हे प्रभु ! मने अत्यंत अभिलाषा के परतु ॥ १॥ . स्वामी वसो पुष्करवरे जंबू भरते दास लाल रे ।। क्षेत्र विभेद घणो पड्यो, किम पोहोंचे उल्लास लाल रे देव० ॥ २ ॥ ___ अर्थः- हे भगवंत ! श्राप तो पुष्कलावत विजयमा विचगे छो अने आपना दर्शननो अभिसाषी सेवक हुँ जवुद्विपना भरतक्षेत्रमा वसु छ एम अापना तथा माहरा स्थानकने घणुं अंतर के से थी अापना प्रत्यक्ष दर्शननी मनोकामना शीरीते पूर्ण थाय
प्रकारांतरे-हे भगवंत ! ज्यां कर्म कलंकनो रंच मात्र पण प्रवेश नथी एवा पवित्र ज्ञानादि लक्ष्मीना निवासरूप विदेह अर्थात् देह रहित श्रम्पो सिद्धक्षेत्र प्राप विराजमान छो श्रने हुँ सेवक कर्मकलंक वडे मलिन,अज्ञान अने मोह अंधकार पडे भरपूर संसार क्षेत्रमा परिभ्रमण करूं छु; एम