SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३ उत्क्तंच - ( दश वैकालिके ) " - जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्ठी कुञ्चइ ॥ साहीणे चयइ भोए, से हु चाइत्ति वुच्चइ - एम बिजोगनुं " "" समोर तथा विषयादिनो त्याग ते आत्माना मलिन थयेला ज्ञान दर्शन चारित्र आदि स्वभाषिक धर्मने शुद्ध प्रगट करवामां कल्याणकारी साधनो होवाथी द्रव्यधर्म के अर्थात् भाव धर्मना कारणो के उक्तंच - " कारण यासे दव्वं " भने कारण वगर कार्य सिद्धि अलभ्य के, उष- कारण जोगे हो कारज नीपजेरे, एहमां कोइ न वाद । पण कारण विण कारज साधियेरे, तै निज मति उन्माद - माटे विषय परिग्रहादि जे रागादि अशुद्धोपयोगना हेतुभो तेनो त्याग करवो अमे ज्ञान ध्यानादिक, जे रागादिनो नाश करी शुद्धात्म भाव प्रगट करवाना हेतुओ के ते मादरवा, जेथी कार्य सिद्धि धाय ॥ २ ॥ उपशम भावे हो मिश्र क्षायिकपणे, जे निज गुण प्राग्भाव ॥ पूर्णावस्थाने नापजावतो,
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy