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१६३ ज्ञानादि सर्वे शक्तिउं श्राप पोताने स्वाधीन बतायो छो वली सर्वे कर्मनो अभाव करी श्रापे ते शक्ति पोताने स्वाधीन करी छे माटे ते हवे आपथी कोई पण काले क्षणमात्र पण प्रदेशांतरे थनार नथी, सदा काल श्रापमा अचल पणे रहेशे तेथी तजन्य अानंदमां आप सदा मग्न छो ॥ ४॥ दास विभाव अनंत, नासे प्रभुजी हो तुज अवलंबने ॥ ज्ञानानंद महंत, तुज सेवाथी हो सेवकने बने ॥ ५॥
अर्थ:-ज्यांसुधी आत्मा सचेत थयो नथी स्पांसुधी अनादि विभाव स्वभाव होवाने लीधे श्रात्मा सम्यक्ज्ञाने नहि परिणमतां अज्ञानपणे परिणमे छे, सम्यक्दर्शनपणे नहि परिणमतां मिथ्यादर्शनपणे परिणमे छ, स्वस्वरूपमा रमण नहि करतां विषय कषायमा रमण करे छ पंडितभावे वीर्य नहि फोरवतां बाल बाधक भावे फोरके छे, सूक्ष्म तथा स्थूल क्रियानो रागी थई कर्म बंधन करे छे शुद्ध स्वभावनो कर्त्ता नहि बनतां परभावनो कर्ता बने छ, शुद्ध स्वभावनो भोक्ता नहि बनता परभाधनो भोक्ता बने छ, शुद्ध ज्ञानादि गुणनो