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________________ २०२ उवघाय पउस अंतराएणां ॥ अच्चासायणयाए, भावरण दुर्ग जिउं जयइ”॥ सम्यकज्ञान सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्ज्ञानी तथा सम्यक्दनीला प्रतिकुल आचरणथी, तथा सम्यक्ज्ञान तथा सम्यक्दर्शने अोलववाथी, गुरूने वुपाववाथी तथा तेउनो उपघात करवाथी, तथा सम्यज्ञान सम्यक्दर्शन तथा तेना स्वामी तथा तेना कारणो उपर द्वेष, मात्सर्य. ईर्षा करवाथी तथा ज्ञान दर्शनमां अंतराय करवाधी, ज्ञान दर्शन तथा तेना स्वामीनी अाशातना करवाथी ज्ञानावरण तथा दर्शनावरण कमेनो बंध थाय छे. उन्मार्गनी देशनाथी तथा सन्मार्गनो घात करवाथी ए विगेरे कारणोथी मिथ्यात्वमोहनीयनो बंध थाय छे. क्रोधादिक कषाय तथा हास्यादि नोकषायना सेवनथी चारित्रमोहनो बंध थाय छे. महा आरंभ परिग्रहमा तल्लीनता, रौद्रध्यान तथा उनकषाय वाडे नरकायु नो बंध थाम छे. गृढ हृद्य, मूर्खता, धूर्तता तथा मिथ्यात्वादि शल्य वडे तियंच श्रायुनो बंध थाय छे. अल्प कपायता, दानरुचि तथा मध्यम गुण वडे मनुष्य प्रायुनो बंध
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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