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उस्कृष्ट योग पामी शके छे एम मोहनी तरतमता वशे ( वीर्यातरायना क्षयोपशमना भेद वशे) सूक्ष्म निगोदिया लब्धिअपर्याप्ता जीवना भव प्रथम समयथी मांडी सन्नि पंचेंद्रिय मनुष्य सुधी असंख्यात योगस्थान जाणवां ॥३॥४॥
संयमने योगे वीर्य ते, तुम्हें कीधो पंडित दक्षरे ॥ साध्य रसी साधक पणे, अभिसंधि रम्यो निज लक्षरे ॥ मन०॥५॥
अर्थ:-ज्यांसुधी सम्यक्दर्शन सम्यज्ञाननी प्राप्ति थइ नथी त्यांसुधी संसारी जीव मिथ्यात अज्ञानवशे पौद्गलीक कार्यने पोतार्नु कार्य मानी वीर्यातरायना क्षयोपशम वडे प्राप्त थयेला आत्म. वीर्यने असंयममा अर्थात् स्वपर जीवनी द्रव्यभाव हिंसामां वापरे छे, पोताना वीर्यने बाल बाधक भावे परिणमावे छे, पोताना वीर्य वडे कर्मबंध करी भव भ्रमणनी उपाधि प्राप्त करे छे. पण हे भगवंत! मापे सम्यक्दर्शन सम्यक्ज्ञान वडे पोतानुं शुद्धोपयोग रूप कार्य जाणी बाल बाधक भावनो परिहार करी क्षयोपशम वडे प्राप्त थयेला वीर्यने संयम कार्यमा जोडयुं अर्थात् ज्ञानदर्शन चारित्रने निर्मल