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________________ १०० पणे परिणमवामां सहायकारी कर्यु. मन वचन तथा काययोगने संयम कार्यमा जोड्या एम भास्मवीर्यने पंडितभावे तथा हितकारी भावे परिणमाव्यु. सचिदानंदमय शुद्धात्म द्रव्य पोतानुं शुद्ध साध्य जाणी तेना रसीया-ते साधवाना 'उमंगी थइ अभिसंधिज वीर्यने ( जे'मतिपूर्वक उपयुक्त वीर्य ते अभिंसधिज वीय ) निज लक्षमां एटले अनंतसुखे पिंड जे शुद्धात्मपद ते साधवामां रमाव्युवापर्यु. एम अभिसंधिज वीर्यने शुद्ध कारक प्रवृत्तिमा जोडी प्रबंधक भावे परिणमाव्यु ॥५॥ अभिसंधि अंबंधक नापने, अनभिसंधि अबंधक थायरे ॥ स्थिर एक तत्त्वता वर्त्ततो ते क्षायिक भाव समायरे ॥ मन० ॥६॥ ___ अर्थः-एम हे भगवंत ! आपन अभिसंधिज वीर्य प्रबंधक भावे वर्तवाथी अनभिसंधिज वीर्य । पण प्रबंधक भावे परिणम्यु ( मन चिंतनापूर्वक • पाहार विहाराक जे करण व्यापार ते अभिसं. धिज वीर्य कहीये अने जे मन चिंतना विना केवल वचन अने कायाना व्यापार ते अनभिसंधिज वीर्य कहीये) माटे जेनी मनोवृत्ति-मंतरंग उपयोग
SR No.010575
Book TitleViharman Jina Stavan Vishi Sarth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJatanshreeji Maharaj, Vigyanshreeji
PublisherSukhsagar Suvarna Bhandar Bikaner
Publication Year1965
Total Pages345
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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