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अकृत्रिम, स्वतंत्र, एकांतिक, अंतातीत, अव्यायाध आत्मीक सुखमां लोन-संतृप्त-निमग्न थइ रह्या छो॥ ५॥ .
‘तिण कारण निश्चय करयो रे, मुज निज परिणति भोगरे । द० । तुज सेवाथी नीपजेरे, भांजे भव भय शोगरे॥द०॥ श्री० ॥६॥
अर्थ-तेथी न्याय युक्त ज्ञानद्रष्टिथी मने एवो निश्चय थयो छ के हे भगवत ! कर्म रूप रजथी सर्वथा निलेप स्फटीक समान तमारा संपूर्ण, निर्मल पवित्र गुणोनुं सेवन करतां-भक्तिकरतामाहरी श्रास्म परिणति रुप अवाध्य अखूट स्वतंत्र पूर्णानंदमय सहज श्रात्म संपदाना भोगनी मने प्राप्ति थशे तथा. "भांजे भव भय सोग' अनादि कालथी चार गतिरूप भवसमुद्रमा अज्ञान वशे अनेक दुःसह दुःखो तथा लज्जान्य भय, शोक, संताप, आनंद विगेरे सहुं छु, तेनो सहज लीलामात्रमा नाश थशे ॥ ६॥
शुद्ध रमण आनंदता रे, ध्रुव निस्संग