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२०६ जाणी, सद्दही, श्रापना केवलज्ञानादि शुद्धात्म धर्म मने रुच्या, ते प्रगट करवानी इच्छा थई, परपरिणतिथी विरागभाव उपज्यो, अंतर बास्मतानी प्राप्ति थई. ।। ७ ॥ प्रतिछदे प्रतिछंदे जिनराजने हो जी, करता साधक भाव । देवचंद्र देवचंद्र पद अनुभवे हो जी, शुद्धातम प्रागभाव ॥ नमिप्रभ० ॥८॥ - अर्थ:-स्तुति कर्ता श्रीदेवचंद्र मुनि कहे केहे भगवंत! आप जेम मिथ्यात्व अविरति प्रमाद कषाय योगनो स्याग करी परमात्म अवस्थाने प्राप्त थया तेमज हुं जो आप प्रमाणे साधक भाव श्रादर तो हुँ पण निःसंदेह देवमां चंद्रमा समान परमात्म पदनो आस्वाद लेनार भोगवनार थाउं; शुद्धात्म धर्मनी संपूर्ण प्रगटता थाय. ॥ ८॥
॥ संपूर्ण ॥
अथ सप्तदशम श्री वीरसेन जिन स्तवनम् ॥
॥ लाचलदे मात मल्हार ॥ ए देशी ।। वीरसेन जगदीश, ताहरी परम जगीश,